जीव जगत
एक अनोखी मछली की कहानी
डॉ. अरविन्द गुप्त्े
इस मछली की कहानी की शुरूआत में पहले हमें कुछ बाते समझनी होगी । जुरासिक पार्क नामक अंग्रेजी फिल्म श्रंृखला में एक ऐसा द्वीप दिखाया गया है जिसमें जीवित डायनासौर रहते है । यह केवल एक काल्पनिक कहानी है क्योंकि डायनासौर आज से लगभग साढ़े छह करोड़ वर्ष विलुप्त् हो गए थे और अब उनके जीवाश्म ही पाए जाते हैं ।
जिस प्रकार डायनासौर अब केवल जीवाश्मों के रूप में पाए जाते हैं उसी प्रकार विलुप्त् मछलियों का एक बड़ा समूह, जिसे एक्टिमिस्टिया कहते हैं, वे भी केवल जीवाश्मों के रूप में पाया जाता है । इनके जीवाश्मों ३५ करोड़ वर्ष पुरानी चट्टठानों में मिलते हैं । एक समय में ये मछलियां समुद्र में बहुतायत से पाई जाती थी । इन मछलियों को साधारण भाषा में सीलाकैन्थ कहते हैं । डायनासौरों के समान यह समूह भी लगभग साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले ही विलुप्त् हो गया था । इस समूह की मछलियों को जैव विकास की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है कि उनके शरीर की बनावट इस ओर इशार करती हैं कि मछलियां से धरती पर रहने वाले जंतुआें का विकास कैसे हुआ होगा । वैज्ञानिकों की मान्यता है कि ये मछलियां अपने मांसल पंखों की सहायता से जमीन पर चलने लगी और हवा में सांस लेने लगी और इस प्रकार उभयचर जंतुआें (मेढ़क वगैरह) का विकास हुआ । उभयचर जंतुआें के बाद में सरीसृपों, पक्षियों और स्तनधारियों का विकास हुआ । इन मछलियों के जीवाश्म संसार के लगभग सभी बड़े संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं ।
एक अनोखी मछली की कहानी
डॉ. अरविन्द गुप्त्े
इस मछली की कहानी की शुरूआत में पहले हमें कुछ बाते समझनी होगी । जुरासिक पार्क नामक अंग्रेजी फिल्म श्रंृखला में एक ऐसा द्वीप दिखाया गया है जिसमें जीवित डायनासौर रहते है । यह केवल एक काल्पनिक कहानी है क्योंकि डायनासौर आज से लगभग साढ़े छह करोड़ वर्ष विलुप्त् हो गए थे और अब उनके जीवाश्म ही पाए जाते हैं ।
जिस प्रकार डायनासौर अब केवल जीवाश्मों के रूप में पाए जाते हैं उसी प्रकार विलुप्त् मछलियों का एक बड़ा समूह, जिसे एक्टिमिस्टिया कहते हैं, वे भी केवल जीवाश्मों के रूप में पाया जाता है । इनके जीवाश्मों ३५ करोड़ वर्ष पुरानी चट्टठानों में मिलते हैं । एक समय में ये मछलियां समुद्र में बहुतायत से पाई जाती थी । इन मछलियों को साधारण भाषा में सीलाकैन्थ कहते हैं । डायनासौरों के समान यह समूह भी लगभग साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले ही विलुप्त् हो गया था । इस समूह की मछलियों को जैव विकास की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है कि उनके शरीर की बनावट इस ओर इशार करती हैं कि मछलियां से धरती पर रहने वाले जंतुआें का विकास कैसे हुआ होगा । वैज्ञानिकों की मान्यता है कि ये मछलियां अपने मांसल पंखों की सहायता से जमीन पर चलने लगी और हवा में सांस लेने लगी और इस प्रकार उभयचर जंतुआें (मेढ़क वगैरह) का विकास हुआ । उभयचर जंतुआें के बाद में सरीसृपों, पक्षियों और स्तनधारियों का विकास हुआ । इन मछलियों के जीवाश्म संसार के लगभग सभी बड़े संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं ।
धरती पर रहने वाले जन्तुआें के पूर्वज होने का दावा मछलियांे का एक और समूह करता है । इस समूह की अधिकांश मछलियां भी विलुप्त् हो चुकी है , किन्तु इनकी तीन प्रजातियां संसार के विभिन्न भागों में बच गई हैं । इन मछलियों में फेफेडेनुमा अंग होते हैं जिनकी सहायता से ये मछलियां हवा में सांस ले सकती हैं । जैव विकास से जुड़ी पहेली यह है कि जमीन पर रहने वाले जन्तुआें का विकास फेफड़े वाली मछलियांे से हुआ या दो जोड़ी टांंगो वाली सीलाकैन्थ मछलियों से हुआ ?
