ऊर्जा जगत बिजली का संकट
एन. श्रीकुमार/शांतनु दीक्षित
जहां सरकारें व ऊर्जा क्षेत्र के अन्य किरदार बिजली के संकट से निपटने को लेकर सजग है, वहीं कई लोग इसे व्यापारिक लाभ कमाने का अवसर मान रहे हैं । दूसरी ओर, ग्रामीण बिजली सप्लाई उपेक्षित पड़ी है ।
पिछले सितंबर से ही मीडिया में बिजली संकट की खबरें बढ़ते क्रम में आ रही हैं । पिछले वर्ष सितंबर में बिजली की कमी १० प्रतिशत से बढ़कर ३० प्रतिशत तक पहुंच गई थी । देश भर में औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिदिन ८ से १४ घंटे तक की बिजली कटौती की गई । इसके अलावा, सप्तह में २-३ दिन बिजली अवकाश भी रखा गया । कोलकाता, हैदराबाद, बैंगलुरू जैसी प्रांतीय राजधानियों में २-४ घंटे की कटौती की गई । यहां तक कि दिल्ली को भी नहींे बख्शा गया ।
यह रिपोर्ट किया गया था कि देश के लगभग आधे ताप बिजली घरों में चंद दिनां का ही कोयले का स्टॉक बचा है जबकि आदर्श स्थिति में उनके पास कम से कम ३-४ सप्तह के लिए कोयला स्टॉक होना चाहिए । बिजली की कमी के बावजूद ऊर्जा व कोयला मंत्रियों ने ऐसे आश्वासन भरे वक्तव्य जारी किए थे कि दीवाली का त्यौहार भरपूर रोशनी के साथ मनाया जाएगा ।
अब कमी की स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है मगर आशंका है कि आने वाले दिनों में हालात फिर से बिगड़ जाएंगे । मीडिया रिपोर्टोंा से उन लोगों की प्राथमिकताएं उजागर होती हैं जो ऊर्जा क्षेत्र का संचालन करते हैं । पी. साईनाथ का मुहावरा उधार लें, तो लगता है कि सचमुच ऐसे लोग हैं जो एक मुकम्मल अभाव से प्रेम करते हैं ।
बिजली कटौती कोई नई चीज नहीं है । अलबत्ता, जिस चीज ने ध्यान आकर्षित किया है, वह है उद्योगों व शहरों पर उनका असर । कोयला उत्पादन करने वाली पूर्वी भारत में भारी बारिश को संकट का एक कारण बताया गया है । इसके अलावा, कोल इण्डिया में तीन दिन की हड़ताल, सिंगरेनी कोयला खदान में महीने भर की हड़ताल, कुछ बिजली घरों द्वारा कोल इण्डिया को भुगतान न किया जाना, कोयला खदानों के निजीकरण से उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि न हो पाना, आयातित कोयले की कीमतों में वृद्धि तथा ताप बिजली घरों का सालाना रख-रखाव वगैरह कारण भी गिनाए गए हैं ।
ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली सप्लाई औसतन छ: घंटे रहती है और ग्रामीण लोग जानते हैं कि बिजली कटौती के घंटे कोई खबर नहीं बनती । वास्तव में खबर तो यह बनती है कि गांवों मेंे कितनी घंटे बिजली चालू रही । ग्रामीण बिजली सप्लाई को आम तौर पर कृषि के लिए बिजली सप्लाई से जोड़ दिया जाता है । कृषि के लिए बिजली सप्लाई को रात या दोपहर ६-८ घंटे चालू रखा जाता है जब शहरों को बिजली की जरूरत नहीं होती । आंकड़े बताते हैं कि गांवो में हर पांच में दो घरों में बिजली कनेक्शन ही नहीं है ।
इन घरों को रोशनी न मिलने का एकमात्र कारण सप्लाई में कमी नहीं है । हालांकि पिछले एक दशक में बिजली उत्पादन में ६० प्रतिशत की वृद्धि हुई है, मगर ग्रामीण परिवारों तक बिजली की पहुंच मात्र १० प्रतिशत बढ़ी है ।
