सोमवार, 14 मई 2012

ज्ञान विज्ञान
डिसेक्शन में पेपर मेशे मॉडल का इस्तेमाल

    हाल ही में विश्वविघालय, अनुदान आयोग ने स्कूल-कॉलेजों में जंतुआें के डिसेक्शन पर रोक लगा दी है । इसके एवज में आयोग ने कम्प्यूटर मॉडल्स वगैरह के उपयोग का सुझाव दिया है । मगर इतिहास में झांकें तो करीब २०० वर्ष पहले फ्रांस में मानव शव विच्छेदन के लिए कागज की लुगदी से बने मॉडल्स का इस्तेमाल किया गया था । ऐसा एक मॉडल ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न संग्रहालय में मौजूद है । 

 

    दरअसल, इस मॉडल का निर्माण १८४० के आसपास एक फ्रांसीसी चिकित्सक व शारीरिकी विशेषज्ञ लुई थॉमस जेरोम औजू ने किया था । औजू जब चिकित्सा के छात्र थे, तब उन्हें उस समय उपलब्ध घटिया डिसेक्शन मॉडल्स की वजह से काफी दिक्कतें हुई थी और इस काम के लिए मृत मानव देह भी आसानी से नहीं मिल पाती थी । मोम के मॉडल्स जल्दी ही खराब हो जाते थे । लिहाजा उन्होंने कागज और लेई के साथ प्रयोग करना शुरू किया ।
    सन् १८२२ में अपनी चिकित्सा शिक्षा पूरी करते-करते औजू ने ऐसा पहला शारीरिक मॉडल तैयार कर लिया था । इसे पेरिस एकेडमी ऑफ मेडिसिन ने एक महान सफलता निरूपित किया था । पांच साल बाद औजू ने ऐसे मॉडल्स का कारखाना डाल दिया था ।
    ये मॉडल्स कागज की लुगदी (पेपर मेशे) से बनाए गए थे । इनमें बारीक शिराएं बनाने के लिए तार पर लिनेन लपेटा गया था और मोटी धमनियां व शिराएं सन से बनाई गई थी । विभिन्न अंग तो कागज की लुगदी से बने ही थे । पेपर मेशे के ऊपर प्लास्टर का एक अस्तर चढ़ाया गया है ताकि मॉडल मजबूत बन सके । इसके ऊपर अंडे की जर्दी में रंगीन पदार्थ मिलाकर पेटिंग की गई  थी । यह मॉडल ऐसा था कि इसे चरण दरचरण खोलकर अध्ययन किया जा सकता था । इसे बनाने की तकनीक का विस्तृत विवरण वर्ष २००० में क्यूबेक विश्वविघालय के  रेजिस ओर्ली ने प्रकाशित किया था ।
    कई शारीरिक विशेषज्ञों का कहना है कि इस मॉडल में अनुपात की दृष्टि से कुछ दिक्कतें हैं, मगर सारे अंग अपनी-अपनी सही जगह पर लगे हैं । सभी मानते हैं कि यह अपना शैक्षणिक उद्देश्य भलीभांति पूरा करता होगा । कम से कम यह उन लोगों के लिए तो बहुत उपयोगी होगा, जिन्होंने कभी मानव शरीर के अंदर झांका नहीं है ।
    फिलहाल दुनिया भर में ऐसे मात्र १०० मॉडल्स उपलब्ध हैं । इनमें से भी अधिकांश पुरूष शरीर के मॉडल्स हैं । स्त्री मॉडल्स कम होने का कारण यह माना जाता है कि शायद उस समय स्त्री शरीर को निर्वस्त्र अवस्था में प्रस्तुत करना उचित नहीं माना जाता होगा । कुछ लोगों का मत है कि उस समय शायद चिकित्सा विज्ञान की ज्यादा रूचि भी स्त्रियोंं की शरीर रचना या शरीर क्रिया वगैरह में नहीं थी ।
    जैसे भी हो, मगर इतना तो कहना ही होगा कि यह एक जबर्दस्त काम था और आज इसे दोहराने की जरूरत भी है और शायद आज यह कहीं अधिक आसान भी होगा क्योंकि तमाम किस्म के अन्य उपयुक्त पदार्थ उपलब्ध है ।
बुरा वक्त पेड़-पौधों को भी याद रहता है

    वैज्ञानिकों ने वनस्पतियों के ऐसे व्यवहार के बारे मेंपता लगाया है, जिससे कम पानी या सूखा पड़ने की स्थिति में वे जिंदा रह सकते हैं । यदि यह शोध सफल रहता है, तो वैज्ञानिक भविष्य में फसलों की ऐसी प्रजाति विकसित कर सकते हैं, जो सूखे की स्थिति में भी अधिक उत्पादन देंगी । 

