वैश्विक तापमान परिवर्तन के चलते संसार भर की हर आठ में से एक पक्षी प्रजाति पर लुप्त् होने का खतरा मंडराने लगा है । विख्यात पत्रिका न्यू सांईटिस्ट ने हाल ही में पक्षियों की उन प्रजातियों की लिस्ट छापी है जिन्हें इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कन्जरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने अपनी `रेड लिस्ट' में शामिल किया है । इस लिस्ट में इस बार १२२६ पक्षी प्रजातियों का नाम शामिल किया गया है । उल्लेखनीय है कि यह विश्व प्रसिद्ध संस्था अपनी रेड लिस्ट में उन्हीं प्रजातियों को शामिल करती है जिन पर लुप्त् होने का संकट मंडरा रहा होता है । इस बार की लिस्ट में उन पक्षियों पर और अधिक खतरा बताया गया है जो पिछली बार खतरे वाली सूची में शामिल किए जा चुके थे । इस बार २६ पक्षी प्रजातियों को पिछली बार के मुकाबले अधिक खतरे में बताया गया है जबकि सिर्फ दो पक्षी प्रजातियों को पहले के मुकाबले बेहतर स्थिति में बताया गया है। पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पक्षियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और वैज्ञानिकों ने इसके लिए मुख्य कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि और मौसम में हो रहे लगातार परिवर्तनों को बताया है। आईयूसीएन ने डाँवाडोल हो रही प्रकृति के लिए मानव की हरकतों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि वह अपनी इच्छाआें पर काबू नहीं कर पा रहा है । उसने जंगलों का बेतहाशा दोहन करना भी नहीं रोका है। पापुआ न्यू गिनी का उदाहरण देते हुए रिपोर्ट में लिखा है कि वहाँ बॉयोफ्यूल का उत्पादन करने के लिए जंगलों को बेतरतीब तरीके से काट दिया गया और इससे वहाँ रहने वाले पक्षियों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है ।
भोपाल के जहरीले यूनियन कार्बाइड परिसर में रखे ३९० टन रसायनिक कचरे को गुजरात में ले जाकर नष्ट करने की योजना है । इस कचरे को हटाने के लिए नई रणनीति बनाई जा रही है जिसके तहत यूका परिसर से कचरे को हटाने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय ली जायेगी। पिछले महीने गैस राहत और पुर्नवास विभाग ने भारतीय सेना से इस संबंध में संपर्क किया था, साथ ही ट्रांसपोर्टस को भी पत्र लिखा गया था, जिसका परिणाम सकारात्मक बताया जा रहा है । जिसमें केन्द्र और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियम और शर्तो की जानकारी दी गई है । यूका परिसर में मौजूदा कचरे में से कुछ हिस्सा जमीन में दफनाया जायेगा जबकि शेष बचे कचरे को गुजरात ले जाकर जलाया जायेगा । प्रदूषण निवारण मंडल के वैज्ञानिकोंद्वारा बनाए नये नियमों के तहत जमींदोज किये जाने वाले कचरे को ठोस रूप में जमा दिया जायेगा । जबकि बाकी जहरीले कचरे को १४०.० डिग्री सेल्सियस तापमान पर जलाकर नष्ट कर दिया जायेगा । हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान गैस राहत व पुर्नवास मंत्री अजय विश्नोई ने भी स्वीकार किया था कि कुछ ट्रांसपोर्ट से उन्होंने बात की है । कचरे की मात्रा को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है । यूनियन कर्बाइड परिसर में कितना जहरीला रसायन है, इसे लेकर अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हैं । सरकार का दावा जहां ३९० मैट्रिक टन का है, वही गैस पीड़ित संगठनों का कहना है कि परिसर में १८ हजार टन घातक रसायन मौजूद हैं, बहरहाल प्रदूषण निवारण मंडल ने लगभग दो वर्ष पहले जो पैकिंग कराई थी, वह कचरा सबसे पहले हटाया जायेगा।
जब जंगलों पर चौतरफा हमला हो रहा हो, रक्षक भी भक्षक बन रहे हों, ऐसी स्थिति में बंगाल के कुछ युवकों की टोली जंगलों की रक्षा के लिए आगे आई है । पं. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दूरा क्षेत्र में २०-२५ वर्ष के चौबीस युवकों का यह समूह छ:-छ: की टुकड़ियों में क्षेत्र के वनों की रक्षा करता है । मदारीहाट वन क्षेत्र के रेंजर असीम कुमार ने बताया कि ये युवक वनों की तस्करों से रक्षा का कार्य बड़ी मुस्तैदी से कर रहे हैं । ये युवक गत अप्रैल माह से यह कार्य कर रहे हैं । फलस्वरूप पेड़ों की अवैध कटाई में पचास प्रतिशत तक कमी आई है । युवकों की यह रक्षक टोली वन विभाग और ग्रामीणों के बेहतर संबंधों का नतीजा है । सन् १९९१ में वन विभाग ने वनवासियों को वनों की रक्षा में सहभागी बनाने की पहल शुरू की थी । वन रक्षक समितियों का गठन किया गया था । ये समितियाँ वनों के अलावा वनोपज और वन्यजीवों की रक्षा का कार्य भी कर रही हैं । बदले में वन विभाग, समिति सदस्यों को वन भूमि पर खेती करने और चूल्हे के लिए जलाऊ लकड़ी लेने की छूट देता है । ऐसी ही एक समिति का सदस्य भैया ओरांव कहता है - हमें वन विभाग ने सड़क बना दी है और पीने का पानी भी उपलब्ध कराया है । हमें सब्जियाँ उगाने की भी छूट हैं । वनों पर हमारी अंतरनिर्भरता है । युवकों की इस रक्षक टोलियों को वन विभाग ने साइकलें, टार्च और लाठियाँ उपलब्ध करा दी हैं । इन युवकों को दो हजार रू. प्रतिमाह मानदेय मिलता है । युवकों की इस टोली के साथ पंद्रह सदस्यीय महिलाआें की टोली भी जुड़ने के लिए तैयार है । फिलहाल वन विभाग से इस पर चर्चा चल रही है ।