दिलचस्प बात यह है कि बिजली की यह कमी व्यापार के अवसर पैदा करती है । खास तौर से ऐसी चीजों का व्यापार जिनकी वास्तव में जरूरत हीं नहीं होनी चाहिए - इवर्टर्स, युपीएस इकाइयां, डीजल जनरेटर्स । सरकार डीजल पर सबसिडी देती है ताकि सार्वजनिक यातायात व माल ढुलाई का काम किफायती दरों पर हो सके मगर इस डीजल का उपयोग मॉल्स को जगमग करने, एयर कंडीशनर चलाने और मोबाइल टॉवर्स में होता है ।
इसके अलावा मुक्त बाजार के हिमायती दावा करते हैं कि सारी समस्या की जड़ तो यह है कि सरकार इस बाजार पर नियंत्रण करती है । बिजली क्षेत्र में निजी किरदारों की भूमिका बढ़ती जा रही है । वर्तमान अभाव के दौर में, बाजार में बिजली के मूल्य ८-११ रूपए प्रति यूनिट तक पहुंच गए, जबकि औसत मूल्य ३-४ रूपए प्रति यूनिट है । व्यापारिक बिजली संयंत्र, जो बाजार में बिजली बेचते हैं, को यह अभाव अत्यन्त सुहावना लगता है क्योंकि यह उन्हें मनमाना मुनाफा कमाने का अवसर देता है । खड़ी फसलों को बचाने या प्रमुख उद्योगों को चलाने के लिए बिजली की संकटकालीन खरीद के चलते बिजली के दाम दुगने हो गए हैं । कुछ लोग तत्काल फायदा उठाने के लिए बिजली घरों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने का जुगाड़ जमा रहे हैं, जैसे बंद कमरों में अनुबंध करना या पहले हो चुके अनुबंधों में संशोधन करना।
इससे १९९० के दशक की यादें ताजा हो जाती हैं, जब निजी बिजली निर्माताआें को यह कहकर बढ़ावा दिया गया था कि महंगी से महंगी बिजली भी न होने से तो बेहतर है । कहने का आशय यह था कि बिजली उपलब्ध न होने का विकल्प बिजली उत्पादन के किसी भी विकल्प से महंगा साबित होगा, लिहाजा बिजली उत्पादन क्षमता में किसी भी कीमत पर इजाफा किया जाना चाहिए ।
यहां दो मुद्दे महत्वपूर्ण हैं । पहला, तुरत-फुरत समाधान लागू करने में सावधानी बरतनी होगी । क्योंकि ऐसे तुरत-फुरत समाधानों के परिणाम ऐसे हो सकते हैं जिन्हें पलटना शायद संभव न हो और ये अपने आप में ज्यादा बड़ी समस्याएं बन जाएं । हमारा देश एक गरीब देश है, जो महंगी गलतियां वहन नहीं कर सकता । एनरॉन की घोर असफलता इसकी एक मिसाल है । आम लोग आज भी इसका खामियाजा भुगत रहे हैं क्योंकि एनरॉन की बिजली निहायत महंगी साबित हुई थी।
वर्तमान संकट की जड़े बिजली व कोयला क्षेत्र में प्रशासन के संकट में हैं । वैसे तो इन समस्याआें को कोई तुरत-फुरत समाधान नहीं हो सकता मगर कुछ उपाय किए जा सकते हैं जिनके दूरगामी परिणाम होंगे । इनमें दीर्घावधि नियोजन, ऊर्जा-क्षति को कम करना, उपभोक्ताआें के स्तर पर कार्यक्षमता में वृद्धि, ग्रामीण पहुंच कार्यक्रम को सृदृढ़ करना और नियामक प्रक्रियाआें की मदद से बिजली व कोयला क्षेत्र में प्रशासन को बेहतर बनाना शामिल हैं । खास तौर से एक कोयला नियामक संस्था गठित करने की जरूरत है । बिजली नियामक आयोगों को चाहिए कि वे जन सुनवाइयां आयोजित करें ताकि संकट के कारण खोजे जा सकें और सुधार के उपायों की योजना बनाई जा सके ।
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