स्वास्थ्य
आयुर्वेद की कार्य प्रणाली को समझने का प्रयास
डॉ.जी. बालसुब्रमण्यन
पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां नतीजों को देखती हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में प्रगति का आकलन क्रिया, कारण ओर प्रभाव की क्रियविधि की समझ पर आधारित होता है ।
पारंपरिक चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों में कई फर्क हैं । पारंपरिक चिकित्सा मूलत: अनुभव-आधारित है जबकि आधुनिक चिकित्सा मूलत:घटकवादी है । पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां प्राचीन हैं और कई सहस्त्राब्दियों से अस्तित्व में हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति अधिक से अधिक ३०० साल पुरानी है । पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नतीजों को देखा जाता है जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली क्रिया, कारण और प्रभाव की क्रियाविधि की समझ के आधार पर ओग बढ़ती है । पारंपरिक चिकित्सा सीधे इंसानों पर लागू की जाती है जबकि आधुनिक चिकित्सा में पहले जंतुआें की कोशिकाआें और अंगों पर जांच होती है और उसके बाद इंसानों पर परीक्षण किए जाते हैं । पारंपरिक चिकित्सा में आम तौर पर स्थानीय वनस्पतियों व जंतुआें का उपयोग किया जाता है जबकि आधुनिक चिकित्सा में अणु पृथक किये जाते हैं, प्रयोगशाला में बनाए जाते हैं और उनका उपयोग किया जाता है । पारंपरिक चिकित्सा में आम तौर पर आसवों तथा मिश्रणों का उपयोग होता है जबकि आधुनिक चिकित्सा में अक्सर इकलौते यौगिक के अणु का उपयोग किया जाता है । पारंपरिक चिकित्सा में कई सारी घरेलू औषधियां होती है जबकि आधुनिक चिकित्सा डॉक्टर द्वारा निर्देशित दवाईयों पर निर्भर हैं । पारंपरिक चिकित्सा के साथ एक सस्क्ृितांक पक्ष जुड़ा होता है जबकि आधुनिक चिकित्सा के साथ ऐसा नहींहै । पारंपरिक चिकित्सा सस्ती होती है जबकि आधुनिक चिकित्सा महंगी होती है । और, जहां पारंपरिक चिकित्सा ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा प्रचलित है वहीं आधुनिक चिकित्सा शहरों में ज्यादा आसानी से उपलब्ध है । कई आधुनिक अस्पताल और विशेषज्ञ पारंपरिक चिकित्सा को त्रुटिपूर्ण, अनपरखी और यहां तक कि बेकार मानते हैं । इसके चलते परंपरिक चिकित्सा को हाशिए पर धकेल दिया गया हे, जिसका उपयोग सिर्फ बैक-अप के तौर पर होता है ।
आयुर्वेद की कार्य प्रणाली को समझने का प्रयास
डॉ.जी. बालसुब्रमण्यन
पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां नतीजों को देखती हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में प्रगति का आकलन क्रिया, कारण ओर प्रभाव की क्रियविधि की समझ पर आधारित होता है ।
पारंपरिक चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों में कई फर्क हैं । पारंपरिक चिकित्सा मूलत: अनुभव-आधारित है जबकि आधुनिक चिकित्सा मूलत:घटकवादी है । पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां प्राचीन हैं और कई सहस्त्राब्दियों से अस्तित्व में हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति अधिक से अधिक ३०० साल पुरानी है । पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नतीजों को देखा जाता है जबकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली क्रिया, कारण और प्रभाव की क्रियाविधि की समझ के आधार पर ओग बढ़ती है । पारंपरिक चिकित्सा सीधे इंसानों पर लागू की जाती है जबकि आधुनिक चिकित्सा में पहले जंतुआें की कोशिकाआें और अंगों पर जांच होती है और उसके बाद इंसानों पर परीक्षण किए जाते हैं । पारंपरिक चिकित्सा में आम तौर पर