शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ज्ञान विज्ञान
संवेदना की रफ्तार का मापन

    हाथ पर पिन चुभे तो कितनी देर बाद आपको इस बात का पता चल जाता है ? आप कहेंगे तत्काल पता चल जाता है । उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में यही माना जाता था । आम तौर पर पिन चुभने या गर्म तवे पर हाथ लग जाने वगैरह की प्रतिक्रिया इतनी जल्दी होती है लगता है कि हाथ से मांसपेशियों तक खबर पहुंचने में समय ही नहीं लगता ।
    जब उंगली किसी गर्म चीज पर पड़ जाए, तो आपके द्वारा हाथ हटा लेने की क्रिया मांसपेशियोंमें संकुचन की वजह से होती है ।इसका मतलब है कि उंगली से यह संकेत मांसपेशियों तक पहुंचा होगा । चूंकि यह प्रतिक्रिया काफी तेजी से होती है, इसलिए यह बताना खासा मुश्किल काम है कि इसमें कितना समय लगा । मगर हरमन फॉन हेल्महोल्ट्ज ने इसे नापकर ही दम लिया था । 
     हेल्महोल्ट्ज (१८२१-१८९४) एक भौजिक शास्त्री तो थे ही, साथ ही वे एक चिकित्सक और चित्रकार भी थे । उन्होंने ध्वनि, ऊर्जा के संरक्षण वगैरह  क्षेत्रोंमें उल्लखेनीय काम किया । इसके अलावा उन्होंने मांसपेशियों द्वारा किए जाने वाले कार्य और उनमें हो रही आंतरिक क्रियाआें पर भी अनुसंधान  किया था ।
    संवेदना की रफ्तार के मापने के लिए उन्होंने एक विशेष उपकरण बनाया था जिसे हेल्महोल्ट्जपेंडुलम कह सकते हैं ।
    एक मेंडक की एक तंत्रिका को अलग निकाला गया था हालांकि उसे मांसपेशी से जुड़ा रहने दिया गया था । अब करना यह था कि तंत्रिका को एक उद्दीपन देकर देखा जाए कि मांसपेशी कितनी देर बाद फड़कती है ।
    पेंडुलम जब दोलन करता तो अपनी गति के एक खास बिंदु पर वह तंत्रिका को स्पर्श करता था । तंत्रिका को स्पर्श करने का पता दोलक की स्थिति से चल जाता था । अब यह देखना होता था कि मांसपेशी कितनी देर बाद    फड़की । यह बात भी दोलक की स्थिति के आधार पर पता की जाती थी ।
    दोलक की लंबाई को बहुत सटीकता से बदला जा सकता था ताकि उसे एक दोलन पूरा करने मेंलगे समय को नियंत्रित किया जा सके ।
    इस उपकरण को इस तरह सेट किया जाता था कि दोलक तंत्रिका को मांसपेशी से अलग-अलग दूरी स्पर्श  करे । इस तरह कई प्रयोगों के बाद हेल्महोल्ट्ज का निष्कर्ष था कि तंत्रिका में संवेदना संकेत २० मीटर प्रति सेकण्ड की रफ्तार से गमन करता है ।
    मुख्य बात यह है कि इस तरह के प्रयोगों ने शरीर क्रिया विज्ञान को भी एक मापन योग्य व तहकीकात के योग्य विषय बनाने में मदद की ।

मछलियोें के रंग जो नजर नही आते

    कई मछलियां हमें तो मामूली नजर आती हैं मगर एक-दूसरे को वे भड़कीले हरे, लाल, नारंगी रंगों में सजी-धजी दिखाई देती हैं । यह खोज न्यूयॉर्क अमेरिकन प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के वैज्ञानिकों ने मछली विशेषज्ञ जॉन स्पार्क्स के नेतृत्व में की है ।
    स्पार्क्स और उनके साथियों ने पाया कि १८० से ज्यादा मछली प्रजातियों में प्रतिदीिप्त् यानी फ्लोरेसेंस का गुण होता है । इसका मतलब है कि वे एक रंग का प्रकाश अवशोषित करके किसी दूसरे रंग का प्रकाश उत्सर्जित कर सकती हैं । प्लॉसवन नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ताआें ने बताया हे कि फ्लैटहेड (कोसिएला हचिंसी) नामक मछली की आंखों में पीले रंग का फिल्टर लगा होता है । कटिबंधीय प्रशांत महासागर में पाई जाने वाली यह मछली अत्यंत आकर्षक होती है । 
     अपने अध्ययन के दौरान शोधकर्ताआें ने बहामा और सोलोमन द्वीप के आसपास के पानी का सर्वेक्षण किया । सर्वेक्षण दल में वीडियोग्राफर्स भी शामिल थे । इसके अलावा, उन्होंने मेडागास्कर, अमेजन और यूएस ग्रेट लेक्स क्षेत्र की मीठे पानी की मछलियों का भी अध्ययन किया ।
    शोधकता्रआें को हड्डी वाली मछलियों और उपास्थि वाली मछलियों दोनों में जैव-प्रतिदीिप्त् के उदाहरण मिले । वैसे प्रकाश उत्सर्जन करने के उदाहरण तो जीव जगत में बहुत मिलते हैं मगर आम तौर पर वह प्रकाश उनके शरीर में होने वाली किसी रासायनिक अभिक्रिया के परिणामस्वरूप पैदा होता है । दूसरी और, जैव-प्रतिदीिप्त् मेंतो बस एक रंग के प्रकाश को दूसरे रंग के प्रकाश में बदला जाता है ।
    सर्वेक्षण से पता चला कि जैव-प्रतिदीिप्त् समुद्री मछलियों में ज्यादा पाइ्रर् जाती है । शोधकर्ताआें का मानना है कि समुद्र कहीं ज्यादा स्थिर पर्यावरण मुहैया कराता है । समुद्र के अंदर मूलत: नीले रंग का प्रकाश ही पंहुच पाता है क्योंकि पानी में से गुजरते हुए सारा प्रकाश तो सोख लिया जाता है ।
    अधिकांश प्रतिदीप्त् मछलियों की आंखों में पीला फिल्टर पाया जाता है । इसकेलते वे  प्रतिदीप्त् प्रकाश को  आसानी से पकड़ पाती हैं । उदाहरण के लिए कुछ समुद्री मछलियां सामाहूकि रूप से पूर्णिमा के आसपास अंडे देती   हैं । ऐसी परिस्थिति में चांदनी में  प्रतिदीप्त् से उत्पन्न प्रकाश में वे एक-दूसरे को पहचान पाती हैं ।
    मछलियों में जैव-प्रतिदीिप्त् की खोज से प्रतिदीिप्त् के इकॉलॉजिकल महत्त्व पर अध्ययन को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी । इसके अलावा यह अध्ययन जीव वैज्ञानिकों को कई नए प्रतिदीिप्त् प्रोटीन का सुराग दे सकता है । गौरतलब है कि १९६० के अशक में जेलीफिश में पाए गए हरे प्रतिदीिप्त् प्रोटीन (जीएफपी) ने जीन अभिव्यक्ति  से जुड़े एड्स जैसे रोगों के अध्ययन का हुलिया बदल दिया था ।

