बुधवार, 9 नवंबर 2011

प्रदेश चर्चा

उ.प्र.: बाघ और इंसान साथ-साथ
रोमा/रजनीश
उत्तरप्रदेश के खीरी जिले का सूरमा गांव देश का ऐसा पहला गांव बन गया है जो कि अपने संघर्ष के बल पर टाइगर रिजर्व का भाग बन गया है । नए वनाधिकार कानून का लाभ उठाकर सूरमा गांव के आदिवासियों ने खुद को उजड़ने से बचा लिया है । उनका यह संघर्ष और जीत देशभर के टाइगर रिजर्व व अन्य वनों से विस्थापितों के लिए उदाहरण बन सकता है ।
उत्तरप्रदेश के खीरी जिले का सूरमा गांव देश का ऐसा पहला वनग्राम बन गया है, जिसके बांशिदे थारू आदिवासियों ने पर्यावरण बचाने की जंग अभिजात्य वर्ग द्वारा स्थापित मानकों और अंग्रेजों द्वारा स्थापित वन विभाग से जीत ली है । बड़े शहरों में रहने वाले पर्यावरणविदों, वन्यजीव प्रेमियों, अभिजात्य वर्ग और वन विभाग का मानना है कि आदिवासियों के रहने से जंगलों का विनाश होता है, इसलिए उन्हे ंबेदखल कर दिया जाना चाहिए । जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक रूप में देखा जाए तो आदिवासियों और वनों के बीच अटूट रिश्ता है । वन हैं तो आदिवासी हैं और आदिवासी हैं तो दुर्लभ वन्यजीव जंतु भी है ।
वनग्राम सूरमा और गोलबोझी के आदिवासियों ने आखिर वनाधिकार कानून २००६ के सहारे यह साबित कर दिया है कि वन्य जीव-जन्तुआें की तरह वे भी वनों के अभिन्न अंग हैं, जिसे दुभाग्यवश वन विभाग और अभिजात्य वर्ग समझने में असमर्थ है । सूरमा वनग्राम को इस कानून के तहत देश में किसी नेशनल पार्क के कोर जोन में मान्यता पाने वाले पहले गांव का गौरव प्राप्त् हुआ । बीते ८ अप्रैल को जिलाधिकारी खीरी ने स्वयं इन गांवोंमें जाकर ३४७ परिवारों को मालिकाना हक सौंपा ।
सत्तर के दशक से राष्ट्रीय उद्यान के अंदर वन विभाग और वन्यजीव जन्तु प्रेमियों द्वारा गांव की मौजूदगी का जमकर विरोध किया जाता रहा है । जिसके चलते पिछले तीस सालों के दौरान देश के विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों से हजारों परिवारों को संविधान के अनुच्छेद २१ की मंशा के खिलाफ और बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए बेरहमी से बेदखल किया गया । लेकिन २००६ में बने वनाधिकार कानून ने संकटग्रस्त वन्यजीव जन्तु आवास क्षेत्र घोषित करने की योजना में वहां रहने वाले ग्रामीणों की भागीदारी को स्वीकारा और उन्हें वनों के अंदर रहने की अनुमति प्रदान की । राष्ट्रीय पार्को में वनाधिकार कानून लागू न करके वन विभाग द्वारा लोगों को दस लाख रूपये का लालच देकर गांव खाली करने के लिए फुसलाया जा रहा है । कई जगहों पर वनों से लोगों की बेदखली बदस्तूर जारी है ।
सूरमा का संघर्ष तमाम थारू क्षेत्र की गरिमा का सवाल था । यह सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वनों एवं वन्यजीव जन्तुआें को बचाने का भी संघर्ष भी था । आजादी के बाद से ही दुधवा के अंदर वनों का अंधाधंुध दोहन शुरू हो गया । वन विभाग, पुलिस एवं सशस्त्र सीमा बल की साठगांठ से वन्य जीव जंतुआें की बड़े पैमाने पर तस्करी के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गिरोह सक्रिय हुए । आदिवासियों के लिए वन उनकी जीविका का साधन होते है । इसलिए वनों का विनाश उनके लिए नुकसानदायक था । बाघों के साथ उनका जीवन सहज ही था बाघ और मनुष्य मेंकिसी प्रकार का बैर नहीं था । लेकिन वनों को राजस्व प्रािप्त् का साधन मान लिए जाने के कारण स्थानीय लोगों और आदिवासियों को वनों का दुश्मन करार दे दिया गया ।
सूरमा गांव का इतिहास १८६१ में वन विभाग की स्थापना के बाद बनी इस क्षेत्र की विभिन्न कार्य योजनाआें में मिलता है । उनमें बताया गया है कि यह गांव १८५७ से भी पूर्व से बसा है, जब ब्रिटिश हुकूमत ने वन विभाग की स्थापना भी नहीं की थी यहां थारूआें के ३७ गांव थे, जो बदिंया गांव के नाम से जाने जाते थे । २८ फरवरी १८७९ को ये नेपाल सीमा के रिजर्व फॉरेस्ट घोषित कर दिए गए ।