अब हम मूल कहानी पर आते हैं । बात सन १९३८ की है । दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट पर ईस्ट लंदन नामक एक छोटा सा बंदरगाह है । इस छोटे से कस्बे में एक छोटा सा संग्रहालय है जिसकी संग्रहालय अध्यक्ष मार्जरी लैटिमर नामक ३२ वर्षीय अंग्रेज मूल की महिला थी । मछली पकड़ने वाली एक नाव के कप्तन हेन्उरिक गूजन से उनका परिचय था । जब भी गूजेन समुद्र में मछलियां पकड़ कर लोटते थे तो वे लैटिमर को बुलवा कर पकड़ी गई मछलियां दिखाते थे और संग्रहालय के लायक कोई मछली हो तो सहर्ष भेंट कर ेदेते थे ।
२३ दिसम्बर १९३८ को गूजेन चालुम्ना नदी के मुहाने से मछलियां पकड़ कर लौटे तो उन्होनें हमेशा की तरह लैटिमर को न्यौता दिया । वैसे तो लैटिमर संग्रहालय से संबंधित किसी अन्य काम में व्यस्त थी, किन्तु उन्होनें सोचा कि उन्हें नाव पर काम करने वाले नाविकों को कम से कम बड़े दिन (२५ दिसम्बर) की शुभकामनाएं तो देना ही चाहिए । वे एक टैक्सी लेकर बंदरगाह पहुंची और नाविकों से बात करके लोट ही रही थी कि उनकी नजर मछलियांे के ढेर के नीचे से झांक रहे एक नीले पंख पर पड़ी । उन्होंने उस पांच फीट लंबी मछली को निकलवा कर देखा । उन्हें लगा कि ऐसी मछली उन्होनें पहले कभी नहीं देखी थी और उसे तुरन्त संग्रहालय में ले जाना चाहिए । किन्तु एक कठिनाई सामने आ गई । टैक्सी ड्रायवर ने उस बड़ी भारी और बदबूदार मछली को ले जाने से मना कर दिया । खैर, काफी जहदोजहद के बाद वह मान गया और मछली संग्रहालय में पहुंच गई । संग्रहालय में उपलब्ध सीमित पुस्तकों को खंगालने पर लैटिमर को लगा कि वह मछली एक विलुप्त् मछली के चित्र के समान दिखाई दे रही थी ।
तो क्या उनके हाथ एक ऐसी अनोखी मछली आई थी जिसके जीवित होने की कोई संभावना ही नहीं थी ? उन्होनें उस मछली का एक चित्र बना कर पचास मील दूर स्थित ग्राहम्सटाउन स्थित रोड्स विश्वविघालय के प्रोफेसर जे.एल.बी. स्मिथ को भेजा । स्मिथ महाशय थे तो रसायन शास्त्र के प्रोफेसर, किन्तु मछलियों के संबंध में उनके ज्ञान का लोहा सब लोग मानते थे । दुर्भाग्यवश प्रोफेसर स्मिथ उन दिनों छुटि्टयां मान रहे थे । इस बीच लैटिमर के वरिष्ठ अधिकारी यानी ईस्ट लंदन संग्रहालय के संचालक का कहना था कि यह मछली कोई खास नहीं है और इस बदबूदार चीज को संग्रहालय में रखने का कोई फायदा नहीं है । मार्जरी ने मछली को सुरक्षित रखने के लिए उसे एक चादर में लपेट कर फॉर्मलीन में भिगो कर रखा, किन्तु ३-४ दिनों में मछली में सड़न के लक्षण दिखाई देने लगे । तब उन्होनें स्थानीय टैक्सीडर्मिस्ट (जानवरों की खाल में भूसा भरने वाला) से उसमें भूसा भरवा लिया । इस प्रक्रिया में सभी आंतरिक अंग निकाल दिए जाते हैं ।
इस बीच प्रोफेसर स्म्थि को लैटिमर का पत्र और मछली का चित्र मिला । उन्होंने बाद में लिखा कि चित्र देखकर उन्हें लगा था कि जैसे उनके दिमाग में कोई फूटा हो । वे एक ऐसे जंतु को देख रहे थे जिसके बारे में माना जा रहा था किवह करोड़ों वर्ष पहले विलुप्त् हो चुका था । उन्होंने तुरंत लैटिमर को तार भेज कर रहा कि उनके आने तक मछली के आंतरिक अंगों को सुरक्षित रखा जाए । आखिर १६ फरवरी १९३९ को वे ईस्ट लंदन पहुंचे और लैटिमर के