बुधवार, 9 नवंबर 2011

विशेष लेख

आधार : मिथकों की कमजोर बुनियाद
आर. रामकुमार

दो देश । दोनों देश के प्रधानमंत्रियों के पंसदीदा प्रोजेक्ट के बीच समानातंर देखे जा सकते हैं। पहचानन पत्र विधेयक २००४ के लिए समर्थन जुटाने की कवायद में नवम्बर २००६ में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने लिखा था, पहचान पत्र का मामला केवल स्वतंत्रता का नहीं बल्कि आधुनिक दुनिया का है। सितम्बर २०१० में नंदुरबार में पहला आधार नंबर वितरित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, आधार नए और आधुनिक भारत का प्रतीक है । ब्लेयर ने कहा था पहचान पत्र में हम आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं । लगभग ऐसी ही बात मनमोहन सिंह ने भी कही : आधार प्रोजेक्ट आज की नवीनतम और आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करेगा । समानताएं अंतहीन हैं ।
पहचान पत्र को लेकर ब्लेयर की हठधर्मिता अंतत: लेबर पार्टी के लिए राजनीतिक विध्वंस लेकर आई । ब्रिटेन की जनता इस प्रोजेक्ट का पंाच साल से विरोध करती आ रही थी । अंतत: कैमरून सरकार ने २०१० में पहचान पत्र कानून को रद्द कर दिया । इस तरह पहचान पत्रों को समाप्त् कर दिया गया और राष्ट्रीय पहचान रजिस्टर की योजना बनाई गई । इसके विपरीत भारत आधार प्रोजेक्ट को बड़े जोर-शोर से आगे बढ़ा रहा है । इस प्रोजेक्ट को विशिष्ट पहचान प्रोजेक्ट (यूआईडी) भी कहा जाता है ।
यूआईडी प्रोजेक्ट को गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के साथ भी एकीकृत किया गया है । भारतीय राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण विधेयक संसद मे ंपेश किया जा चुका है । दुनिया भर में पहचान संबंधी नीतियों के पर्यवेक्षकों की नजर इस बात पर टिकी हुई है कि आधुनिक दुनिया ने भारत ने कुछ सबक सीखे हैं या नहीं ।
ब्रिटेन में पहचान पत्र संबंधी अनुभव बताते है कि ब्लेयर अपनी इस योजना का प्रचार मिथकों के मंच पर खड़े होकर कर रहे थे । पहले तो उन्होंने ऐलान किया कि पहचान पत्रों के लिए नामांकन स्वैच्छिक होगा । फिर उन्होनें तर्क दिया कि इन पहचान पत्रों से राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली और अन्य कल्याण कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार पर विराम लगेगा । ब्रिटिश सांसद और लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता डेविड ब्लंकेट ने पहचान पत्र को अधिकार पत्र तक कह दिया था । ब्लेयर ने यह दलील भी दी थी कि ये पहचान पत्र नागरिकों को आतंकवाद और पहचान संबंधी धोखाधड़ी से बचाएंगे । इसके लिए बायोमेट्रिक्स प्रौद्योगिकी को अचूक हथियार के तौर पर पेश किया गया था ।
इन सभी दावों पर जानकारों और आम लोगों ने सवाल उठाए थे । लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स द्वारा बेहद सावधानी के साथ तैयार की गई रिपोर्ट में प्रत्येक दावे का विश्लेषण किया गया और उन्हें खारिज कर दिया गया था । रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार इस पहचान पत्र को इतनी योजनाआें के लिए अनिवार्य बना रही है कि अंतत: प्रत्येक नागरिक के लिए उसे बनवाना अपरिहार्य हो जाएगा । रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पहचान पत्र से योजनाआें में पहचान संबंधी धोखाधड़ी नहीं रूक पाएगी । वजह: बायोमेट्रिक इतनी विश्वसनीय प्रणाली नहीं है कि इससे नकल पूरी तरह रूक ही जाएगी ।
