क्यों टूटते हैं तारें ?
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
सौर मण्डल में मंगल और बृहस्पति की कक्षाआें के बीच काफी बड़ा फासला है । सन् १८०१ में इस क्षेत्र में खगोल वैज्ञानिकों द्वारा एक छोटा पिण्ड खोजा गया जो सूर्य के चारों और परिक्रमा कर रहा था । उस समय से अब तक इस प्रकार के डेढ़ हजार से अधिक पिण्डों की खोज की जा चुकी है। इन पिण्डों को क्षुद्र ग्रह (एस्टेरॉय) कहा जाता है । ये क्षुद्र ग्रह समय-समय पर एक दूसरे से टकराते हैं । टकराने के कारण ये सूक्ष्म टुकड़ों में टूटते रहते हैं । ये सूक्ष्म टुकड़े उल्काण (मीटिराइट) कहलाते हैं । ये उल्काणु विभिन्न दिशाआें में बिखर जाते है । इनमें से कुछ टुकड़ें विभिन्न ग्रहों तथा अन्य ब्रह्मण्डीय पिण्डों से टकरा सकते हैं । ऐसे टकराव के निशान चन्द्रमा, पृथ्वी तथा मंगल की सतहों पर पाए भी गए हैं । ये निशान विभिन्न प्रकार के ग ों के रूप में मौजूद है ।
उपरोक्त उल्काणु (मीटिराइट) जब पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं तो वायुमण्डल के अणुआें से घर्षण के कारण उनमें से अधिकांश उल्काणु तेज प्रकाश के साथ जल उठते हैं जिन्हें उलका (मीटियर) कहा जाता है । यह ज्वलन प्रकाश की एक लकीर के रूप में दिखाई पड़ता है । सामान्य बोलचाल में इसे टूटता तार (शूटिंग स्टार) भी कहा जाता है । कुछ लोग इसे देखना शुभ या अशुभ मानते हैं । उल्काआें द्वारा छोड़ी गई प्रकाश की लकीर अधिक से अधिक एक मिनट तक ही दिखाई पड़ती है । अधिकांश उल्काआें का प्रकाश तो चंद सेकंड तक ही दिखाई पड़ता है । प्रकाश की यह रेखा उल्का द्वारा वायुमण्डल के अणुआें को आयनीकृत करने के कारण दिखाई पड़ती है ।
अधिकांश उल्काएं भू-सतह से लगभग १०० किलोमीटर ऊपर दिखाई पड़ने लगती हैं तथा भू-सतह से ६०-६५ किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचते-पहुंचते लप्त् हो जाती है । अधिकांश उल्काआें का वेग लगभग ४० किलोमीटर प्रति सेकंड होता है । ऐसे अधिकांश सूक्ष्म टुकड़े तो वायुमण्डल में ही जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं, परन्तु कुछ बड़े आकार के टुकड़े भू-सतह तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं । भू-सतह पर गिरने वाले इन टुकड़ों को उल्का पत्थर (मीटिरॉयट) कहा जाता है । उल्का का रूप धारण करने वाले सूक्ष्म टुकड़े सौर मण्डल में लाखों की संख्या में पाए जाते है ।
उल्काआें का अध्ययन मानव प्रागैतिहासिक काल से ही करता आ रहा है । भारत के प्रचानी वैज्ञानिक वराह मिहिर द्वारा लिखित ग्रंथ वृहत् संहिता के उल्का लक्षणाध्याय में इस विषय की चर्चा विस्तार से की गई है । इस पुस्तक में उल्का के पांच प्रकार बताए गए हैं - घिष्णया, उल्का, अशानि, बिजली तथा तारा । घिष्णया पतली छोटी पूंछ वाली, प्रज्वलित अग्नि के समान, तथा दो हाथ लम्बी होती है । उल्का विशाल सिरवाली, साढ़े तीन हाथ लम्बी और नीचे की ओर गिरती हुई दिखाई देती है । अशनि चक्र की तरह घूमती हुई, जोर की आवाज करती हुई पृथ्वी पर गिरती है । बिजली विशाल आकार की होती है जो तड़-तड़ आवाज़ करती हुई पृथ्वी पर गिरती है । तारा एक हाथ लम्बी तथा तेज प्रकाश करती हुई आकाश में एक ओर से दूसरी ओर जाती दिखती है ।