कार्यालय मेंएक टेबल पर रखी मछली के ईद-गिर्द कई बार घूम-घूम कर देखा, उसे छूकर देखा और फिर बोल, सुनो बेटी, इस खोज की चर्चा संसार के हर वैज्ञानिक की जुबान पर होगी । और हुआ भी यही । जब स्मिथ का शोध पत्र मशहूर वैज्ञानिक पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ तो वैज्ञानिक जगत में तहलका मच गया । यह कुछ ऐसा था मानों जीवित डायनासौर मिल गया हो । चूंकि पकड़ी गई मछली एक नई प्रजाति की थी, स्मिथ ने उसका नाम लैटिमरिया चालुम्नी रखा । जीनस का नाम मार्जरी के उपनाम लैटिमर पर और स्पीशीज का नाम चालुम्ना नदी पर रखा गया ।
चूंकि मछली के आंतरिक अंग निकाल कर फेंक दिए गए थे । स्मिथ को लगा कि इस प्रजाति की एक मछली और मिल जाए तो उसका पूरा अध्ययन किया जा सकता है । उन्होेंने अफ्रीका के पूर्वी तट के गांवों में सब तरफ मछली के चित्र वाले पोस्टर लगवाए और मछली पकड़ने वाले के लिए इनाम की घोषणा कर दी । एक जहाज के उनके परिचित कप्तन एरिक हंट के कहने पर उन्होनें अफ्रीका के पूर्वी तट पर स्थित कोमोरो द्वीप समूह पर भी ये पोस्टर लगाए । २१ दिसम्बर १९५२ को आन्जुआन नामक द्वीप पर हंट के पास दो स्थानीय व्यक्ति एक बड़ी मछली लेकर आए । यह मछली भी सीलाकैन्थ ही थी और इसे स्थानीय भाषा में मेम या गोम्बोस कहा जाता था । हंट को यह भी पता चला कि इस प्रजाति की मछलियां अक्सर कोमोरो द्वीप समूह में पाई जाती है । हंट ने कहीं से फॉर्मलीन का जुगाड़ किया और मछली के शरीर में इंजेक्शन से पहुंचा दिया । चूंकि उन दिनों कोमोरो द्वीप समूह फ्रांस के अधीन था, अत: फ्रांसीसी अधिकारियों ने हंट से कहा कि यदि प्रोफेसर स्मिथ स्वयं इस मछली को लेने नहीं आए तो वे उसे जब्त कर लेगें । तब हंट ने स्मिथ को एक और तार भेज कर तुरन्त कोमोरो पहुंचने का आग्रह किया । स्मिथ को चिंता थी कि वे १४ वर्षो से जिस मछली का ब्रेसब्री से इंतजार कर रहे थे कहीं उसे खो न बैठे । उन्होनें दक्षिण अफ्रीका के प्रधानमंत्री श्री मलान से संपर्क करके उन्हें कोमोरो ले जाने के लिए एक हवाई जहाज उपलब्ध कराने का अनुरोध किया, जिसे मलान ने मान लिया और वायु सेना का एक जहाज उन्हें उपलब्ध करवाया ।
जब स्मिथ ने कोमोरो पहुंच कर हंट के जहाप मछली को देखा तो खुशी के मारे उनके आंसू छलक पड़े । स्मिथ को एक साबुत मछली मिल गई थी जिसके सारे आंतरिक अंग सुरक्षित थे । साथ ही, स्थानीय निवासियों का उस मछली से परिचय होने के कारण उन्हें यह भी पता चल गया था कि उन्हें और भी मछलियां उस क्षेत्र में मिल सकती है । इन आंतरिक अंगों का परीक्षण करके स्मिथ ने कई शोध पत्र प्रकाशित किए । किन्तु फ्रांस के अधिकारियों को ऐसा लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है और उन्होनें फ्रांस के अलावा अन्य देशों के वैज्ञानिकों के द्वारा सीलाकैन्थ पर शोध कार्य करने पर प्रतिबंध लगा दिया जो १९७० के दशक में कोमोरो द्वीपों के आजाद होने तक जारी रहा ।
१९५६ में एक दुर्घटना में हंट का जहाज डूब गया और उनकी मृत्यु हो गई । १९६८ में लम्बी बीमारी से परेशान होकर प्रोफेसर स्मिथ ने आत्महत्या कर ली । सन १९८८ में कैप्टन गूजेन की मृत्यु हो गई । मार्जरी लैटिमर ९७ वर्ष की लंबी उम्र जीने के बाद २००४ में संसार से विदा हो गई ।
