पर्यावरण परिक्रमा
खाद्य सुरक्षाके लिए जल संरक्षण जरूरी
कृषि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने जल को खाद्य सुरक्षा का आवश्यक तत्व बताते हुए कहा है कि इसकी मात्रा में हो रही कमी के प्रति लोगों को जागरूक किए जाने की जरूरत है ताकि जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सके । केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति आर.बी. सिंह ने जल दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि जल संरक्षण के लिए नयी नीति बनाने तथा इसके लिए संकल्प लेने के जरूरत है । डॉ. सिंह ने कहा कि भारत में मात्र २० दिनों के लिए जल का भंडारण हो सकता है जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष के लिए है । उन्होनें कहा कि १९५१ में देश में प्रति व्यक्ति ५२०० क्यूबिक मीटर पानी था जो अब घटकर १५०० क्यूबिक मीटर रह गया है ।
डॉ. सिंह ने कहा कि जल के अंधाधुंध उपयोग के कारण लगभग ६० वर्ष में इसकी मात्रा घटकर एक चौथाई रह गई है । उन्होंने इस स्थिति को बहुत ही खतरनाक बताते हुए कहा कि पंजाब और हरियाणा के कई हिस्सों में भू-गर्भ जल डार्क जोन में पहुंच गया है और उत्तरप्रदेश के अनेक हिस्सों में ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो रही है । उन्होनें कहा कि भू-गर्भ जल का स्तर जब गिरता है तो काफी गहराई से पंप को पानी निकालना पड़ता है जिसके कारण ऊर्जा की खपत अधिक होती है और अपेक्षित मात्रा में पानी भी नहीं निकलता है ।
डॉ. सिंह ने कहा कि सरकार ने सिंचाई की योजनाआें पर बहुत अधिक राशि खर्च की है लेकिन इन योजनाआें के अधूरी रहने के कारण किसानों को वर्षो से इसका लाभ नहीं मिल रहा है । उन्होनें कहा कि कुछ सिंचाई १५-२० वर्ष पहले शुरू हुई थी जो अब भी अधूरी है । अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान, भारत, श्रीलंका के संयोजक बी आर शर्मा ने कहा कि भू-गर्भ जल की समस्या से जूझ रही पंजाब सरकार ने मई माह में धान लगाने पर रोक लगा दी है और इसकी बुवाई जब जून में होती है । उन्होनें कहा कि इसके कारण नौ प्रतिशत पानी और बिजली की बचत होती है । डॉ. शर्मा ने कहा कि वैज्ञानिकों को सिंचाई को लेकर शिक्षित और जागरूक करना चाहिए ।
गंगा में रोज गिरता है ८० मिलियन लीटर कचरा
काशी नदियों का शहर था, जहां कभी मंदाकिनी, गोदावरी, किरणा और सरस्वती आदि नदियां काशी में प्रवाहमान थी । इनमे पांच नदिया गंगा, यमुना, सरस्वती, ध्रुतपापा और किरणा पंचगंगा घाट पर मिलती थी । लेकिन अब प्रदूषण के चलते गंगा को छोडकर सभी नदियॉ गंदगी का सोता ही रह गयी है । विशेषज्ञों के मुताबिक गंगा में बढ़ते प्रदूषण का कारण इसमें गिरने वाले नालों का पानी, अस्सी और वरूणा नदी से निकलने वाला कचरा भी है ।
आंकड़ों के मुताबिक वरूणा नदी से प्रतिदिन करीब ८० एमएलडी (मिलियन लीटर डेली) कचरा गंगा में गिरता है । वहीं अस्सी से ३० एमएलडी । अगर सभी नालों को मिलाया जाए, तो ३०० एमएलडी गंदा पानी निकलता है । १०० एलएलडी को ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ किया जाता है ।
पर्यावरण विशेषज्ञ अमिताभ भट्टाचार्य कहते है कि यह शहर नदियों, जलाशयों और नालों का शहर था । वर्तमान में सभी जलाशय और छोटी नदियां विलुप्त् हो गई । फिर भी लोग नहीं चेते हैं ।
भारत वैश्विक आईपी सूचकांक में पिछड़ा
वर्ष २०१४ के लिए जारी हुए अमेरिकी चैबर्स ऑफ कॉमर्स के अंतराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा (आईपी) सूचकांक में भारत को सबसे नीचे जगह मिली है । सूचकांक में २५ देशों को शामिल किया गया है, जहां की अर्थव्यवस्थाआें में पर्याप्त् विविधताएं है । चैबर के वैश्विक बौद्धिक संपदा केन्द्र (जीआईपीसी) सूचकांक के दूसरे संस्करण की ही भांति भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा है । खासकर पेटेंट, कॉपीराइट और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में भारत का प्रदर्शन अत्यधिक बुरा रहा ।