जैविक खाद से बढ़ सकती है ३० प्रतिशत उपज
खाद्यान्न की बढ़ती मांग पूरी करने में जैविक खाद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है । इनके इस्तेमाल से कृषि उपज में २५ प्रतिशत से ३० प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है और नाइट्रोजन और फास्फोरस पर निर्भरता २५ प्रतिशत तक घटाई जा सकती है । कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक खाद के अंधाधुंध और अनुचित इस्तेमाल के कारण कृषि भूमि का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है या उसकी रासायनिक संरचना में असंतुलन हो गया है । इससे कृषि पैदावार में ठहराव की स्थिति पैदा हो गयी है । राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम के विभिन्न परीक्षणों के परिणामों के अनुसार जैविक खाद के इस्तेमाल से पौधों का विकास तरीके से होता है और भूमि की जैव सक्रियता बढ़ती है । कृषि भूमि की उवर्रकता बरकरार रहती है और भूमि को कई तरह की बीमारियों से बचाया जा सकता है । देश के विभिन्न हिस्सों में किए गए परीक्षण के अनुसार जैविक खाद के इस्तेमाल से चावल की उपज में औसत २७ प्रतिशत, गेहूँ में २५ प्रतिशत, जौ में १५ प्रतिशत, दालों में १२ प्रतिशत, तिलहन में १० प्रतिशत, गन्ने में १३ प्रतिशत और सब्जियों में १९ प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है । देश में प्रति वर्ष १५ हजार से २० हजार टन जैविक खाद की आवश्यकता है जबकि उत्पादन केवल १० हजार से १२ हजार टन प्रतिवर्ष हो रहा है। कृषि मंत्रालय के अनुसार देश में कुल कृषि उपज का ५० प्रतिशत श्रेय विभिन्न खादों को जाता है । किसान अपनी उपज बढ़ाने के लिए ज्यादातर रासायनिक खाद पर निर्भर रहे हैं । हाल के वर्षो में जैविक खाद पर निर्भर रहे हैं । हाल के वर्षो में जैविद खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देना शुरू किया । सातवीं पंचवर्षीय योजना में जैविक खाद के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की एक व्यापक योजना तैयार की गयी । इसके तहत कृषि मंत्रालय के अधिन राष्ट्रीय विकास एवं जैविक खाद उपयोग परियोजना के तहत राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास केन्द्र का गठन किया गया जबकि भुवनेश्वर, बेंगलूर, नागपुर, जबलपुर, हिसार और इंफाल में उपकेन्द्र बनाए गए है । इन केन्द्रों को जैविक खाद के क्षेत्र परीक्षण और प्रदर्शन करने के लिए अधिकृत किया गया । प्रत्येक क्षेत्र के किसानों के लिए अलग अलग जैविक खाद लिए गए और किसानों को उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया गया । इन अनुसंधानों से जुड़े रहे बायोनिक्स ट्रेक्नोलाजिजके अंबर जैन के अनुसार किसानों की रूचि मूल रूप से उपज बढ़ाने, बेहतर उपज प्राप्त् करने और कम खाद का इस्तेमाल करने में होती है। यदि किन्हीं खाद के मिश्रण से किसानों को ये उद्देश्य प्राप्त् होते हैं तो वह इन्हें अपनाने में संकोच नहीं करते है ।
मैकडोनाल्ड बेचेगा `इको - फैंडली' कॉफी
इस कंपनी के बर्गरों को भले ही लोग `जंक फूड' कहते हों लेकिन `फॉस्ट फूड' के क्षेत्र में अग्रणी कंपनी मैकडोनाल्ड्स पहली बार पर्यावरण की ओर कदम बढ़ा रही है । इसने अपने यहाँ मिलने वाली कॉफी के लिए उन कोको के दानों को खरीदा है जो पर्यावरण हितैषी माहौल में उगाए गए है । मैकडोनाल्ड्स ने घोषणा की है कि अगले वर्ष से वह ऑस्ट्रेलिया में स्थित अपने ४८४ कैफेटेरिया में कॉफी उपलब्ध कराने लग जाएगा जो दक्षिणी अमेरिका में उच्च् श्रेणी के पर्यावरण हितैषी (इको- फ्रैंडली') माहौल में उगाई गई है । मैकडोनाल्ड्स अगले वर्ष मार्च से यह कदम उठाने जा रहा है । उल्लेखनीय है कि कंपनी ने अपने यहाँ परोसी जाने वाली फिल्टर कॉफी की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए न्यूयॉर्क की रेनफॉरेस्ट एलायंस नामक कंपनी को ठेका दिया था जो ग्रीन फ्रॉग लेबल के नाम से कॉफी उपलब्ध करवाती है । मैकडोनाल्ड्स की सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) कैट्रिओना नोबल के अनुसार, हम संसार के लिए एक सकारात्मक योगदान देना चाहते हैं और अगर यह शुरूआत एक कप कॉफी से ही हो रही हो तो इसमें बुरा क्या है । `सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड' ने नोबल के हवाले से कहा कि दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाना । अब सिर्फ एक सपना ही नहीं बल्कि इसे आज की जरूरत माना जाना चाहिए ।***
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