उपज के लिए पौधों से खिलवाड़
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
अनाज, फलों और नगदी फसलों की अच्छी उपज देने वाले संकर पौधे उपयोगी हैं मगर लंबे समय तक इनका संवर्धन करना एक चुनौती रही है क्योंकि `संकर स्फूर्ति' समय के साथ फीकी पड़ जाती है । इस संदर्भ में हैदराबाद के कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र के डॉ. इमरान सिद्दिकी और उनके साथियों द्वारा नेचर के २८ फरवरी २००८ के अंक में प्रकाशित शोध पत्र मील का पत्थर है। इसमें उन्होंने एक तकनीक का ब्यौरा दिया है जिसकी मदद से ज्यादा पैदावार वाले पौधों को निरंतर उगाना संभव हो सकेगा । इस तकनीक में जिनेटिक स्विचिंग का एक चरण शामिल है जो पौधे के सेक्स जीवन को बदल डालेगा । बच्च पैदा करने के कितने तरीके हैं? जवाब इस बात पर निर्भर है कि यह सवाल किससे पूछा गया है । कई एक कोशिकीय बैक्टीरिया के पास संतानोत्पत्ति का आत्मनिर्भर तरीका मौजूद है । वे तो बस अपनी जिनेटिक सामग्री (जीनोम) की एक नकल बनाते हैं और दो कोशिकाआें में विभाजित हो जाते हैं । समय आने पर इनमें से प्रत्येक कोशिका फिर से दो-दो में विभाजित हो जाती है । और यह प्रक्रिया चलती रहती है । जल्दी ही एक मूल कोशिका से करोड़ों, अरबों कोशिकाएं बन जाती हैं । यह एक जांची परखी प्रक्रिया है, जिसे माइटोसिस या समसूत्री विभाजन कहते हैं और यह करोड़ों सालों से जारी है । चूंकि प्रजनन की यह शैली एक अकेली कोशिका से चलती है और उसकी लगभग सत्य प्रतिलिपियां बनती हैं, इसलिए संतानें पालक की क्लोन होती हैं । इसे क्लोनल विस्तार भी कहते हैं । बहु-कोशिकीय जीवों में कोशिकाएं न सिर्फ हूबहू अनुकृति के रूप में विभाजित होती हैं बल्कि विभेदित होकर अन्य किस्म की कोशिकाएं भी बनाती हैं। ये विभेदित कोशिकाएं फिर क्लोनल विस्तार के जरिए ऊतक व अंगों का निर्माण करती हैं । क्लोनल प्रजनन काफी कार्यक्षम है मगर कभी-कभी इसमें त्रुटियों की संभावना रहती है । जब नकल बनाने में इस तरह की त्रुटियां होती हैं तो डी.एन.ए. में उपस्थित सूचना में फेरबदल हो जाता है । समय के साथ जीवों में प्रूफ रीडिंग, संपादन व मरम्मत की तकनीकें विकसित हुई हैं । इसके बावजूद यदि त्रुटि हो जाए और वह संतान कोशिका तक पहुंच जाए, तो म्यूटेशन्स यानी उत्परिवर्तन पैदा होते हैं । यदि ऐसा कोई म्यूटेशन संयोगवश उस जीव को किसी पर्यावरण में बेहतर जीने की क्षमता देता है, तो वह लाभदायक हो जाता है । यह म्यूटेशन युक्त कोशिका (म्यूटेन्ट) अन्य कोशिकाआें से ज्यादा जी पाती है । औषधि प्रतिरोधी बैक्टीरिया इसी तरह विकसित होते हैं । दूसरी ओर, कोई म्यूटेशन कोशिका को दुर्बल भी बना सकता है । यदि यह जिनेटिक त्रुटि पीढ़ियों तक चलती रहे तो सजीवों का कम तंदुरूस्त खानदान तैयार होता है । लिहाजा यह अच्छा होगा यदि नए व उपयोगी जीन्स हासिल करने का तथा प्रजनन का कोई और तरीका मिल जाए । यदि उपरोक्त सवाल हमारे जैसे किसी स्तनधारी से पूछा जाए, तो जवाब होगा: सेक्स, जिसमें बच्च्े पैदा करने के लिए दो पालक (एक मादा व एक नर) की जरूरत होती है । नर व मादा के शरीर में २०० विविध किस्म की कोशिकाआें के अलावा एक विशेष किस्म की कोशिकाएं बनती हैं जन्हें अंडाणु या शुक्राणु कहते हैं । इनमें जीव की पूरी जिनेटिक सामग्री नहीं होती, सिर्फ आधी सामग्री होती है । शुक्राणु और अंडाणु के मिलने से निषेचन होता है और एक भ्रूण बनता है। समय के साथ भ्रूण विकसित होकर शिशु बनता है । अर्थात माता व पिता दोनों जीन्स संतान को हस्तांतरित किए जाते हैं । इस तरह के लैंगिक प्रजनन में क्लोनिंग की अपेक्षा कई फायदे हैं । इसके जरिए नए-नए जीन्स जुड़ते हैं और विविधता बढ़ती है । नए गुण जुड़ते हैं व नई संभावनाएं खुलती हैं । इसके अलावा मादा और नर को अपना प्रजनन साथी चुनने का मौका मिलता है ताकि वे स्वस्थ संतान उत्पन्न कर सकें । जीन का मिश्रण लैंगिक प्रजनन का एक फायदा है । मगर इसमें जो जैविक प्रक्रियाएं होती हैं, वे समसूत्री विभाजन की अपेक्षा ज्यादा