चैंबर द्वारा जारी किए बयान के मुताबिक जिन देशों को २०१२ और २०१४ के दोनों सूचकांको में शामिल किया गया है, उनमें भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा । क्योंकि भारत ने अपने आईपी माहौल में गिरावटको अनुमति देना जारी रखा है । रिपोर्ट में कहा गया है कि इन्नोवेश के दशक के घोषित प्रतिस्पर्धी एजेंडे के बाद भी भारत गलत रास्ते पर बढ़ रहा है । वह आईपी अधिकारों का महत्व कम कर रहा है ।
इसमें कहा गया है कि बाध्यकारी लाइसेंसों का लगातार उपयोग, पेटेट निरस्तीकरण, कमजोर विधायी और प्रवर्तन प्रणाली इन्नोवेशन को बढ़ावा देने और सर्जक की सुरक्षा करने के भारत की प्रतिबद्धता के प्रति गंभीर चिंता पैदा करती है । सूचकांक में शामिल २५ देशों में से किसी को भी संपूर्ण ३० अंक हासिल नहीं हो पाए, लेकिन अमेरिका को सर्वाधिक २८.३ अंक हासिल हुए है । प्रवर्तन की श्रेणी में हालांकि अमेरिका ब्रिटेन और फ्रांस के बाद तीसरे स्थान पर रहा । रिपोर्ट के मुताबिक चीन की पेटेंट व्यवस्था के कुछ पहलुआें में कुछ सुधार दर्ज किया गया है, लेकिन इसके समग्र आईपी माहोल में चुनौतियां बरकरार है ।
मस्तिष्क जगाता है भूख
जीवित रहने के लिए भूख जरूरी है, असामान्य भूख मोटापे का सबब बन सकती है, इतना हीं नहीं खान-पान की अनियमितता अब दुनियाभर में महामारी का रूप ले रही है , इसका समाधान कहीं मस्तिष्क की गइराईयों में छिपा है ।
शोधकर्ता भूख महसूस करने के रहस्य का खुलासा करते हुए मस्तिष्क की उन जटिलताआें का एक आरेख बना रहे हैं, जो भूख लगने पर खाने की ओर दौड़ती है ।
मैसाचुसेट्स स्थित बेथ इजरायल डेकोनेस मेडिकल सेंटर (बीआईडीएमसी) के अतन्स्त्राविका (एडोक्रोनोलॉजी) मधुमेह और चयापचय विभाग में अनुसंधानकर्ता र्बेंडफोर्ड लोवेल ने कहा कि हमारा लक्ष्य इस बात को समझना है कि कैसे मस्तिष्क भूख पर नियंत्रण करता है ।
लोवेले ने कहा कि असामान्य भूख मोटेपे और खान-पान संबंधी विकारों को जन्म दे सकती है, लेकिन असामान्य भूख कैसे गलत है और इससे कैसे निबटा जाए, यह समझने के लिए आपको सबसे पहले यह जानने की जरूरत है कि यह काम कैसे करती है । लोवेल, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मेडिसन के प्राध्यापक भी है ।
निष्कर्ष दिखाता है कि अगौती-पेप्टाइम (एजीआरपी) स्त्रायू (न्यूरॉन) को व्यक्त करता है । अगौती - पेप्टाइम मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस में स्थित तंत्रिका कोशिकाआें का एक समूह है । यह तंत्रिका कोशिका समूह गर्मी की कमी से सक्रिय होता है ।
जब एजीआरपी पशु मॉडलों में प्राकृतिक या कृत्रिम रूप से प्रेरित किया गया तो इसने चूहे को भोजन की सतत खोज के बाद खाने के लिए प्रेरित किया ।
भूख ने स्त्रायु को प्रेरणा दी कि परानिलयी गूदे मेंस्थित इन एजीआरपी स्त्रायुआें को सक्रिय करे । लोवेल ने कहा कि इस अप्रत्याशित खोज ने हमें यह समझने में एक महत्वपूर्ण दिशा दी कि आखिर क्या चीज है जिससे हमें भूख लगती है ।
जी.एम. याने खतरे की फसल