जीव विज्ञान और सृष्टिवाद

    संयुक्त राज्य अमेरिका में जैव विकास के आधुनिक सिद्धांत और सृष्टिवाद का विवाद बरसों से चला आ रहा है । जहां जैव विकास के सिद्धांत की मूल मान्यता है कि जीवों का क्रमिक विकास अरबों सालों में प्राकृतिक चयन के फलस्वरूप हुआ है, वहीं सृष्टिवादी मानते हैं कि ईश्वर ने एकबारगी सारे जीवों की रचना कर दी है । इस विवाद का ताजा प्रकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास प्रांत में सामने आया है । 
     जैव विकास बनाम सृष्टिवाद का विवाद यूएस के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग रूपों में नजर आता है । कहीं यह कानूनी लड़ाई का रूप लेता है, तो कहीं पालकों के विरोध प्रदर्शन का । दिसबंर २००३ में टेक्सास प्रांतीय शिक्षा मंडल के समक्ष यह मामला विचार के लिए प्रस्तुत किया गया था । एक अनाम व्यक्ति ने प्रांत की जीव विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों की समीक्षा करके बताया था कि उनमें कई तथ्यात्मक गलतियां हैं जिन्हें सुधारा जाना चाहिए । दरअसल ये सारे वे तथ्य थे जिन्हें सृष्टिवादी अस्वीकार करते हैं ।
    इस मामले को सुलझाने के लिए शिक्षा मंडल ने तीन जीव वैज्ञानिकों की एक समिति का गठन किया था । बताते हैं कि समिति ने एकमत से कहा कि उन्हें पाठ्य पुस्तक ों में कोई तथ्यात्मक गलती नहीं मिली   है । इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर शिक्षा मंडल ने उपरोक्त समीक्षा को खारिज कर दिया ।
    मंडल के निर्णय का अर्थ है कि जीव विज्ञान की ये पाठ्य पुस्तकें अगले दस सालों तक चलेंगी । यदि टेक्सास में सृष्टिवादी जीत जाते तो आशंका थी कि वे अन्य प्रांतों में भी दबाव बनाएगें ।
    वैसे प्रांतीय शिक्षा मंडल के स्तर पर तो जैव विकास को मान्य करके सृष्टिवाद को अस्वीकार किया गया है मगर यूएस में सृष्टिवादी विचारधारा का काफी बोलबाला है । मसलन, यूएस के पचास प्रांतों में २००० वयस्कों की एक रायशुमारी में पता चला कि ३३ प्रतिशत लोग जैव विकास के विचार से असहमत हैं और ६० प्रतिशत इसका समर्थन करते हैं । यह रायशुमारी वॉशिंगटन के प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा करवाई गई थी ।
    रायशुमारी में एक मजेदार बात पता चली है । जहां मत विभाजन की स्थिति तो लगभग २००९ में किए गए सर्वेक्षण के समान ही रही मगर यह विभाजन थोड़ा राजनैतिक रूप लेता नजर आ रहा है । जो लोग डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवारों या स्वतंत्र उम्मीदवारों को वोट देते हैं उनमें से दो-तिहाई मानते हैं कि जीवों का क्रमिक विकास हुआ है । दूसरी ओर रिपब्लिकन पार्टी के मतदाताआें में से २००९ में ५४ प्रतिशत और २०१३ में ४३ प्रतिशत ही जैव विकास को स्वीकार करते हैं ।

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