सीलाकैन्थ की लम्बाई लगभग ५ फीट और भार ४५ किलोग्राम होता है । ठंडा वातावरण पसंद होने के कारण ये मछलियां दिन में समुद्र की सतह से ६५० से १३०० फीट तक की गइराई पर किनारे में कटी हुई गुफाआें में आराम करती हैं और रात में शिकार की खोज में सतह पर आती है । अफ्रीका के पूर्वी तट पर इस प्रकार की गुफाआें की संख्या बहुत अधिक होने के कारण वहां पर इन मछलियों को अनुकूल पर्यावरण मिल जाता है । इनका भोजन सभी प्रकार की मछलियां होती हैं । इनके जबड़े का जोड़ लचीला होने के कारण इनका मुंह काफी चौड़ा होता है जिसके कारण ये बड़ी मछलियों को भी निगल जाती हैं । सीलाकैन्थ मछलियों के अंडे लगभग एक साल तक मादा के गर्भ में ही रहते हैं और वहीं फूटते हैं । इनमें से निकलने वाले शिशु जन्म के समय पूरी तरह विकसित होते हैं ।
फिलहालजीवित सीलाकैन्थ की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है, किन्तु समय-समय पर की गई गणनाआें के अनुसार अफ्रीका के तट पर इनकी संख्या एक हजार के आसपास हो सकती है । संसार के वैज्ञानिक दक्षिण अफ्रीका सरकार के साथ मिलकर एक परियोजना के माध्यम से यह प्रयास कर रहे हैं कि इनके शिकार पर पाबंदी लगे और इनकी संख्या बढ़ाई जा सके ।
किन्तु सीलाकैन्थ की कहानी यहीं खत्म नहीं होती । सितम्बर १९९७ में इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप में एक सीलाकैन्थ पकड़ी गई । उस समय अमरीकी जीव शास्त्री मार्क अर्डमन और उनकी पत्नी अर्नाज वहां छुटि्टयां बिता रहे थे । उन्होनें बाजार में इस मछली को देखा जरूर किन्तु वे उसका फोटो भर ले सके और किसी अन्य व्यक्ति ने उस मछली को खरीद लिया । तब अर्डमन ने भी सीलाकैन्थ पकड़ कर लाने वाले के लिए इनाम की घोषणा की । ३० जुलाई १९९८ को मछुआरे एक जीवित सीलाकैन्थ को पकड़ कर अर्डमन के पास ले आए । कोमोरो सीलाकैन्थ से इस प्रजाति का रंग भिन्न है और इसे लैटिमरिया मेनाडोएन्सिस नाम दिया गया । क्योंकि इसे मेनाडो द्वीप के समीप पकड़ा गया था । स्थानीय मछुआरे इस मछली से परिचित थे और इसे राजा लाउट (समुद्र का राजा) के नाम से पुकारते थे ।
धरती पर रहने वाले जन्तुआें के पूर्वजों को लेकर वैज्ञानिकों के दो मतों (फेफड़े वाली मछलियां बनाम सीलाकैन्थ) के विवाद का फैसला इन मछलियों के जीन्स का परीक्षण करके ही किया जा सकता था किन्तु मुश्किल यह थी कि किसी भी सीलाकैन्थ के अंगों को इतनी सावधानीपूर्वक सुरक्षित नहीं रखा गया था कि उनके जीन्स का विश्लेषण किया जा सके ।
दक्षिण अफ्रीका मेंशुरू की गई सीलाकैन्थ पर्यावरण परियोजना की प्रेरणा स्त्रोत रोड्स विश्वविघालय की प्रोफेसर रोजमेरी डॉरिगटनी थी । उन्होनें कोमोरो द्वीप समूह के गांवों में घूम कर इस परियोजना की जानकारी दी थी और स्थानीय वैज्ञानिकों को किसी सीलाकैन्थ के पकड़े जाने पर उसके आंतरिक अंगों को सुरक्षित रखने का प्रशिक्षण दिया था । मोरोनी कस्बे में उनका प्रतिनिधि सैयद अहमदा नामक पर्यावरणविद था । सन २००३ में कोमोरो द्वीप समूह में एक मछुआरे ने सीलाकैन्थ पकड़ी और उसे वह सैयद अहमदा के पास लेकर आया । अहमदा ने उस मछली के आंतरिक अंगोंको सावधानीपूर्वक निकाल कर स्थानीय विज्ञान केन्द्र के फ्रीजर में सुरक्षित रख लिया । कुछ दिनों के बाद अहमदा को ईस्ट लंदन जाने का अवसर मिला । बर्फ के बक्से में रख कर सीलाकैन्था के आंतरिक अंग वे अपने साथ ले गए और प्रोफेसर डॉरिगटन को दिए । डॉरिगटन ने पहला काम यह किया कि प्रयोगशाला में जाकर इन अंगों का सूक्ष्मदर्शी से परीक्षण करके यह देखा कि वे उचित ढंग से सुरक्षित रखे गए थे या नही ।