भारत में जीन-संशोधित यानी जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण के काफी समय ये चले आ रहे विरोध के बरक्स सरकार और संबंधित कंपनियां लगातार इसके पक्ष में दलीलें पेश करती रही हैं । अनेक अध्ययनों की रिपोर्टोंा में कहा गया है कि जीएम फसलों के खतरों को देखते हुए फिलहाल इसकी इजाजत देना एक घातक फैसला होगा । लेकिन केंद्र सरकार के ताजा रूख से ऐसा लगता है कि वह इस मामले में कुछ अतिक्ति हड़बड़ी में है । एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिए गए हलफनामे में सरकार ने इस मसले पर जताई जाने वाली आपत्तियों और आशंकाआें को अवैज्ञानिक नजरिया करर दिया है और जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण की देश के विज्ञान और अर्थव्यवस्था के हित में बताते हुए सर्वोच्च् न्यायालय से इनके परीक्षण का रास्ता साफ करने की इजाजत मांगी है । पर्यावरण एवं वन मंत्री वीरप्पा मोइली से पहले इस मंत्रालय की कमान संभालने वाली जंयती नटराजन ने जीएम फसलों के खुले परीक्षण की इजाजत देने के लिए बनाए गए दबाव के सामने झुकने से इनकार कर दिया था । उनसे पहले जयराम रमेश ने भी कई आशंकाएं जाहिर की थी । सवाल है कि जिन वजहों से दो मंत्रियों ने इस मसले पर अपनी आपत्ति जाहिर की थी, क्या उनका समाधान कर लिया गया है ? क्या उनके सामने देश के विज्ञान और अर्थव्यवस्था के हित का प्रश्न महत्वपूर्ण नहींथा ? क्या सरकार उन मंत्रियों के साथ-साथ कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति के निष्कर्ष और सर्वोच्च् न्यायालय की ओर से नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में जीएम फसलों के खतरनाक होने और उनके जमीनी परीक्षण पर लंबे समय तक पूरी तरह पांबदी लगाने की सिफारिशों को भी वह अवैज्ञानिक नजरिया ही मानती हैं ?
गौरतलब है कि कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति ने वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के एक स्वतंत्र समूह से पूरे मामले की गहन जांच कराने के बाद सर्वसम्मति से पेश रिपोर्ट में साफ कहा था कि जीएम फसलों का जीव-जतंुआें पर खतरनाक असर पड़ता है । लेकिन सरकार शायद इन तमाम रिपोर्टोंा और निष्कर्षोंा को ताक पर रख कर आगे बढ़ना चाहती हैं ।
खाद्य सुरक्षाके लिए जल संरक्षण जरूरी
कृषि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने जल को खाद्य सुरक्षा का आवश्यक तत्व बताते हुए कहा है कि इसकी मात्रा में हो रही कमी के प्रति लोगों को जागरूक किए जाने की जरूरत है ताकि जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सके । केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति आर.बी. सिंह ने जल दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि जल संरक्षण के लिए नयी नीति बनाने तथा इसके लिए संकल्प लेने के जरूरत है । डॉ. सिंह ने कहा कि भारत में मात्र २० दिनों के लिए जल का भंडारण हो सकता है जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष के लिए है । उन्होनें कहा कि १९५१ में देश में प्रति व्यक्ति ५२०० क्यूबिक मीटर पानी था जो अब घटकर १५०० क्यूबिक मीटर रह गया है ।
डॉ. सिंह ने कहा कि जल के अंधाधुंध उपयोग के कारण लगभग ६० वर्ष में इसकी मात्रा घटकर एक चौथाई रह गई है । उन्होंने इस स्थिति को बहुत ही खतरनाक बताते हुए कहा कि पंजाब और हरियाणा के कई हिस्सों में भू-गर्भ जल डार्क जोन में पहुंच गया है और उत्तरप्रदेश के अनेक हिस्सों में ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो रही है । उन्होनें कहा कि भू-गर्भ जल का स्तर जब गिरता है तो काफी गहराई से पंप को पानी निकालना पड़ता है जिसके कारण ऊर्जा की खपत अधिक होती है और अपेक्षित मात्रा में पानी भी नहीं निकलता है ।