यह इलाका उस समय अवध प्रांत की खैरीगढ़ रियासत का हिस्सा था । जिसे महारानी खैरीगढ़ ने १९०४ में हुए एक करार नामे पर हस्ताक्षर करके वन विभाग के अधीन कर दिया था । वनग्राम बनाने का मतलब था इन गांवों के तमाम अधिकारों का खात्मा और इनसे वनों के अंदर बेगार कराना ।
१९७८ तक ये गांव वन विभाग के नियंत्रण में रहे । दुधवा नेशनल पार्क की घोषणा के बाद ३७ में से ३५ थारू गांव राजस्व विभाग को सौंप दिए गए । जबकि बिली अर्जुन सिंह द्वारा इस वन क्षेत्र को दुधवा राष्ट्रीय उद्यान बनाए जाने के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार की मंजूरी मिल गई । दुधवा नेशनल पार्क बना । लेकिन आजाद भारत में थारूआें के तमाम संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए और इन्हें वन विभाग का गुलाम बना दिया गया । यह वहीं बिली अर्जुनसिंह है, जिन्होंने १२ साल की उम्र में बांध का शिकार किया था । बिली ने इस नेशनल पार्क के अंदर और बाहर ४०० एकड़ भूमि पर कब्जा भी कर लिया था । जिसमें से ८० एकड़ भूमि अभी हाल में बसपा सरकार द्वारा जप्त् की गई है । यहां एक तरफ शिकारियों को प्रोत्साहन मिला और वहीं दूसरी तरफ थारू आदिवासियों को उपेक्षा एवं तिरस्कार ।
आज से महज चार वर्ष पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि किसी राष्ट्रीय उद्यान के कोर जोन के अंदर किसी गांव को मालिकाना हक भी प्राप्त् हो सकता है । यह तभी संभव हो पाया जब २००६ में अनुसूचित एवं अन्य परम्परागत वन निवास (वनाधिकारों को मान्यता) अधिनियम पारित हुआ और वनों में रहने वाले आदिवासियों एवं अन्य परम्परागत वन समुदायों को अंग्रेजों के जमाने से स्थापित वन विभाग की गुलामी से मुक्ति मिली । हम कह सकते है कि सूरमा को १५ अगस्त १९४७ को नहीं बल्कि ८ अप्रैल २०११ को आजादी मिली ।
इस गांव को वन विभाग द्वारा उजाड़ने की पूरी रणनीति बन चुकी थी, लेकिन जनसंगठनों, राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच, थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच और मीडिया के सक्रिय सहयोग के सहारे सूरमा ने अपना संघर्ष जारी रखा । अपना अस्तित्व बचाने के लिए सूरमा पिछले ३३ वर्षो से लगातार संघर्ष कर रहा था ।
इस कानून के तहत गठित राज्य निगरानी समिति में जब सूरमा का मामला उठा, तब जाकर सरकार जागी । पड़ताल करने पर राज्य निगरानी समिति ने पाया कि उच्च् न्यायालय में वन विभाग द्वारा जो तथ्य पेश किए गए थे, वे झूठे थे । नया कानून आने के बाद सूरमा के विषय में पुन: विचार किया जा सकता था । यह मामला चूंकि राष्ट्रीय उद्यान के कोर जाने का मामला था, इसलिए इसे राज्य निगरानी समिति द्वारा न्याय विभाग को सौंपा गया । जिसने अंतत: दिसम्बर २०१० में इस गांव को पार्क क्षेत्र में वनाधिकार कानून के तहत बसाए जाने की सिफारिश की ।
वनाधिकार कानून की धारा ४(२) एवं ४(५) और राज्य सरकार द्वारा १३ मई २००५ के पूर्व अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के कब्जे वाली जमीनों को नियमित करने के आदेशों को भी ध्यान में रखते हुए यह घोषणा की गई ।
यह एक ऐतिहासिक जीत थी, जो न सिर्फ सूरमा या खीरी या उत्तरप्रदेश के लिए बल्कि पूरे देश के वन क्षेत्रों में रहने वाले वनाश्रित समुदायों और जनसंगठनों के आंदोलनों की जीत है । अब सूरमा जैसी नजीर पैदा हो जाने के बाद देश के अन्य नेशनल पार्को में स्थित ऐसे कई गांव को ताकत मिलेगी । वे अब वन विभाग की विस्थापना की चाल कामयाब नहीं होने देंगे । इस प्रकार वे जंगलों को और वन्यजीव-जंतुआें को भी बचाएंगें ।

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