अब समस्या यह थी कि इन अंगों से कोशिकाएं निकाल कर उनके जीन्स का परीक्षण कहा किया जाए ? इस काम के लिए उपयुक्त आधुनिक उपकरण कम उपलब्ध थे । तब उन्होनें वांशिग्टन विश्वविघालय के प्रोफेसर क्रिस अमेमिया से संपर्क किया । अमेमिया सीलाकैन्थ की कहानी से प्रभावित थे ही तंुरत सहमति देकर काम शुरू कर दिया । उनके द्वारा किए गए जीनोम परीक्षण से यह फैसला होना थ कि हमारे असली पूर्वज कौन है - मांसल पंखो वाले सीलाकैन्थ या फेफडे़ वाली मछलियां ? लगभग १०० वैज्ञानिकों की टीम ने जिसमें वैज्ञानिक और कम्प्यूटर विशेषज्ञ शामिल थे, आखिर सीलाकैन्थ के जीनोम का नक्शा बना लिया । इसके बाद उसके जीन्स की तुलना अन्य मछलियोें, फेफडे वाली मछलियोें के जीन्स के साथ करने का काम शुरू हुआ । इस पर अमेमिया और उनके सहयागियोें ने कई शोध प्रकाशित किए । फेफडे वाली मछलियोें का जीनोम इतना बडा़ होता है कि उसका पूरा विश्लेषण करना संभव नही हो पाया है, किन्तु सीलाकैन्थ के जीनोम पर अब तक हुए काम से लगता है कि फेफडे वाली मछलियां हमारी अधिक निकट की पूर्वज हैैं । सीलाकैन्थ हमारे चचेरे ममेरे पूर्वज है ।
अब हम मूल कहानी पर आते हैं । बात सन १९३८ की है । दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तट पर ईस्ट लंदन नामक एक छोटा सा बंदरगाह है । इस छोटे से कस्बे में एक छोटा सा संग्रहालय है जिसकी संग्रहालय अध्यक्ष मार्जरी लैटिमर नामक ३२ वर्षीय अंग्रेज मूल की महिला थी । मछली पकड़ने वाली एक नाव के कप्तन हेन्उरिक गूजन से उनका परिचय था । जब भी गूजेन समुद्र में मछलियां पकड़ कर लोटते थे तो वे लैटिमर को बुलवा कर पकड़ी गई मछलियां दिखाते थे और संग्रहालय के लायक कोई मछली हो तो सहर्ष भेंट कर ेदेते थे ।
२३ दिसम्बर १९३८ को गूजेन चालुम्ना नदी के मुहाने से मछलियां पकड़ कर लौटे तो उन्होनें हमेशा की तरह लैटिमर को न्यौता दिया । वैसे तो लैटिमर संग्रहालय से संबंधित किसी अन्य काम में व्यस्त थी, किन्तु उन्होनें सोचा कि उन्हें नाव पर काम करने वाले नाविकों को कम से कम बड़े दिन (२५ दिसम्बर) की शुभकामनाएं तो देना ही चाहिए । वे एक टैक्सी लेकर बंदरगाह पहुंची और नाविकों से बात करके लोट ही रही थी कि उनकी नजर मछलियांे के ढेर के नीचे से झांक रहे एक नीले पंख पर पड़ी । उन्होंने उस पांच फीट लंबी मछली को निकलवा कर देखा । उन्हें लगा कि ऐसी मछली उन्होनें पहले कभी नहीं देखी थी और उसे तुरन्त संग्रहालय में ले जाना चाहिए । किन्तु एक कठिनाई सामने आ गई । टैक्सी ड्रायवर ने उस बड़ी भारी और बदबूदार मछली को ले जाने से मना कर दिया । खैर, काफी जहदोजहद के बाद वह मान गया और मछली संग्रहालय में पहुंच गई । संग्रहालय में उपलब्ध सीमित पुस्तकों को खंगालने पर लैटिमर को लगा कि वह मछली एक विलुप्त् मछली के चित्र के समान दिखाई दे रही थी ।