डॉ. सिंह ने कहा कि सरकार ने सिंचाई की योजनाआें पर बहुत अधिक राशि खर्च की है लेकिन इन योजनाआें के अधूरी रहने के कारण किसानों को वर्षो से इसका लाभ नहीं मिल रहा है । उन्होनें कहा कि कुछ सिंचाई १५-२० वर्ष पहले शुरू हुई थी जो अब भी अधूरी है । अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान, भारत, श्रीलंका के संयोजक बी आर शर्मा ने कहा कि भू-गर्भ जल की समस्या से जूझ रही पंजाब सरकार ने मई माह में धान लगाने पर रोक लगा दी है और इसकी बुवाई जब जून में होती है । उन्होनें कहा कि इसके कारण नौ प्रतिशत पानी और बिजली की बचत होती है । डॉ. शर्मा ने कहा कि वैज्ञानिकों को सिंचाई को लेकर शिक्षित और जागरूक करना चाहिए ।
गंगा में रोज गिरता है ८० मिलियन लीटर कचरा
काशी नदियों का शहर था, जहां कभी मंदाकिनी, गोदावरी, किरणा और सरस्वती आदि नदियां काशी में प्रवाहमान थी । इनमे पांच नदिया गंगा, यमुना, सरस्वती, ध्रुतपापा और किरणा पंचगंगा घाट पर मिलती थी । लेकिन अब प्रदूषण के चलते गंगा को छोडकर सभी नदियॉ गंदगी का सोता ही रह गयी है । विशेषज्ञों के मुताबिक गंगा में बढ़ते प्रदूषण का कारण इसमें गिरने वाले नालों का पानी, अस्सी और वरूणा नदी से निकलने वाला कचरा भी है ।
आंकड़ों के मुताबिक वरूणा नदी से प्रतिदिन करीब ८० एमएलडी (मिलियन लीटर डेली) कचरा गंगा में गिरता है । वहीं अस्सी से ३० एमएलडी । अगर सभी नालों को मिलाया जाए, तो ३०० एमएलडी गंदा पानी निकलता है । १०० एलएलडी को ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ किया जाता है ।
पर्यावरण विशेषज्ञ अमिताभ भट्टाचार्य कहते है कि यह शहर नदियों, जलाशयों और नालों का शहर था । वर्तमान में सभी जलाशय और छोटी नदियां विलुप्त् हो गई । फिर भी लोग नहीं चेते हैं ।
भारत वैश्विक आईपी सूचकांक में पिछड़ा
वर्ष २०१४ के लिए जारी हुए अमेरिकी चैबर्स ऑफ कॉमर्स के अंतराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा (आईपी) सूचकांक में भारत को सबसे नीचे जगह मिली है । सूचकांक में २५ देशों को शामिल किया गया है, जहां की अर्थव्यवस्थाआें में पर्याप्त् विविधताएं है । चैबर के वैश्विक बौद्धिक संपदा केन्द्र (जीआईपीसी) सूचकांक के दूसरे संस्करण की ही भांति भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा है । खासकर पेटेंट, कॉपीराइट और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में भारत का प्रदर्शन अत्यधिक बुरा रहा ।
चैंबर द्वारा जारी किए बयान के मुताबिक जिन देशों को २०१२ और २०१४ के दोनों सूचकांको में शामिल किया गया है, उनमें भारत का प्रदर्शन सबसे बुरा रहा । क्योंकि भारत ने अपने आईपी माहौल में गिरावटको अनुमति देना जारी रखा है । रिपोर्ट में कहा गया है कि इन्नोवेश के दशक के घोषित प्रतिस्पर्धी एजेंडे के बाद भी भारत गलत रास्ते पर बढ़ रहा है । वह आईपी अधिकारों का महत्व कम कर रहा है ।
इसमें कहा गया है कि बाध्यकारी लाइसेंसों का लगातार उपयोग, पेटेट निरस्तीकरण, कमजोर विधायी और प्रवर्तन प्रणाली इन्नोवेशन को बढ़ावा देने और सर्जक की सुरक्षा करने के भारत की प्रतिबद्धता के प्रति गंभीर चिंता पैदा करती है । सूचकांक में शामिल २५ देशों में से किसी को भी संपूर्ण ३० अंक हासिल नहीं हो पाए, लेकिन अमेरिका को सर्वाधिक २८.३ अंक हासिल हुए है । प्रवर्तन की श्रेणी में हालांकि अमेरिका ब्रिटेन और फ्रांस के बाद तीसरे स्थान पर रहा । रिपोर्ट के मुताबिक चीन की पेटेंट व्यवस्था के कुछ पहलुआें में कुछ सुधार दर्ज किया गया है, लेकिन इसके समग्र आईपी माहोल में चुनौतियां बरकरार है ।
मस्तिष्क जगाता है भूख
जीवित रहने के लिए भूख जरूरी है, असामान्य भूख मोटापे का सबब बन सकती है, इतना हीं नहीं खान-पान की अनियमितता अब दुनियाभर में महामारी का रूप ले रही है , इसका समाधान कहीं मस्तिष्क की गइराईयों में छिपा है ।
शोधकर्ता भूख महसूस करने के रहस्य का खुलासा करते हुए मस्तिष्क की उन जटिलताआें का एक आरेख बना रहे हैं, जो भूख लगने पर खाने की ओर दौड़ती है ।