उल्काआें तथा क्षुद्र ग्रहों की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिकों का एक विचार है कि अतीत में सौर मण्डल का कोई ग्रह टूटकर बिखर गया था, जिसके टुकड़े क्षुद्र ग्रह अथवा उल्काआें के रूप में परिवर्तित हो गए । कुछ अन्य वैज्ञानिकों की धारणा है कि अतीत में सौर मण्डल के कोई दो ग्रह आपस में टकरा गए थे, जिसके कारण दोनों ग्रह नष्ट हो गए । इनके नष्ट होने से उत्पन्न टुकड़े आज हमें क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें के रूप में दिखाई पड़ते है । परन्तु इस परिकल्पना को कुछ वैज्ञानिकों ने संतोषजनक नहीं माना है । उनके मतानुसार मंगल तथा बृहस्पति के बीच इतना बड़ा फासला है कि यहां दो ग्रहों के टकराने की संभावना नणण्य मालूम पड़ती है । कुछ वैज्ञानिकों ने एक तीसरी परिकल्पना प्रस्तुत की है । इस परिकल्पना के अनुसार क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें का निर्माण सौर मण्डल के निर्माण के साथ ही हुआ । आजकल अधिकांश वैज्ञानिक इसी परिकल्पना के समर्थक है ।
भू-सतह पर पाए गए अनेक उल्का पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि उनमें लोहा तथा निकल नामक धातुएं एवं कई प्रकार के सिलिकेट खनिज उपस्थित हैं । ये सिलिकेट खनिज उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के सिलिकेट खनिज बेसाल्ट नामक ज्वालामुखीय आग्नेय चट्टान में पाए जाते हैं । कुछ उल्का पत्थर तो शुद्ध लोहे के बने होते हैं । ये उल्का पत्थर देखने में ऐसे मालूम पड़ते है मानो पिघले लोहे को उच्च् दाब पर धीरे-धीरे ठंडा किया गया हो । इस तथ्य को ध्यान में रखकर कुछ वैज्ञानिकों का पहले यह मानना था कि यह इस बात का प्रमाण है कि उल्काआें का निर्माण ऐसे ग्रहों के टूटकर बिखरने से हुआ है जिसके केन्द्रीय भाग में लोहा मौजूद था ।
परन्तु हाल में कुछ वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इस प्रकार का लोहा कम दाब तथा निम्न तापमान पर भी निर्मित हो सकता है । कुछ उल्का पत्थरों में मौजूद रेडियोधर्मी खनिजों के विश्लेषण से पता चला है कि इनका निर्माण लगभग साढे चार अरब वर्ष पूर्व हुआ था ।
अब तक किए गए विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी की ओर आने वाली अधिकांश उल्काएं तो पृथ्वी के वायुमण्डल से गुजरते समय ही जलकर राख हो जाती है या वाष्पीकृत हो जाती है । प्रति २४ घंटे में औसतन दो करोड़ उल्काएं पृथ्वी के वायुमण्डल से गुजरते समय जल जाती है । कभी-कभी प्रत्येक घंटे में लाखों की संख्या में उल्काएं पृथ्वी के वायुमण्डल में घुसकर जलकर भस्म हो जाती है । इस घटना को उल्का वर्षा कहा जाता है । ऐसी घटना हर वर्ष लगभग एक ही समय पर घटती है ।
उल्काएं कृत्रिम उपग्रहों के लिए काफी खतरनाक साबित हुई है । संयोगवश यदि उल्काएं इन उपग्रहों से टकरा जाएं तो उपग्रह नष्ट भी हो सकते हैं । कभी-कभी किसी उल्का का टकराना काफी प्रलयंकारी साबित होता है । ऐसी ही एक घटना ३० जून १९०८ को घटी थी । उस दिन रूस के साइबेरिया क्षेत्र में उल्कापात हुआ था । इस उल्कापात की आवाज उस स्थान से लगभग ६०० किलोमीटर दूर तक सुनी गई थी । साथ ही लगभग ७५ किलोमीटर दूर तक स्थित भवनों की खिड़कियों में लगे हुए शीशे टूट गए थे । इसके अलावा लगभग ३० किलोमीटर दूर तक के क्षेत्र में पेड़-पौधे उखड़ गए थे । इसके कारण उल्कापात स्थान के निकटवर्ती क्षेत्रों में असंख्य जीव-जन्तु मारे गए थे । साइबेरिया में ही सन् १९४७ में पहाड़ी क्षेत्र में उल्का वर्षा हुई थी ।