तो क्या उनके हाथ एक ऐसी अनोखी मछली आई थी जिसके जीवित होने की कोई संभावना ही नहीं थी ? उन्होनें उस मछली का एक चित्र बना कर पचास मील दूर स्थित ग्राहम्सटाउन स्थित रोड्स विश्वविघालय के प्रोफेसर जे.एल.बी. स्मिथ को भेजा । स्मिथ महाशय थे तो रसायन शास्त्र के प्रोफेसर, किन्तु मछलियों के संबंध में उनके ज्ञान का लोहा सब लोग मानते थे । दुर्भाग्यवश प्रोफेसर स्मिथ उन दिनों छुटि्टयां मान रहे थे । इस बीच लैटिमर के वरिष्ठ अधिकारी यानी ईस्ट लंदन संग्रहालय के संचालक का कहना था कि यह मछली कोई खास नहीं है और इस बदबूदार चीज को संग्रहालय में रखने का कोई फायदा नहीं है । मार्जरी ने मछली को सुरक्षित रखने के लिए उसे एक चादर में लपेट कर फॉर्मलीन में भिगो कर रखा, किन्तु ३-४ दिनों में मछली में सड़न के लक्षण दिखाई देने लगे । तब उन्होनें स्थानीय टैक्सीडर्मिस्ट (जानवरों की खाल में भूसा भरने वाला) से उसमें भूसा भरवा लिया । इस प्रक्रिया में सभी आंतरिक अंग निकाल दिए जाते हैं ।
इस बीच प्रोफेसर स्म्थि को लैटिमर का पत्र और मछली का चित्र मिला । उन्होंने बाद में लिखा कि चित्र देखकर उन्हें लगा था कि जैसे उनके दिमाग में कोई फूटा हो । वे एक ऐसे जंतु को देख रहे थे जिसके बारे में माना जा रहा था किवह करोड़ों वर्ष पहले विलुप्त् हो चुका था । उन्होंने तुरंत लैटिमर को तार भेज कर रहा कि उनके आने तक मछली के आंतरिक अंगों को सुरक्षित रखा जाए । आखिर १६ फरवरी १९३९ को वे ईस्ट लंदन पहुंचे और लैटिमर के कार्यालय मेंएक टेबल पर रखी मछली के ईद-गिर्द कई बार घूम-घूम कर देखा, उसे छूकर देखा और फिर बोल, सुनो बेटी, इस खोज की चर्चा संसार के हर वैज्ञानिक की जुबान पर होगी । और हुआ भी यही । जब स्मिथ का शोध पत्र मशहूर वैज्ञानिक पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ तो वैज्ञानिक जगत में तहलका मच गया । यह कुछ ऐसा था मानों जीवित डायनासौर मिल गया हो । चूंकि पकड़ी गई मछली एक नई प्रजाति की थी, स्मिथ ने उसका नाम लैटिमरिया चालुम्नी रखा । जीनस का नाम मार्जरी के उपनाम लैटिमर पर और स्पीशीज का नाम चालुम्ना नदी पर रखा गया ।
चूंकि मछली के आंतरिक अंग निकाल कर फेंक दिए गए थे । स्मिथ को लगा कि इस प्रजाति की एक मछली और मिल जाए तो उसका पूरा अध्ययन किया जा सकता है । उन्होेंने अफ्रीका के पूर्वी तट के गांवों में सब तरफ मछली के चित्र वाले पोस्टर लगवाए और मछली पकड़ने वाले के लिए इनाम की घोषणा कर दी । एक जहाज के उनके परिचित कप्तन एरिक हंट के कहने पर उन्होनें अफ्रीका के पूर्वी तट पर स्थित कोमोरो द्वीप समूह पर भी ये पोस्टर लगाए । २१ दिसम्बर १९५२ को आन्जुआन नामक द्वीप पर हंट के पास दो स्थानीय व्यक्ति एक बड़ी मछली लेकर आए । यह मछली भी सीलाकैन्थ ही थी और इसे स्थानीय भाषा में मेम या गोम्बोस कहा जाता था । हंट को यह भी पता चला कि इस प्रजाति की मछलियां अक्सर कोमोरो द्वीप समूह में पाई जाती है । हंट ने कहीं से फॉर्मलीन का जुगाड़ किया और मछली के शरीर में इंजेक्शन से पहुंचा दिया । चूंकि उन दिनों कोमोरो द्वीप समूह फ्रांस के अधीन था, अत: फ्रांसीसी अधिकारियों ने हंट से कहा कि यदि