मैसाचुसेट्स स्थित बेथ इजरायल डेकोनेस मेडिकल सेंटर (बीआईडीएमसी) के अतन्स्त्राविका (एडोक्रोनोलॉजी) मधुमेह और चयापचय विभाग में अनुसंधानकर्ता र्बेंडफोर्ड लोवेल ने कहा कि हमारा लक्ष्य इस बात को समझना है कि कैसे मस्तिष्क भूख पर नियंत्रण करता है ।
लोवेले ने कहा कि असामान्य भूख मोटेपे और खान-पान संबंधी विकारों को जन्म दे सकती है, लेकिन असामान्य भूख कैसे गलत है और इससे कैसे निबटा जाए, यह समझने के लिए आपको सबसे पहले यह जानने की जरूरत है कि यह काम कैसे करती है । लोवेल, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मेडिसन के प्राध्यापक भी है ।
निष्कर्ष दिखाता है कि अगौती-पेप्टाइम (एजीआरपी) स्त्रायू (न्यूरॉन) को व्यक्त करता है । अगौती - पेप्टाइम मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस में स्थित तंत्रिका कोशिकाआें का एक समूह है । यह तंत्रिका कोशिका समूह गर्मी की कमी से सक्रिय होता है ।
जब एजीआरपी पशु मॉडलों में प्राकृतिक या कृत्रिम रूप से प्रेरित किया गया तो इसने चूहे को भोजन की सतत खोज के बाद खाने के लिए प्रेरित किया ।
भूख ने स्त्रायु को प्रेरणा दी कि परानिलयी गूदे मेंस्थित इन एजीआरपी स्त्रायुआें को सक्रिय करे । लोवेल ने कहा कि इस अप्रत्याशित खोज ने हमें यह समझने में एक महत्वपूर्ण दिशा दी कि आखिर क्या चीज है जिससे हमें भूख लगती है ।
जी.एम. याने खतरे की फसल
भारत में जीन-संशोधित यानी जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण के काफी समय ये चले आ रहे विरोध के बरक्स सरकार और संबंधित कंपनियां लगातार इसके पक्ष में दलीलें पेश करती रही हैं । अनेक अध्ययनों की रिपोर्टोंा में कहा गया है कि जीएम फसलों के खतरों को देखते हुए फिलहाल इसकी इजाजत देना एक घातक फैसला होगा । लेकिन केंद्र सरकार के ताजा रूख से ऐसा लगता है कि वह इस मामले में कुछ अतिक्ति हड़बड़ी में है । एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिए गए हलफनामे में सरकार ने इस मसले पर जताई जाने वाली आपत्तियों और आशंकाआें को अवैज्ञानिक नजरिया करर दिया है और जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण की देश के विज्ञान और अर्थव्यवस्था के हित में बताते हुए सर्वोच्च् न्यायालय से इनके परीक्षण का रास्ता साफ करने की इजाजत मांगी है । पर्यावरण एवं वन मंत्री वीरप्पा मोइली से पहले इस मंत्रालय की कमान संभालने वाली जंयती नटराजन ने जीएम फसलों के खुले परीक्षण की इजाजत देने के लिए बनाए गए दबाव के सामने झुकने से इनकार कर दिया था । उनसे पहले जयराम रमेश ने भी कई आशंकाएं जाहिर की थी । सवाल है कि जिन वजहों से दो मंत्रियों ने इस मसले पर अपनी आपत्ति जाहिर की थी, क्या उनका समाधान कर लिया गया है ? क्या उनके सामने देश के विज्ञान और अर्थव्यवस्था के हित का प्रश्न महत्वपूर्ण नहींथा ? क्या सरकार उन मंत्रियों के साथ-साथ कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति के निष्कर्ष और सर्वोच्च् न्यायालय की ओर से नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में जीएम फसलों के खतरनाक होने और उनके जमीनी परीक्षण पर लंबे समय तक पूरी तरह पांबदी लगाने की सिफारिशों को भी वह अवैज्ञानिक नजरिया ही मानती हैं ?
गौरतलब है कि कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति ने वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के एक स्वतंत्र समूह से पूरे मामले की गहन जांच कराने के बाद सर्वसम्मति से पेश रिपोर्ट में साफ कहा था कि जीएम फसलों का जीव-जतंुआें पर खतरनाक असर पड़ता है । लेकिन सरकार शायद इन तमाम रिपोर्टोंा और निष्कर्षोंा को ताक पर रख कर आगे बढ़ना चाहती हैं ।
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