संकट में है जल
मार्टिन खऔर
हाल के वर्षो मे जलवायु परिवर्तन अन्य पर्यावरर्णीय मसलों को एक तरफ करके सबसे बड़ी वैश्विक समस्या दिखाई पड़ने लगा है । परंतु विश्व भर में पानी की खतरनाक कमी भी उतना ही महत्वपूर्ण मसला है । बल्कि कई मायनों में तो यह और भी बड़ी तात्कालिक चुनौती है । एक दशक पूर्व माना जा रहा था कि सन् २०२५ तक विश्व की एक तिहाई आबादी पानी की कमी से जूझेगी । परंतु यह विकट स्थिति तो आज ही आ चुकी है । विभिन्न देशों में रहने वाले २ अरब लोग पानी की कमी से त्रस्त है । अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो सन् २०२५ तक दुनिया की दो तिहाई आबादी पानी की कमी झेल रही होगी । अक्सर कहा जाता है कि इस शताब्दी में पानी की वही स्थिति होगी जोे पिछली शताब्दी में खनिज तेल की थी । जिस तरह पिछले दशकों में खनिज तेल को लेकर युद्ध चल रहे हैं आने वाला समय और भी नाटकीय होगा जबकि पानी को लेकर युद्ध लड़े जाएंगे । वैश्विक जल संकट विशेषज्ञ एवं कांउसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउथी बारलो ने अपनी पुस्तक ब्लू कविनन्ट (नीला प्रतिज्ञापत्र) में लिखा है २०वी शताबदी में वैश्विक जनसंख्या तीन गुनी हो गई लेकिन पानी का उपयोग सात गुना बढ़ गया । सन् २०५० में हमारी जनसंख्या में ३ अरब लोेग और जुड़ चुके होंगे । मनुष्यों की जल आपूर्ति में ८० प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी । कोई नही जानता कि यह पानी कहां से आएगा । ताजे शुद्धजल की मांग तेजी से बढ़ रही है, परंतु इसकी आपूर्ति न केवलसीमित है, बल्कि यह घट भी रही है । जल आपूर्ति में वनों के विनाश एवं पहाड़ियों में भू-राजस्व से काफी कमी आ रही है । भू-गर्भीय जल को बहुत नीचे से खींचकर कृषि एवं उद्योग में इस्तेमाल करने से इसके स्तर में कमी आ रहीं है भू-गर्भीय जल के खनन से भारत, चीन, पश्चिमी एशिया, रूस एवं अमेरिका के अनेक हिस्सों में जलस्तर में गिरावट आइंर् है । उपलब्ध जल में से ७० प्रतिशत का उपयोग खेती में होता है औद्योगिक कृषि मेंे तो और अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है । एक किलो अनाज के उत्पादन में ३ घनमीटर पानी लगता है । जबकि १ किलो गोमांस के लिए १५ घनमीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । क्योंकि गाय के लिए भी अन्न तो उपजाना ही पड़ता है । कई जगह सतह जल के प्रदूषित होने से वह भी मानव उपयोग हेतु उपयुक्त नही होता । यदि फिर भी इसका प्रयोग किया जाता है तो स्वास्थ्य संबंधी समस्याए खड़ी हो जाती है । विश्व में ५० प्रतिशत व्यक्ति जल जनित बीमारियों से मरते हैं । जलवायु परिवर्तन ने भी जल आपूर्ति को प्रभावित किया है । ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और भविष्य में वे दुर्लभ हो जाएंगे । उदाहरण के लिए देखें कि हिमालय के ग्लेशियर भारत, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया की अनेक नदियोें को जल उपलब्ध कराते है । चीन की एकेडमी ऑफ साइंस के याओ तानडोेंग का कहना है कि पठार क्षेत्र मे बडे़ पैमाने पर ग्लेशियर के सिकुडऩे से इस इलाके मेें वातावरणीय विप्लव आ जाएगा। लंदन से प्रकाशित गार्जियन ने यमन द्बारा पानी की अत्यधिक कमी का सामना करने पर लिखा है कि देश की राजधानी साना अ के बारे मेें अनुमान है कि सन् २०१७ से इस शहर को पानी उपलब्ध नहीं हो पाएंगा क्योंकि समीप बह रही नदी से प्रतिवर्ष इसमें आने वाले पानी से चार गुना ज्यादा निकाला जा रहा