    इंसान को अपना बुरा वक्त तो हमेशा ही याद रहता है, लेकिन पेड़-पौधे भी अपने बुरे समय को याद रखते हैं । एक नए अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पेड़-पौधों की याददाश्त बहुत तेज होती है । जब कभी सूखा पड़ता है और उनकी स्थिति खराब होती है तो यह घटना पेड़-पौधे सबसे ज्यादा याद रखते हैं । पहले कई बार हुए अध्ययन यह बताते थे लेकिन अमेरिका की युनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का के वनस्पति वैज्ञानिकों की टीम के प्रमुख माइकल फॉर्म ने बताया कि सरसों के पौधों पर अनुसंधान किया गया । ऑनलाइन जर्नल नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताआें आण्विक जीव विज्ञानी जोया अवरामोवा और ये आेंग डिंग की टीम ने पौधों को अलग-अलग माहौल दिया । पहले पौधे को अधिक मात्रा में पानी दिया गया, जबकि दूसरे को वंचित रखा गया । सूखे की मार झेलने वाले पौधों ने अपना रंग खो दिया । बाद में पुन: वैज्ञानिकों ने प्रयोग को दोहराया तो सूखाग्रस्त पौधे ने देरी से निर्जलीकरण किया और खराब परिस्थिति में भी अपने को जिंदा बनाए रखा ।
    जब कभी वातावरण में पानी की कमी होती है, तो पौधे तेजी से जल का उपयोग करते हैं । उनके द्वारा पानी ज्यादा मात्रा में सोखा जाता है । जड़ों के माध्यम से एकत्र पानी वातावरण सोख लेता है । ऐसे में पौधे सूखे से दिखने लगते हैं । यदि पानी अधिक मात्रा में हो तो पौधों को इससे नुकसान भी नहीं पहुंचता  है ।
    यह खोज कृषि इंजीनियरिंग के लिए बहुत लाभदायक हो सकती है, क्योंकि इससे पानी की कमी के बावजूद भी फसल उत्पादन प्रभावित नहीं होगी । यह भी उल्लेखनीय है लोगों में यह धारण प्रचलित है कि पौधों में भी भले-बुरे दौर की याद रहती है, लेकिन वैज्ञानिक तौर पर इस ओर बहुत कम काम हुआ है ।
कम्प्यूटरों में क्रांति लाएगा छोटा सा क्रिस्टल
    वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होेंने एक ऐसा छोटा क्रिस्टल बनाया है, जो कि क्वांटम कंप्यूटिंग को अगले स्तर तक ले जाएंगा । इससे विश्व के अब तक के सबसे शक्तिशाली कम्प्यूटर विकसित किए जा सकेगे ।
    अंतरराष्ट्रीय समूह की अध्यक्षता करने वाले माइकल बेर्कुक ने सिडनी विश्वविद्यालय में कहा कि मात्र ३०० परमाणुआें से बने क्रिस्टल के कम्प्यूटर तकनीक में इस्तेमाल से इस तकनीक में एक बड़ा अंतर आया है । जो सिस्टम हमने विकसित किया है, उसमें उन बड़ी-बड़ी गणनाआें को भी करने की क्षमता है, जिसके लिए पहले सुपर कंप्यूटर की जरूरत होती थी । इन गणनाआें को वह एक मिलीमीटर से भी कम व्यास की जगह में कर देता     है । शोधकर्ता बेर्कुक कहते है कि प्राकृतिक पदार्थो की ऐसी विशेषताएं जो कि क्वांटम यांत्रिकी के नियमों से संचालित होती है, उन्हें पारंपरिक कम्प्यूटर के माध्यम से मापना काफी मुश्किल है । क्वांटम सिम्यूलेशन का मूल यह है कि एक क्वांटम सिस्टम बनाया जाए, जिससे कि दूसरे प्राकृतिक भौतिक तंत्रों को समझा जा सके । इस शोध के नतीजों को नेचर  पत्रिका में प्रकाशित किया गया है । 
      क्वांटम तकनीक के इस नए प्रोेजेक्ट की प्रदर्शन क्षमता फिलहाल किसी सुपर कम्प्यूटर की अधिकतम क्षमता से भी कई गुना अधिक है । इस आविष्कार ने क्वांटम सिम्यूलेटरों में काम करने वाले तत्वों की अधिकतम संख्या का पिछला रिकॉर्ड तोड़ दिया है । इसलिए इसके जरिए ज्यादा से ज्यादा जटिल समस्याआें को भी हल किया जा सकता है । इस टीम में अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टेड्र्डर्स एंड टेक्नोलॉजी, वाशिंगटन स्थित जार्जटाउन विश्वविद्यालय, उत्तरी कैरोलिना राज्य विश्वविद्यालय और दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिक एवं औघोगिक शोध के लिए बनी परिषद के वैज्ञानिक शामिल थे । इन्होने मिलकर क्वांटम सिम्यूलेटर नामक क्वांटम कम्प्यूटर बनाया है ।

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