प्रत्येक उल्का अपने साथ ब्राह्म अन्तरिक्ष से पत्थरों एवं धूल कणों की कुछ मात्रा पृथ्वी पर अवश्य लाती है । अनुमान है कि प्रति दिन लगभग दस लाख किलोग्राम पदार्थ उल्काआें द्वारा ब्राह्म अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर लाया जाता है । यह पदार्थ धूल कणों के रूप में होता है । ऐसे धूल कण ऊपरी वायुमण्डल तथा ध्रुवों पर पाए गए हैं । परन्तु पृथ्वी के अपने द्रव्यमान की तुलना में उल्काआें द्वारा लाया गया पदार्थ नगण्य है । पृथ्वी की उत्पत्ति के समय से अब तक (अर्थात् लगभग साढ़े चार अरब वर्ष में) उल्काआें द्वारा लाए गए पदार्थ की यदि पूरी मात्रा पृथ्वी पर फैलादी जाए तो उससे निर्मित होने वाली परत की मोटाई सिर्फ ३० से.मी. होगी ।
अधिकांश उल्काएं भू-सतह से लगभग १०० किलोमीटर ऊपर दिखाई पड़ने लगती हैं तथा भू-सतह से ६०-६५ किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचते-पहुंचते लप्त् हो जाती है । अधिकांश उल्काआें का वेग लगभग ४० किलोमीटर प्रति सेकंड होता है । ऐसे अधिकांश सूक्ष्म टुकड़े तो वायुमण्डल में ही जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं, परन्तु कुछ बड़े आकार के टुकड़े भू-सतह तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं । भू-सतह पर गिरने वाले इन टुकड़ों को उल्का पत्थर (मीटिरॉयट) कहा जाता है । उल्का का रूप धारण करने वाले सूक्ष्म टुकड़े सौर मण्डल में लाखों की संख्या में पाए जाते है ।
उल्काआें का अध्ययन मानव प्रागैतिहासिक काल से ही करता आ रहा है । भारत के प्रचानी वैज्ञानिक वराह मिहिर द्वारा लिखित ग्रंथ वृहत् संहिता के उल्का लक्षणाध्याय में इस विषय की चर्चा विस्तार से की गई है । इस पुस्तक में उल्का के पांच प्रकार बताए गए हैं - घिष्णया, उल्का, अशानि, बिजली तथा तारा । घिष्णया पतली छोटी पूंछ वाली, प्रज्वलित अग्नि के समान, तथा दो हाथ लम्बी होती है । उल्का विशाल सिरवाली, साढ़े तीन हाथ लम्बी और नीचे की ओर गिरती हुई दिखाई देती है । अशनि चक्र की तरह घूमती हुई, जोर की आवाज करती हुई पृथ्वी पर गिरती है । बिजली विशाल आकार की होती है जो तड़-तड़ आवाज़ करती हुई पृथ्वी पर गिरती है । तारा एक हाथ लम्बी तथा तेज प्रकाश करती हुई आकाश में एक ओर से दूसरी ओर जाती दिखती है ।
उल्काआें तथा क्षुद्र ग्रहों की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिकों का एक विचार है कि अतीत में सौर मण्डल का कोई ग्रह टूटकर बिखर गया था, जिसके टुकड़े क्षुद्र ग्रह अथवा उल्काआें के रूप में परिवर्तित हो गए । कुछ अन्य वैज्ञानिकों की धारणा है कि अतीत में सौर मण्डल के कोई दो ग्रह आपस में टकरा गए थे, जिसके कारण दोनों ग्रह नष्ट हो गए । इनके नष्ट होने से उत्पन्न टुकड़े आज हमें क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें के रूप में दिखाई पड़ते है । परन्तु इस परिकल्पना को कुछ वैज्ञानिकों ने संतोषजनक नहीं माना है । उनके मतानुसार मंगल तथा बृहस्पति के बीच इतना बड़ा फासला है कि यहां दो ग्रहों के टकराने की संभावना नणण्य मालूम पड़ती है । कुछ वैज्ञानिकों ने एक तीसरी परिकल्पना प्रस्तुत की है । इस परिकल्पना के अनुसार क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें का निर्माण सौर मण्डल के निर्माण के साथ ही हुआ । आजकल अधिकांश वैज्ञानिक इसी परिकल्पना के समर्थक है ।