स्थानीय वनस्पतियों व जंतुआें का उपयोग किया जाता है जबकि आधुनिक चिकित्सा में अणु पृथक किये जाते हैं, प्रयोगशाला में बनाए जाते हैं और उनका उपयोग किया जाता है । पारंपरिक चिकित्सा में आम तौर पर आसवों तथा मिश्रणों का उपयोग होता है जबकि आधुनिक चिकित्सा में अक्सर इकलौते यौगिक के अणु का उपयोग किया जाता है । पारंपरिक चिकित्सा में कई सारी घरेलू औषधियां होती है जबकि आधुनिक चिकित्सा डॉक्टर द्वारा निर्देशित दवाईयों पर निर्भर हैं । पारंपरिक चिकित्सा के साथ एक सस्क्ृितांक पक्ष जुड़ा होता है जबकि आधुनिक चिकित्सा के साथ ऐसा नहींहै । पारंपरिक चिकित्सा सस्ती होती है जबकि आधुनिक चिकित्सा महंगी होती है । और, जहां पारंपरिक चिकित्सा ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा प्रचलित है वहीं आधुनिक चिकित्सा शहरों में ज्यादा आसानी से उपलब्ध है । कई आधुनिक अस्पताल और विशेषज्ञ पारंपरिक चिकित्सा को त्रुटिपूर्ण, अनपरखी और यहां तक कि बेकार मानते हैं । इसके चलते परंपरिक चिकित्सा को हाशिए पर धकेल दिया गया हे, जिसका उपयोग सिर्फ बैक-अप के तौर पर होता है ।
क्या ये दो कभी मिल सकेंगी ? क्या आधुनिक रसायन शास्त्र तथा आणविक व कोशिकीय जीव विज्ञान, जेनेटिक्स और औषधि विज्ञान की अपनी आधुनिक समझ के आधर पर हम यह समझ पाएगें कि पारंपरिक चिकित्सा कैसे काम करती है ? मणिपाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वलियाथन का लक्ष्य यही है । वे एक मशहुर ह्रदय सर्जन तो हैंही, चिकित्सा के इतिहास के अध्येता भी हैं । उन्होंने आधुनिक जीव विज्ञान के औजारों का इस्तेमाल करते हुए कतिपय आयुर्वेदिक औषधियों को समझने व तर्कसंगत बनाने का एक कार्यक्रम शुरू किया है । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुभाष लाखोटिया इस कार्यक्रम में उनके साथी है । प्रोफेसर लाखोटिया एक प्रतिष्ठित आणविक जेनेआिक्सविद और कोशिका जीव वैज्ञानिक हैं । इस कार्यक्रम के तहत ये दो विद्वान आयुर्वेद के दो नुस्खों - अमलाकी रसायन और रस सिंदूर की क्रियाविधि का अध्ययन कर रहे हैं ।
इस अध्ययन के लिए उन्होंने प्रसिद्ध कोट्टाक्कल आर्य वैद्य शाला से संपर्क किया और शास्त्रोक्त विधि से उक्त नुस्खे बनवाए । इनमें उपस्थित विभिन्न अवयवों की पहचान के लिए क्रोमेटोग्राफी की आधुनिक विधि का उपयोग किया । इसके आधार पर वे सुनिश्चित कर पाए कि औषधि की विभिन्न खेपोंमें कोई अंतर नहीं होगा ताकि नुस्खे की गुणवत्ता, संघटन व शुद्धता को लेकर कोई संदेह न रहे ।
इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे इंसानों पर नहीं जंतुआें पर प्रयोग करेंगे । इसमें प्रोफेसर लाखोटिया का फ्रुट फ्लाई (ड्रॉसोफिला) के साथ काम करने का अनुभव काम आया । फ्रुट फ्लाई वह नन्ही-सी मक्खी होती है जो प्राय: फलों पर मंडराती है । इसका जीवन चक्र अल्पावधि (एकाध माह) का होता है और इसमें जेनेटिक विविधता खूब पाई जाती है । इल्ली अवस्था में इसमें जेनेटिक परिवर्तन आसानी से किए जा सकते हैं । इस तरह से यह देखा जा सकता है कि किसी जीन को हटा देने या जोड़ देने पर शरीर की सामान्य क्रिया पर क्या असर होते हैं । और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम ड्रॉसोफिला की शरीर रचना, शरीर क्रियाऔर कोशिका जीव विज्ञान के बारे में काफी कुछ जानते हैं । लिहाजा हम इस मक्खी के ऐसे मॉडल आसानी से बना सकते हैं जिनमें अलग-अलग बीमारियां हों । एक फायदा यह भी है कि इन मक्खियों का अध्ययन बड़ी संख्या में करना आसान है । ऐसा करके नतीजों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जा सकता है । अर्थात ड्रॉसोफिलापारंपरिक चिकित्सा के अध्ययन के लिए एक अच्छा जंतु मॉडल है ।
