मंगलवार, 3 जून 2008

७ कृषि जगत

भारत और इंडिया के मध्य उलझी कृषि
कांची कोहली/मंजु मेनन
संप्रग सरकार के मंत्री सम्मिलित या संपूर्ण विकास की चर्चा करते नहीं अघाते, क्योंकि हमारे प्रजातंत्र का यही लक्ष्य है । वही हमारे कृषक मछुआरों और अदिवासी समुदायो के लिए छलांग लगाती यह आर्थिक वृद्धि दु:स्वप्न ही साबित हो रही है । वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने इस वर्ष केंद्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए अपने भाषण में कहा भी है कि हमें सम्पत्ति निर्माण की और ध्यान देना होगा तभी हम उसका उचित वितरण कर पाएंगे। आखिर बिना संपदा के एक राज्य कल्याणकारी राज्य कैसे बन पाएगा ? लेकिन इस तरह की सतही विचारधारा से कुछ नहीं हो पाएगा। हाल ही का कृषि ऋणमाफी का निर्णय ही देखें, यह सत्ताधारी दल के लिए कुछ सींटे भले ही बटोर ले परंतु हितग्राहियों के मूल मुद्दों के बारे में यह कुछ कर पाएगा ? क्या यह विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए जमीन अधिग्रहण के मामले में कोई मार्गदर्शन दे पाएगा ? छोटे और सीमांत किसान इस वक्त महत्वपूर्ण मुद्दों पर आशा लगाए बेठे हैं । मात्र साठ हजार करोड़ रुपयों की ऋणमाफी से कृषि क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं हो पाएगा । केन्द्रीय बजट सरकार की इस मानसिकता को दर्शाता है कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों का ज्यादा महत्व है और कृषि क्षेत्र तीव्र अर्थिक वृद्धि के लिए प्रतियोगी नहीं है । किंतु कृषक समुदाय इस नजरिए से सहमत नहीं है । बजट पेश होने के एक दिन पहले दिल्ली मेंसेज से संबंधित एक सभा में रायगढ़ उड़ीसा के कृषकों ने साफ-साफ कहा था कि अर्थशास्त्री भले ही कृषि व्यवसाय को तुच्छ मानें हम इसे छोड़ने के पक्ष में नहीं है । कृषि क्षेत्र पर आई इस विपत्ति ने समाचार माध्यमों का ध्यान भी आकृष्ट किया है । किंतु वे सभी इसे सिर्फ आर्थिक समस्या मानते हैं और इसके लिए आर्थिक समाधान ही प्रस्तुत करते हैं । इस समस्या के पर्यावरण कोण को सभी यहां तक कि हमारा ताजा बजट भी नजरअंदाज कर रहे हैं । पिछले दस सालों में भारतीय कृषि की निर्भरता बाह्य साधनों पर होती जा रही है । बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि औजार और यहां तक कि पानी भी व्यावसायिक दरों पर उपलब्ध हो पा रहा है । बाजरे जेसी क्षेत्रीय मौसमी पारम्परिक फसल, जिसमें कम पानी और कम खाद की आवश्यकता होती है अब चलन से बाहर हो रही है । इस तरह के कृषि उत्पादों के लिए समुचित वितरण पद्धति के अभाव एवं रासायनिक खादों पर साल-दर-साल बढ़ती सब्सिडी ने न सिर्फ पारम्परिक कृषि को बेदखल कर दिया है बल्कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी खत्म कर दिया है । इसके दुष्परिणाम भी भयावह हैं । उदाहरण के लिए उड़ीसा के कृषक आत्महत्या के ताजा मामलोंको ही देखें, ये सभी नगद फसल उगाने वाले कृषक थे जिसमेंं विनियोग के लिए बड़ी रकम चाहिए । यदि एक बार की फसल बिगड़ जाय तो घाटा वहन करना अंसभव होता है । कृषि/समस्याआें के लिए रामबाण मानी जाने वाली बड़ी कृषि परियोजनाएं भी ज्यादा सफल नहीं रही है। सरदार सरोवर जैसी बहुप्रारित परियोजना ने भी कमांड एरिया में पानी के वृहद जमाव की वजह से स्थाई नुकसान पहुुंचाया है । अलबत्ता ताजा बजट में सिचांई क्षेत्र को बड़ा विनियोग प्राप्त् हुआ है, सिंचाई एवं जल संसाधन वित्त निगम की स्थापना के लिए १०० करो़़ड रुपयों का आबंटन प्रारंभिक पूंजी के रुप में किया गया है । एक्सीलेरेटेड इरीगेशन बेनिफिट प्रोगा्रम के लिए वर्ष २००८-०९ में २० हजार करोड़ के खर्च का प्रावधान है जिसमे २४ वृहद एवं मध्यम दर्जे की परियोजनाएं एवं ७५३ छोटे दर्जे की सिंचाई योजनाएं आगामी वर्ष में सम्पन्न की जानी है सूची में सरदार सरोवर बांध ओर मणिपुर के थोबल बांध के नाम भी हैं । यह अलग बात है कि मणिपुर में हाल ही में माणिटोल बांध प्रभावित ग्राम समिति ने थोबल बांध के पुनर्निरीक्षण की मांग की है । उनकी शिकायत है कि जब सन् १९८० में परियोजना को मंजूरी मिली थी तब पर्यावरण आर्थिक एवं सुरक्षा आधारों पर इसकी उचित रुप से जांच नहीं की गई थी । मूल्यों में अस्थिरता, बाजार की अनिश्चितता और कृषि क्षेत्र में बड़े खिलाड़ियों के पदार्पण ने इस क्षेत्र में बड़ी हलचल मचा दी है । कृषि व्यवसाय के ऋणो के संदर्भ में इस समय हमें एक सुविचारित योजना की आवश्यकता है । वरना हम पाएंगे कि हमारी सम्मिलित वृद्धि हमारे गरीब कृषकों की पीठ पर सवारी करने की अपनी प्रवृत्ति जारी रखे रहेगी । ***

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