भारत में एक अरब से अधिक लोगों को यूआईडी संख्या मुहैया करवाने वाले इस आधार प्रोजेक्ट के पक्ष में भी लगभग यही दलीलें दी जा रही हैं । आधार को भी मिथकों की बुनियाद पर प्रचारित किया जा रहा है । यहां पेश है इनमें से तीन मिथक :
मिथक १ : आधार संख्या अनिवार्य
नहीं है ।
हकीकत : आधार को पिछले दरवाजे से अनिवार्य कर दिया गया है । आधार को एनपीआर की तैयारियों के साथ जोड़ दिया गया है । जनगणना की वेबसाइट पर लिखा गया है, एनपीआर के तहत एकत्रित आंकड़े भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण को दिए जाएंगे ताकि उनमें दोहराव न हो । उनकी अद्वितीयता सुनिश्चित होने के बाद प्राधिकरण यूआईडी संख्या जारी करेगा । यह यूआईडी संख्या एनपीआर का ही हिस्सा होगी और एनपीआर कार्ड पर भी यही संख्या अंकित रहेगी ।
एनपीआर वर्ष २००३ में नागरिकता काननू १९५५ में हुए एक संशोधन की बदौलत अस्तित्व में आया । नागरिकता नियम २००३ के नियम ३(३) के अनुसार भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में दर्ज प्रत्येक नागरिक की सूचनाआें में उसका राष्ट्रीय पहचान नंबर जरूर होना चाहिए । नियम ७(३) कहता है यह नागरिकों का दायित्व है कि वे नागरिक पंजीकरण के स्थानीय रजिस्ट्रार के पास जाकर सही जानकारियां दर्ज करवाएं । यही नहीं, नियम १७ कहता है कि नियम ५, ७, ८, १०, ११ और १४ के प्रावधानों का उल्लघंन करने पर एक हजार रूपए तक का आर्थिक दंड लगाया जा सकता है ।
निष्कर्ष बहुत सीधा है : संसद में विधेयक के पारित होने से पहले ही आधार को अनिवार्य बना दिया गया है । इस प्रोजेक्ट की आड़ में सरकारें लोगों को उनकी व्यक्तिगत सूचनाएं देने को विवश कर रही हैं ।
मिथक २ : आधार अमरीका में लागू सामाजिक सुरक्षा नंबर (एसएसए) जैसा ही है
हकीकत : एसएसएन और आधार के बीच अंतर है । एसएसएन अमरीका में १९३६ में सामाजिक सुरक्षा संबंधी लाभ मुहैया करवाने के मकसद से लागू किया गया था । इसे निजता कानून १९७४ द्वारा सीमित कर दिया गया है । निजता कानून कहता है, किसी भी नागरिक द्वारा अपना सामाजिक सुरक्षा नंबर न बताने पर भी कोई सरकारी एजेंसी उसे उसके अधिकारों, लाभों अथवा सुविधाआें से वंचित नहीं कर सकती । ऐसा करना गैर कानूनी होगा । इसके अलावा किसी तीसरे पक्ष को किसी व्यक्ति का एसएसएन बताने से पहले उसे नागरिक को सूचना देकर उसकी सहमति लेनी होगी ।
एसएसएन की परिकल्पना पहचान के दस्तावेज के रूप में नहीं की गई थी । हालांकि २००० के दशक में एसएसएन का व्यापक उपयोग विभिन्न जगहों पर पहचान के प्रमाण के रूप में करना शुरू हुआ । इसके परिणामस्वरूप कई तरह की निजी कंपनियों के हाथों में नागरिकों के एसएसएन पहुंचे । पहचान संबंधी धोखाधड़ी करने वालों ने इसका दुरूपयोग बैक खातों, क्रेडिट खातों और निजी दस्तावेजों व व्यक्तिगत जानकारियों तक सेंध लगाने में किया । वर्ष २००६ में गवर्नमेंट एकाउंटेबिलीटी ऑफिस के अनुसार एक साल की अवधि में ही करीब एक करोड़ लोगों (अमरीका की वयस्क आबादी का ४.६ फीसदी) ने बताया कि उन्हें विभिन्न तरह की पहचान संबंधी धोखाधड़ियों का सामना करना पड़ा । इससे ५० अरब डॉलर से भी अधिक का नुकसान उठाना पड़ा ।