प्रयोग की पहली श्रृंखला में शोधकर्ताआेंने फ्रु ट फ्लाई को भोजन में अमलाकी रसायन या रस सिंदूर की ज्ञात मात्रा (०-२ प्रतिशत) दी । इसके बाद यह अध्ययन किया गया कि मक्खियों की आयु, तनाव सहने की क्षमता ( जब वातावरण का तापमान बदल जाए) और भूख सहने की क्षमता पर क्या असर होता है । प्रयोगों से पता चला कि ये दो नुस्खे मक्खी की जीव वैज्ञानिक स्थिति पर काफी असर डालते हैं मगर विशिष्ट स्थितियों में कुछ अंतर होते हैं ।
अमलाकी रसायन आयु को तब बढ़ाता है जब भोजन में ०.५ प्रतिशत मात्रा में दिया जाए । इससे ज्यादा मात्रा उेसा असर नहीं करती, बल्कि हानिकारक होती है । दूसरी ओर, रस सिंदूर का आयु पर कोई असर नहीं पड़ा । यह भी ज्यादा खुराक देने पर हानिकारक साबित हुआ । अमलाकी रसायन और रस सिंंदूर दोनों ही प्रजनन क्षमता में इजाफा करते हैं मगर दोनों में कुछ अंतर हैं । रोचक बात यह देखी गई कि रस सिंदूर में पारा होता हे (जो जाना-माना जहर है) मगर रस सिंदूर विषैला नहीं था । समझ में यह आया कि रस सिंदूर बनाने की आयुर्वेदिक विधि में मरक्यूरिक सल्फाइड के नैनो-कण(२५-३५ नैनोमीटर साइज के) बन जाते हैं और इस साइज पर पारा हानिकारक नहीं है । आपकी रूचि हो तो पूरा शोध पत्र आसानी से उपलब्ध है ।
प्रोफेसर लाखोटिया एक कदम और आगे गए । उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि जेनेटिक रूप से परिवर्तित फ्रु ट फ्लाई पर उक्त औषधियों का क्या असर होगा । इन मक्खियों में ऐसे जेनेटिक परिवर्तन किए गए थे इनमें तंत्रिका क्षति होने लगी थी । लिहाजा ये परिवर्तित मक्खियां अल्माइजर और हटिंगटन रोग के मॉडल बन गई थी । टीम ने पाया कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर की पूरक खुराक देने से इंक्लूजन बॉडीज और एमिलॉइड प्लाक के निर्माण पर रोक लगी (ये दोनोंअल्जाइमर रोग से जुड़े लक्षण हैं) । ये अघुलनशील कण होते हैं जो तंत्रिका तंत्र में विद्युत संकेतों के चालन में बाधा बन जाते हैं ।
उक्त रसायनों की पूरक खुराक से एपोप्टोसिस(कोशिका मृत्यु) की प्रक्रियापर भी रोक लगी । ऐसा प्रतीत होता है कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर कतिपय प्रोटीन्स का स्तर बढ़ाने में मदद करत हैं । इन प्रोटीन्स को हठिछझ कहते हैं । ये जीन की अभिव्यक्ति को ज्यादा सुदृढ़ करत हैं । लाखोटिया व उनके समूह ने करंट साइंस के २५ दिसंबर २०१३ के अंक में प्रकाशित अपने शोध पत्र में निष्कर्ष दिया है कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर आजकल आम होते जा रहे तंत्रिका-क्षति विकारों से समग्र राहत प्रदान कर सकता है ।
इस अध्ययन से लगता है कि परंपरिक चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा का मेल-मिलाप संभव है और उम्मीद की जानी चाहिए ऐसे और अध्ययन किए जाएंगे ।
इस अध्ययन के लिए उन्होंने प्रसिद्ध कोट्टाक्कल आर्य वैद्य शाला से संपर्क किया और शास्त्रोक्त विधि से उक्त नुस्खे बनवाए । इनमें उपस्थित विभिन्न अवयवों की पहचान के लिए क्रोमेटोग्राफी की आधुनिक विधि का उपयोग किया । इसके आधार पर वे सुनिश्चित कर पाए कि औषधि की विभिन्न खेपोंमें कोई अंतर नहीं होगा ताकि नुस्खे की गुणवत्ता, संघटन व शुद्धता को लेकर कोई संदेह न रहे ।
इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे इंसानों पर नहीं जंतुआें पर प्रयोग करेंगे । इसमें प्रोफेसर लाखोटिया का फ्रुट फ्लाई (ड्रॉसोफिला) के साथ काम करने का अनुभव काम आया । फ्रुट फ्लाई वह नन्ही-सी मक्खी होती है जो प्राय: फलों पर मंडराती है । इसका जीवन चक्र अल्पावधि (एकाध माह) का होता है और इसमें जेनेटिक विविधता खूब पाई जाती है । इल्ली अवस्था में इसमें जेनेटिक परिवर्तन आसानी से किए जा सकते हैं । इस तरह से यह देखा जा सकता है कि किसी जीन को हटा देने या जोड़ देने पर शरीर की सामान्य क्रिया पर क्या असर होते हैं । और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम ड्रॉसोफिला की शरीर रचना, शरीर क्रियाऔर कोशिका जीव विज्ञान के बारे में काफी कुछ जानते हैं । लिहाजा हम इस मक्खी के ऐसे मॉडल आसानी से बना सकते हैं जिनमें अलग-अलग बीमारियां हों । एक फायदा यह भी है कि इन मक्खियों का अध्ययन बड़ी संख्या में करना आसान है । ऐसा करके नतीजों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जा सकता है । अर्थात ड्रॉसोफिलापारंपरिक चिकित्सा के अध्ययन के लिए एक अच्छा जंतु मॉडल है ।
प्रयोग की पहली श्रृंखला में शोधकर्ताआेंने फ्रु ट फ्लाई को भोजन में अमलाकी रसायन या रस सिंदूर की ज्ञात मात्रा (०-२ प्रतिशत) दी । इसके बाद यह अध्ययन किया गया कि मक्खियों की आयु, तनाव सहने की क्षमता ( जब वातावरण का तापमान बदल जाए) और भूख सहने की क्षमता पर क्या असर होता है । प्रयोगों से पता चला कि ये दो नुस्खे मक्खी की जीव वैज्ञानिक स्थिति पर काफी असर डालते हैं मगर विशिष्ट स्थितियों में कुछ अंतर होते हैं ।
अमलाकी रसायन आयु को तब बढ़ाता है जब भोजन में ०.५ प्रतिशत मात्रा में दिया जाए । इससे ज्यादा मात्रा उेसा असर नहीं करती, बल्कि हानिकारक होती है । दूसरी ओर, रस सिंदूर का आयु पर कोई असर नहीं पड़ा । यह भी ज्यादा खुराक देने पर हानिकारक साबित हुआ । अमलाकी रसायन और रस सिंंदूर दोनों ही प्रजनन क्षमता में इजाफा करते हैं मगर दोनों में कुछ अंतर हैं । रोचक बात यह देखी गई कि रस सिंदूर में पारा होता हे (जो जाना-माना जहर है) मगर रस सिंदूर विषैला नहीं था । समझ में यह आया कि रस सिंदूर बनाने की आयुर्वेदिक विधि में मरक्यूरिक सल्फाइड के नैनो-कण(२५-३५ नैनोमीटर साइज के) बन जाते हैं और इस साइज पर पारा हानिकारक नहीं है । आपकी रूचि हो तो पूरा शोध पत्र आसानी से उपलब्ध है ।
प्रोफेसर लाखोटिया एक कदम और आगे गए । उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि जेनेटिक रूप से परिवर्तित फ्रु ट फ्लाई पर उक्त औषधियों का क्या असर होगा । इन मक्खियों में ऐसे जेनेटिक परिवर्तन किए गए थे इनमें तंत्रिका क्षति होने लगी थी । लिहाजा ये परिवर्तित मक्खियां अल्माइजर और हटिंगटन रोग के मॉडल बन गई थी । टीम ने पाया कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर की पूरक खुराक देने से इंक्लूजन बॉडीज और एमिलॉइड प्लाक के निर्माण पर रोक लगी (ये दोनोंअल्जाइमर रोग से जुड़े लक्षण हैं) । ये अघुलनशील कण होते हैं जो तंत्रिका तंत्र में विद्युत संकेतों के चालन में बाधा बन जाते हैं ।
उक्त रसायनों की पूरक खुराक से एपोप्टोसिस(कोशिका मृत्यु) की प्रक्रियापर भी रोक लगी । ऐसा प्रतीत होता है कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर कतिपय प्रोटीन्स का स्तर बढ़ाने में मदद करत हैं । इन प्रोटीन्स को हठिछझ कहते हैं । ये जीन की अभिव्यक्ति को ज्यादा सुदृढ़ करत हैं । लाखोटिया व उनके समूह ने करंट साइंस के २५ दिसंबर २०१३ के अंक में प्रकाशित अपने शोध पत्र में निष्कर्ष दिया है कि अमलाकी रसायन और रस सिंदूर आजकल आम होते जा रहे तंत्रिका-क्षति विकारों से समग्र राहत प्रदान कर सकता है ।
इस अध्ययन से लगता है कि परंपरिक चिकित्सा और आधुनिक चिकित्सा का मेल-मिलाप संभव है और उम्मीद की जानी चाहिए ऐसे और अध्ययन किए जाएंगे ।
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