प्रोफेसर स्मिथ स्वयं इस मछली को लेने नहीं आए तो वे उसे जब्त कर लेगें । तब हंट ने स्मिथ को एक और तार भेज कर तुरन्त कोमोरो पहुंचने का आग्रह किया । स्मिथ को चिंता थी कि वे १४ वर्षो से जिस मछली का ब्रेसब्री से इंतजार कर रहे थे कहीं उसे खो न बैठे । उन्होनें दक्षिण अफ्रीका के प्रधानमंत्री श्री मलान से संपर्क करके उन्हें कोमोरो ले जाने के लिए एक हवाई जहाज उपलब्ध कराने का अनुरोध किया, जिसे मलान ने मान लिया और वायु सेना का एक जहाज उन्हें उपलब्ध करवाया ।
जब स्मिथ ने कोमोरो पहुंच कर हंट के जहाप मछली को देखा तो खुशी के मारे उनके आंसू छलक पड़े । स्मिथ को एक साबुत मछली मिल गई थी जिसके सारे आंतरिक अंग सुरक्षित थे । साथ ही, स्थानीय निवासियों का उस मछली से परिचय होने के कारण उन्हें यह भी पता चल गया था कि उन्हें और भी मछलियां उस क्षेत्र में मिल सकती है । इन आंतरिक अंगों का परीक्षण करके स्मिथ ने कई शोध पत्र प्रकाशित किए । किन्तु फ्रांस के अधिकारियों को ऐसा लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है और उन्होनें फ्रांस के अलावा अन्य देशों के वैज्ञानिकों के द्वारा सीलाकैन्थ पर शोध कार्य करने पर प्रतिबंध लगा दिया जो १९७० के दशक में कोमोरो द्वीपों के आजाद होने तक जारी रहा ।
१९५६ में एक दुर्घटना में हंट का जहाज डूब गया और उनकी मृत्यु हो गई । १९६८ में लम्बी बीमारी से परेशान होकर प्रोफेसर स्मिथ ने आत्महत्या कर ली । सन १९८८ में कैप्टन गूजेन की मृत्यु हो गई । मार्जरी लैटिमर ९७ वर्ष की लंबी उम्र जीने के बाद २००४ में संसार से विदा हो गई ।
सीलाकैन्थ की लम्बाई लगभग ५ फीट और भार ४५ किलोग्राम होता है । ठंडा वातावरण पसंद होने के कारण ये मछलियां दिन में समुद्र की सतह से ६५० से १३०० फीट तक की गइराई पर किनारे में कटी हुई गुफाआें में आराम करती हैं और रात में शिकार की खोज में सतह पर आती है । अफ्रीका के पूर्वी तट पर इस प्रकार की गुफाआें की संख्या बहुत अधिक होने के कारण वहां पर इन मछलियों को अनुकूल पर्यावरण मिल जाता है । इनका भोजन सभी प्रकार की मछलियां होती हैं । इनके जबड़े का जोड़ लचीला होने के कारण इनका मुंह काफी चौड़ा होता है जिसके कारण ये बड़ी मछलियों को भी निगल जाती हैं । सीलाकैन्थ मछलियों के अंडे लगभग एक साल तक मादा के गर्भ में ही रहते हैं और वहीं फूटते हैं । इनमें से निकलने वाले शिशु जन्म के समय पूरी तरह विकसित होते हैं ।
फिलहालजीवित सीलाकैन्थ की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है, किन्तु समय-समय पर की गई गणनाआें के अनुसार अफ्रीका के तट पर इनकी संख्या एक हजार के आसपास हो सकती है । संसार के वैज्ञानिक दक्षिण अफ्रीका सरकार के साथ मिलकर एक परियोजना के माध्यम से यह प्रयास कर रहे हैं कि इनके शिकार पर पाबंदी लगे और इनकी संख्या बढ़ाई जा सके ।
