मंगलवार, 3 जून 2008

३ विरासत

संजीवनी का सच क्या है ?
डॉ ओ. पी. जोशी/डॉ. जयश्री सिक्का
पौराणिक कथा के अनुसार त्रेतायुग में राम-रावण युद्ध के दौरान घायल लक्ष्मण की बेहोशी दूर करने हेतु संजीवनी बूटी का उपयोग किया गया था जिसे हनुमान हिमालय पर्वत से लाए थे । हनुमान को प्रसिद्ध वेद्य सुषेण ने बताया था कि रात्रि में जिस पौधें से प्रकाश निकले वही संजीवनी बूंटी है । महर्षि वाल्मिकी ने लगभग २०० प्रकार की वनस्पतियों का वर्णन किया है जिसमें से कुछ आज भी पाई जाती है एवं औषधि के रुप में उपयोग है । कुछ वनस्पतियां ऐसी भी हैं जिनके सही पर्याय नहीं मिलते है यानी या तो वे विलुप्त् हो गई या उनके सही नामों को भुला दिया गया । इन कारणो से उन वनस्पतियों की पहचान आज भी मुश्किल है । इन वनस्पतियों मेें सजीवनी, विशल्यकारणी, संधानकरणी एवं सवर्णकरणी आदि प्रमुख हैं । संजीवनी एवं संधानकरणी का अंतिम विवरण राजकवि बलाल ने १० वीं सदी में अपने ग्रंथ भोज प्रबंध में दिया था । इसमें बताया गया है कि राजा भोज के सिर की शल्य क्रिया करके कोई गठान निकाली गई थी और संधानकरणी से घाव ठीक करके संजीवनी की मदद से उन्हें होश में लाया गया था । लक्ष्मण के इलाज हेतु चार प्रकार की वनस्पतियों के उपयोग का ज़िक्र है । प्रथम वे वनस्पतियोंे थीं जो मांसपेशियोंको शिथिल कर देती हैं ताकि लगा हुआ तीर आसानी से निकाला जा सके । दूसरी वे वनस्पतियाँ थी जो तीर निकलने के बाद घाव के निशान को मिटाएं । तीसरी वे थी जो जल्दी घाव भरने में सहायक हों एवं चौथी वे जो मूर्छा या बेहोशी को हटाएं । संभवत: यह चौथी प्रकार की वनस्पति ही संजीवनी थी । संजीवनी की खोज में वैज्ञानिकांे एवं वनस्पतिज्ञों की काफी रुचि रही है एवं समय-समय पर इसकी खोज के दावे भी किए गए हैं । लगभग १८-१९ वर्ष पूर्व १९८९ में बैतूल निवासी डॉ जान वेसली मकबूल ने गांव बोरादेही से दूर जंगलों में घूमते समय एक पौधा देखा जो चमक रहा था। पौधे के चमकने की यह क्रिया लगभग २-३ घंटे तक जारी रही । डॉ. मकबूल को आश्चर्य हुआ । जहां चमकता पौधा दिखाई दिया था वहां उन्होने एक निशानी रख दी ताकि पौधे को भविष्य में भी पहचानने में भूल न हो । अगस्त एवं सितम्बर माह की रात्रि में जाकर डॉ. मकबूल ने इस पौधे का अवलोकन अपनी रखी निशानी के आधार पर लगातार किया। चमकने वाले कुछ पौधे निशानी के आसपास भी देखे गए । अक्टूबर माह में डॉ. मकबूल ने अपने अवलोकन की जानकारी बैतूल एवं छिंदवा़़डा के कलेक्टरों को दी एंव तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी पत्र लिखकर भेजी । छिंदवाड़ा कलेक्टर के आदेश पर डॉ मकबूल इस पौधे का नमूना लेकर आए एवं स्थानीय वन अधिकारी एंव पत्रकारों को बताया । डॉ.मकबूल के अवलोकन के अनुसार इस पौधे से प्रकाश निकलकर चमकने की प्रक्रिया केवल अगस्त, सितंबर एवं अक्टूबर में ही होती है, बाद में धीरे-धीरे कम होकर समाप्त् हो जाती है । कुछ राष्ट्रीय समाचार पत्रों एंव पत्रिकाआें में यह घटना उस समय सुर्खिया में प्रकाशित की गई । लेकिन फिर यह बात आई-गई हो गई । उस समय इतने टीवी चैलन नहीं थे अन्यथा कोई-न-कोई चैनल इसका लाईव प्रसारण करता एवं देश-विदेश में वैज्ञानिक एवं वनस्पतिज्ञ इसे देख पाते एवं सही पहचान का प्रयास करते।यदि चमकना ही संजीवनी का प्रमुख गुण माना जाए तो उत्तराखंड में पाई जाने वाली कुछ घांस की जड़े भी अंधेरे में रेडियम की भांति चमकती हैं । घास की इन प्रजातियों को स्थानीय भाषा में गुड़िया, महवलिया एवं तुअड़िया आदि कहते हैं । हाल ही में लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने बताया है कि संजीवनी पौधे की यह विशेषता होती है कि वह सूखने पर भी नहीं मरता एवं थोड़ी-सी नमी मिलने पर फिर तरोताज़ा होकर जीवन यापन करने लगता है । संजीवनी के इस गुण को महत्ता देकर चमकने वाली बात भुला दी गई । वनस्पति शास्त्र की पुस्तकों में दिए वर्णन के अनुसार सिलोजिनेला दुनिया भर में पाया जाता है एवं इसकी लगभग ७५० प्रजातियां है । ज़्यादातर प्रजातियां पर नम एंव छायादार स्थानों पर पाई जाती है । कुछ प्रजातियां सुखे स्थानों पर भी पाई जाती हैं जिन्हे मरुद्भिद कहते है । इनमें सिलेजिनेला लेपिडोफीला एवं सिलेजिनेला रुपेस्ट्रीस प्रमुख हैं । ये प्रजातियां शुष्क अवस्था में सिमटकर एक छोटी गेंद या गोली के समान हो जाती है किंतु नमी के सम्पर्क में आने पर फैलकर पूर्वावस्था प्राप्त् कर लेती है । राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान के वैज्ञानिक इन प्रजातियों के ही संजीवनी मान रहे हैं । सिलोजिनेला में कोई चमक नहीं होती है, जैसा संजीवनी के बारे में बताया जाता है । इसके अलावा वनस्पति शास्त्र की किसी भी उपलब्ध पुस्तक में सिलेजिनेला के किसी औषधि गुण का उल्लेख नहीं है । राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक सिलेजिनेला की इन्हीं प्रजातियों का अध्ययन एक पंचवर्षीय योजना बनाकर इस आधार पर कर रहे हैं कि इन प्रजापतियों को पुनर्जीवित होने की क्षमता अनुवंशिक आधार पर किसी जीन से नियंत्रित होगी । इस जिन को पृथक कर यदि अन्य पौधे में डाला जाये तो उनमें भी पुनर्जीवित होने की क्षमता आ सकती है । इस जीन को यदि गेहूं एवं धान के पौधे में डाला जाए तो वे सूखा प्रतिरोधी बन सकते है । संजीवनी का पौधा चाहे जो रहा हो परंतु यदि सिलेजिनेला की प्रजापियों से पुनर्जीवित क्षमता का जीन पृथक कर अन्य उपयोगी फसलों में सफलता पूर्वक डाला जा सके तो निश्चित ही भारतीय खेती के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं होगा । भोपाल स्थित राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय भी संजीवनी पर अनुसंधान कर रहा है । इसके जल्दी ही परिणाम की उम्मीद है । ***

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