लागों के हो-हल्ले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति ने वर्ष २००७ में पहचान संबंधी धोखाधड़ियों पर एक कार्यबल गठित किया । इस कार्यबल की रिपोर्ट पर कार्यवाही करते हुए राष्ट्रपति ने एक योजना की घोषणा की : पहचान संबंधी धोखाधड़ियों का मुकाबला : एक रणनीतिक योजना । इसके तहत सभी सरकारी अधिकारियों को एसएसएन के अनावश्यक उपयोग को खत्म अथवा कम करने तथा साथ ही जहां भी संभव हो, लोगों की व्यक्तिगत पहचान के लिए इसकी जरूरत को समाप्त् करने के निर्देश दिए गए । लेकिन भारत में इसका ठीक उलटा हो रहा है । नंदन निलेकरणी के अनुसार आधार संख्या को सर्वव्यापी बनाया जाएगा । उन्होनें तो यहां तक सलाह दे डाली कि लोग इसे टैटू की तरह अपने शरीर पर गुदवा लें ।
मिथक ३ : बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल से पहचान संबंधी धोखाधड़ियां रोकी जा सकती हैं
हकीकत : वैज्ञानिकों और विधि विशेषज्ञों में इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पहचान को साबित करने में बायोमेट्रिक्स के इस्तेमाल को सीमित किया जाना चाहिए ।
सबसे पहले तो ऐसी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है कि उंगलियों के निशान के मिलान में त्रुटियां बिलकुल नहीं अथवा नगण्य होती हैं ।
ऐसा हमेशा होगा कि तैयार डेटाबेस के रूबरू कुछ लोगों की पहचान का गलत मिलान होगा या मिलान ही नहीं होगा । फिर मिलान संबंधी त्रुटियां भारत जैसे देशों में और भी बढ़ जाएंगी । बायोमेट्रिक उपकरणों की आपूर्ति के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने जिस ४जी आइडेटिटी साल्यूशंस नामक कंपनी को ठेका दिया है, वह कहती है : ऐसा अनुमान है कि किसी भी आबादी में पांच फीसदी लोगों की उंगलियों के निशान चोटों, उम्र अथवा निशानों की अस्पष्टता के कारण पढ़े नहीं जा सकते ।
भारत जैसे देश का अनुभव यही कहता है कि यह समस्या १५ फीसदी लोगों के मामले में सामने आती है क्योंकि यहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शारीरिक श्रम के कामों में लगा है । पन्द्रह फीसदी का मतलब होगा करीब २० करोड़ लोगों का इस प्रणालीसे बाहर रहना । अगर फिंगरप्रिंट रीडर्स को मनरेगा के कार्यस्थलों, राशन की दुकानों इत्यादि पर इस्तेमाल किया जाएगा, तो करीब २० करोड़ लोग इन योजनाआें की पहुंच से बाहर हो जाएंगे ।
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण की बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्ड कमेटी की रिपोर्ट ने भी माना है कि ये चिताएं वास्तविक है । उसकी रिपोर्ट कहती है, किसी की अद्वितीयता का निर्धारण करने में सबसे जरूरी फिंगरप्रिंट की गुणवत्ता का भारतीय संदर्भोंा में गहराई से अध्ययन नहीं किया गया है । तकनीक की इतनी सीमाआें के बावजूद सरकार इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ा रही है । इस पर खर्च ५० हजार करोड़ रूपए से भी ज्यादा आएगा ।
कहा जाता है कि सत्य का सबसे बड़ा शत्रु झूठ नहीं, बल्कि मिथक होते हैं । एक लोकतांत्रिक सरकार को आधार जैसे विशाल प्रोजेक्ट को केवल मिथकों के धरातल से नहीं चलाना चाहिए । ब्रिटेन का अनुभव बताता हे कि सरकार के मिथकों का भंडाफोड़ नागरिक अभियानों के जरिए किया जा सकता है । भारत को भी ऐसे ही विशाल अभियान की जरूरत है ।

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