किन्तु सीलाकैन्थ की कहानी यहीं खत्म नहीं होती । सितम्बर १९९७ में इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप में एक सीलाकैन्थ पकड़ी गई । उस समय अमरीकी जीव शास्त्री मार्क अर्डमन और उनकी पत्नी अर्नाज वहां छुटि्टयां बिता रहे थे । उन्होनें बाजार में इस मछली को देखा जरूर किन्तु वे उसका फोटो भर ले सके और किसी अन्य व्यक्ति ने उस मछली को खरीद लिया । तब अर्डमन ने भी सीलाकैन्थ पकड़ कर लाने वाले के लिए इनाम की घोषणा की । ३० जुलाई १९९८ को मछुआरे एक जीवित सीलाकैन्थ को पकड़ कर अर्डमन के पास ले आए । कोमोरो सीलाकैन्थ से इस प्रजाति का रंग भिन्न है और इसे लैटिमरिया मेनाडोएन्सिस नाम दिया गया । क्योंकि इसे मेनाडो द्वीप के समीप पकड़ा गया था । स्थानीय मछुआरे इस मछली से परिचित थे और इसे राजा लाउट (समुद्र का राजा) के नाम से पुकारते थे ।
धरती पर रहने वाले जन्तुआें के पूर्वजों को लेकर वैज्ञानिकों के दो मतों (फेफड़े वाली मछलियां बनाम सीलाकैन्थ) के विवाद का फैसला इन मछलियों के जीन्स का परीक्षण करके ही किया जा सकता था किन्तु मुश्किल यह थी कि किसी भी सीलाकैन्थ के अंगों को इतनी सावधानीपूर्वक सुरक्षित नहीं रखा गया था कि उनके जीन्स का विश्लेषण किया जा सके ।
दक्षिण अफ्रीका मेंशुरू की गई सीलाकैन्थ पर्यावरण परियोजना की प्रेरणा स्त्रोत रोड्स विश्वविघालय की प्रोफेसर रोजमेरी डॉरिगटनी थी । उन्होनें कोमोरो द्वीप समूह के गांवों में घूम कर इस परियोजना की जानकारी दी थी और स्थानीय वैज्ञानिकों को किसी सीलाकैन्थ के पकड़े जाने पर उसके आंतरिक अंगों को सुरक्षित रखने का प्रशिक्षण दिया था । मोरोनी कस्बे में उनका प्रतिनिधि सैयद अहमदा नामक पर्यावरणविद था । सन २००३ में कोमोरो द्वीप समूह में एक मछुआरे ने सीलाकैन्थ पकड़ी और उसे वह सैयद अहमदा के पास लेकर आया । अहमदा ने उस मछली के आंतरिक अंगोंको सावधानीपूर्वक निकाल कर स्थानीय विज्ञान केन्द्र के फ्रीजर में सुरक्षित रख लिया । कुछ दिनों के बाद अहमदा को ईस्ट लंदन जाने का अवसर मिला । बर्फ के बक्से में रख कर सीलाकैन्था के आंतरिक अंग वे अपने साथ ले गए और प्रोफेसर डॉरिगटन को दिए । डॉरिगटन ने पहला काम यह किया कि प्रयोगशाला में जाकर इन अंगों का सूक्ष्मदर्शी से परीक्षण करके यह देखा कि वे उचित ढंग से सुरक्षित रखे गए थे या नही ।
अब समस्या यह थी कि इन अंगों से कोशिकाएं निकाल कर उनके जीन्स का परीक्षण कहा किया जाए ? इस काम के लिए उपयुक्त आधुनिक उपकरण कम उपलब्ध थे । तब उन्होनें वांशिग्टन विश्वविघालय के प्रोफेसर क्रिस अमेमिया से संपर्क किया । अमेमिया सीलाकैन्थ की कहानी से प्रभावित थे ही तंुरत सहमति देकर काम शुरू कर दिया । उनके द्वारा किए गए जीनोम परीक्षण से यह फैसला होना थ कि हमारे असली पूर्वज कौन है - मांसल पंखो वाले सीलाकैन्थ या फेफडे़ वाली मछलियां ? लगभग १०० वैज्ञानिकों की टीम ने जिसमें वैज्ञानिक और कम्प्यूटर विशेषज्ञ शामिल थे, आखिर सीलाकैन्थ के जीनोम का नक्शा बना लिया । इसके बाद उसके जीन्स की तुलना अन्य मछलियोें, फेफडे वाली मछलियोें के जीन्स के साथ करने का काम शुरू हुआ । इस पर अमेमिया और उनके सहयागियोें ने कई शोध प्रकाशित किए । फेफडे वाली मछलियोें का जीनोम इतना बडा़ होता है कि उसका पूरा विश्लेषण करना संभव नही हो पाया है, किन्तु सीलाकैन्थ के जीनोम पर अब तक हुए काम से लगता है कि फेफडे वाली मछलियां हमारी अधिक निकट की पूर्वज हैैं । सीलाकैन्थ हमारे चचेरे ममेरे पूर्वज है ।
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