भू-सतह पर पाए गए अनेक उल्का पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि उनमें लोहा तथा निकल नामक धातुएं एवं कई प्रकार के सिलिकेट खनिज उपस्थित हैं । ये सिलिकेट खनिज उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के सिलिकेट खनिज बेसाल्ट नामक ज्वालामुखीय आग्नेय चट्टान में पाए जाते हैं । कुछ उल्का पत्थर तो शुद्ध लोहे के बने होते हैं । ये उल्का पत्थर देखने में ऐसे मालूम पड़ते है मानो पिघले लोहे को उच्च् दाब पर धीरे-धीरे ठंडा किया गया हो । इस तथ्य को ध्यान में रखकर कुछ वैज्ञानिकों का पहले यह मानना था कि यह इस बात का प्रमाण है कि उल्काआें का निर्माण ऐसे ग्रहों के टूटकर बिखरने से हुआ है जिसके केन्द्रीय भाग में लोहा मौजूद था ।
परन्तु हाल में कुछ वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इस प्रकार का लोहा कम दाब तथा निम्न तापमान पर भी निर्मित हो सकता है । कुछ उल्का पत्थरों में मौजूद रेडियोधर्मी खनिजों के विश्लेषण से पता चला है कि इनका निर्माण लगभग साढे चार अरब वर्ष पूर्व हुआ था ।
अब तक किए गए विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी की ओर आने वाली अधिकांश उल्काएं तो पृथ्वी के वायुमण्डल से गुजरते समय ही जलकर राख हो जाती है या वाष्पीकृत हो जाती है । प्रति २४ घंटे में औसतन दो करोड़ उल्काएं पृथ्वी के वायुमण्डल से गुजरते समय जल जाती है । कभी-कभी प्रत्येक घंटे में लाखों की संख्या में उल्काएं पृथ्वी के वायुमण्डल में घुसकर जलकर भस्म हो जाती है । इस घटना को उल्का वर्षा कहा जाता है । ऐसी घटना हर वर्ष लगभग एक ही समय पर घटती है ।
उल्काएं कृत्रिम उपग्रहों के लिए काफी खतरनाक साबित हुई है । संयोगवश यदि उल्काएं इन उपग्रहों से टकरा जाएं तो उपग्रह नष्ट भी हो सकते हैं । कभी-कभी किसी उल्का का टकराना काफी प्रलयंकारी साबित होता है । ऐसी ही एक घटना ३० जून १९०८ को घटी थी । उस दिन रूस के साइबेरिया क्षेत्र में उल्कापात हुआ था । इस उल्कापात की आवाज उस स्थान से लगभग ६०० किलोमीटर दूर तक सुनी गई थी । साथ ही लगभग ७५ किलोमीटर दूर तक स्थित भवनों की खिड़कियों में लगे हुए शीशे टूट गए थे । इसके अलावा लगभग ३० किलोमीटर दूर तक के क्षेत्र में पेड़-पौधे उखड़ गए थे । इसके कारण उल्कापात स्थान के निकटवर्ती क्षेत्रों में असंख्य जीव-जन्तु मारे गए थे । साइबेरिया में ही सन् १९४७ में पहाड़ी क्षेत्र में उल्का वर्षा हुई थी ।
प्रत्येक उल्का अपने साथ ब्राह्म अन्तरिक्ष से पत्थरों एवं धूल कणों की कुछ मात्रा पृथ्वी पर अवश्य लाती है । अनुमान है कि प्रति दिन लगभग दस लाख किलोग्राम पदार्थ उल्काआें द्वारा ब्राह्म अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर लाया जाता है । यह पदार्थ धूल कणों के रूप में होता है । ऐसे धूल कण ऊपरी वायुमण्डल तथा ध्रुवों पर पाए गए हैं । परन्तु पृथ्वी के अपने द्रव्यमान की तुलना में उल्काआें द्वारा लाया गया पदार्थ नगण्य है । पृथ्वी की उत्पत्ति के समय से अब तक (अर्थात् लगभग साढ़े चार अरब वर्ष में) उल्काआें द्वारा लाए गए पदार्थ की यदि पूरी मात्रा पृथ्वी पर फैलादी जाए तो उससे निर्मित होने वाली परत की मोटाई सिर्फ ३० से.मी. होगी ।
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