पेचीदा है । पालकों के जिनेटिक पदार्थ को पहले गैमेट्स (अंडाणु व शुक्राणु) में बांटा जाता है, और फिर निषेचन के दौरान इन्हें फिर से मिलाया जाता है - इन प्रक्रियाआें को अर्धसूत्री विभाजन और पुनर्मिश्रण कहते हैं । कई पौधों में यही रास्ता अपनाया जाता है । फूलधारी पौधों के स्त्रीकेसर में अंडाणु होते हैं । (इन्हें बीजांड कहते हैं) पुंकेसर नर प्रजनन अंग है जिसमें पराग कोश होते हैं । पराग कोशों में पराग कण होते हैं जो नर प्रजनन कोशिकाएं हैं । जब पराग कण स्त्रीकेसर पर पहुंचकर बीजांड से मिलते हैं तो निषेचन होकर भ्रूण बनता है । यह बीज के अंदर होता है । बीजांड के आसपास की कोशिकाएं भी विभाजित होकर बीज बनाती हैं । जैसे हम खुद के लिए प्रजनन साथी का चुनाव करते हैं उसी प्रकार खेती में हम विभिन्न गुणों वाले पौधों का चयन करके उनका निषेचन करवाते हैं ताकि मनचाहे गुणों वाले पौधे पा सकें । जैसे, ज्यादा पैदावार, कीट प्रतिरोध, बेहतर फल, या ज्यादा सुंदर फूल वगैरह । खेजी में प्रमुख खाद्यान्न फसलों में इस तरह से संकरण से ऊंचीपैदावार वाली संकर किस्में बनाई जाती हैं । हरित क्रांति इसी तरह की कवायद का नतीजा थी । मगर किसानों के सामने एक समस्या आती है । एक अच्छी संकर किस्म मिल जाने पर चाहते हैं कि उसके जीन्स बरकरार रहें । तब वे संकर किस्म में स्व निषेचन के जरिए इसका फैलाव करते हैं ताकि संतानें बेहतर होती जाएं । मगर तथ्य यह है कि यह संकर स्फूर्ति स्व निषेचन से उत्पन्न कुछ ही पीढ़ियों बाद समाप्त् हो जाती है । संकर किस्म में उपस्थित विभिन्न जीन्स बीजांड या पराग कणों के निर्माण के दौरान अलग-अलग हो जाते हैं और फिर अलग ढंग से पास-पास आते हैं । परिणाम यह होता है कि हमें हर बार पालकों की मूल संकर किस्म के साथ निषेचन करवाना होता है ताकि स्फूर्ति बने रहे । किसानों की दृष्टि से यह कोई संतोषजनक स्थिति नहीं है । अलबत्ता, एक रास्ता है । यह रास्ता कई पौधों (तथा कीट व मछली जैसे कुछ जंतुआें) के एक विचित्र गुण का परिणाम है । डेंडेलियन तथा बेरियों व घासों जैसे कुछ पौध अर्धसूत्री विभाजन को तिलांजलि दे देते हैं और क्लोन विधि से बीज पैदा करते हैं । मादा का पूरा का पूरा जीन सेट पुत्री बीज को मिल जाता है। इस अजीब किंतु रोमांचक गुण को एपोमिक्सिस कहते हैं । इसमें मियोसिस यानी अर्धसूत्री विभाजन नहीं होता है । यह अलैंगिक प्रजनन है । जहां बेरियां व घासें ऐसा करती हैं, वहीं प्रमुख फसलों पौधों में ऐसा नहीं होता । वे तो लैंगिक प्रजनन ही करते हैं। काश, उन्हें भी एपोमिक्टिक बनाया जा सके । तब संकर स्फूर्ति सदा के लिए बनी रहेगी क्योंकि जीन्स का पुनर्मिश्रण नहीं होगा । यदि एपोमिक्सिस का जीव वैज्ञानिक आधार व प्रक्रिया समझ सकें, तो शायद हम गेहूं, चावल और मक्का जैसी फसलों को एपोमिक्सिस की राह पर भेज सकेंगे और अच्छी पैदावार ले सकेंगे। तो वे कौन-से जीन्स हैं जो एपोमिक्सिस का नियंत्रण करते हैं ? डॉ. इमरान सिद्दिकी और उनके साथियों ने इसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाला है । इसके लिए उन्होंने अलैंगिक प्रजनन करने वाले एक पौधे एरेबिडोप्सिस का उपयोग किया। उन्होंने दर्शाया है कि ऊधअऊ नामक एक जीन में फेरबदल करने से एपोमिक्सिस का रास्ता खुल जाता है और पौधा अलैंगिक प्रजनन करने लगता है । ऊधअऊ जीन सामान्य रूप से अर्धसूत्री विभाजन के दौरान गुणसूत्रों के संगठन का नियमन करता है । मगर ऊधअऊ जीन में उत्परिवर्तन होने पर पौधों में ऐसे बीज बनने लगते हैं जिनमें एक ही पालक के पूरे गुणसूत्र होते हैं । इस जीन का काम भलीभांति ज्ञात है मगर इस एक अकेले जीन में उत्परिवर्तन से पौधा एपोमिक्टिक बन सकता है, यह सचमुच एक पथ प्रदर्शक खोज है । सिद्दिकी का कहना है, ``हमारे नतीजे ऐसे अन्य जीन्स की खोज को प्रेरित करेंगे, जिनका उपयोग करके हम खाद्य फसलों में एपोमिक्सिस पैदा कर सकेंगे जो दुनियाभर में कृषि जैव-टेक्नॉलॉजी का लक्ष्य है ।***
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