है । एक तो अकाल के कारण यमन के २१ जलग्रहण क्षेत्रोें में से १९ में जलभराव नही हुआ और इनसे पहले से स्थिति इतनी गंभीर है कि सरकार देश की राजधानी स्थानांतरित करने पर विचार कर रही है । पानी की कमी विवाद का कारण बनती जा रही है । खासकर तब जबकि पानी के स्त्रोत, जैसे बडी़ नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती हों । ऊपर के देश नीचे के बहने वाले पानी की मात्रा को नियंत्रित कर देते है । अफ्रीका में ५० नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती है । पापुलेशन रिपोर्ट के अनुसार नील, जाम्बेजी, नाइगर और वोल्टा नदी बेसिन में विवाद प्रारंभ हो चुके हैैं । इसी के साथ मध्य एशिया के अराल समुदी बेसिन मेें तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान और तजाकिस्तान के मध्य अतंरराष्ष्ट्रीय जल विवाद प्रारंभ हो गया है क्योेंकि ये सभी देश अमुदरिया और सीरदरिया नदियों के पानी पर ही जिंदा हैं । मध्यपूर्व में भी जल समाप्त हो रहा है । इस परिस्थिति में विवाद की संभावनाएं बढत़ी जा रही हैं । स्टीवन सोलोमन ने अपनी नई पुस्तक वाटर में नील नदी के जल संसाधनो को लेकर मिस्त्र एवं इथियोपिया के मध्य उपजे विवाद के बारे मेें लिखा है । वे लिखते है दुनिया के सबसे विस्फोटक राजनीतिक क्षेत्र जिसमेें इजराइल, फिलीस्तीन, जोर्डन एवं सीरिया शामिल है, मेें दुर्लभ जल संसाधनों के नियंत्रण एवं बटवारे के लिए बेचैनी है । क्योंकि यहां तो बहुत पहले सबके लिए शुद्ध जल अनुपलब्ध हो चुका था पश्चिमी अमेरिका मे भी ऐसे किसान जो अपनी फसलों की सिंचाई के लिए अतिरिक्त पानी चाहते है, को शहरी इलाकों के घरो एवं अन्य नगरीय क्षेत्रों मे पानी की बढत़ी मांग की वजह से विरोध सहना पड रहा है । भारत में भी कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश के मध्य कृष्णा नदी का जल दोनंांेंं प्रदेशोें के विवाद का कारण बना हुआ है । पानी के घटते स्त्रोतों के मध्य पानी का वितरण भी विवाद का विषय बन गया है । बारलो ने अपनी पुस्तक में पानी के निजीकरण की नीति की विवेचना की है । कुछ समय पूर्व तक पानी सरकारी प्राधिकारियोें के सीधे नियंत्रण मेें था । पश्चिमी देशों में सर्वप्रथम जल का निजीकरण हुआ और बाद मेें विश्व बैंक के ऋण एवं परियोजनाओं द्वारा इसे विकासशील देशों मेें भी फैला दिया गया । इससे लोगों की पानी तक पहुंच पर विपरीत प्रभाव पडा़ एवं इनके देशोें मेें नागरिक समूहों ने पानी को सार्वजनिक वस्तु एवं पानी को मानव अधिकार का दर्जा देने के लिए संघर्ष भी शुरू कर दिया है । उपरोक्त सभी विषयों को जलवायु परिर्वतन जितनी ही गंभीरता से लेना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसकी कमी मानवीय स्वास्थ्य एवं वैश्विक राजनीति दोनो को ही प्रभावित करेगी । सोलोमन का कहना है कि वैश्विक राजनीति फलक पर जिनके पास पानी है और जिनके पास नहीं है, के मध्य नया विस्फोटक क्षेत्र उभरा है । यह तेल समस्या की गंभीरता को भी पार कर चुका है । अत: पानी को एक समस्या के रूप मेें मान्यता मिलनी चाहिए तथा इसके निराकरण को वैश्विक एवं राष्ट्रीय एजेेंडे मेें सर्वाच्च स्थान मिलना चाहिए । ***जल ही जीवन है जल बचाये,जीवन बचाये ।
4 टिप्पणियां:
Good blog is this.
बहुत ही उम्दा जानकारी
धन्यवाद जी
Bahut accha lekh ....
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bhoot ki kahani
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