सोमवार, 14 मई 2012

कविता  
कितना अच्छा लगता
प्रेम वल्लभ पुरोहित  राही

वन उपवन डाल-डाल की अम्बार
पंक्षी कलरव गीत मधुरतम
मन को पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
धमा-चौकड़ी जीव-जीवन संग
डाल-पात का धरा चूमना
गाते संग-संग गीत गुनगुन
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
नदियां कलकल, निर्झर-झरने
गंूज - भरी गहरी घाटी-घाटी
घटा घनघोर सतरंगी धनुष तनी
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
पात-पात के स्वर हैं अनेक
शब्द-शब्द संगीत का राग छिड़ा
वन्य जीवों का जमघट लगा
एकता का बहुरंग स्वर भरा
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।
कलियों-फूलों का हंस-हंस झूमना
बार अनेक बार माटी को चूमना
सजी-धजी गहनों से धरती
लगती श्रृगांर रची नवेली दुल्हन
हम भी ऐसा कुछ कर दिखलाएें
विरान धरती का श्रृंगार सजायें
शीतल पवन मन्द-मन्द सौरभ
सजेगा फल-फूलों का उपवन
मन से पूछो ! कितना अच्छा लगता ।

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