सोमवार, 14 मई 2012

सामयिक
डीजल : धनतंत्र का इंर्धन
सोपान जोशी

    डीजल हमारे यहां पेट्रोल की तुलना में चौथाई या तिहाई हिस्सा सस्ता बिकता है । पेट्रोल पर आबकारी कर डीजल की तुलना में सात गुणा रखती है सरकार । डीजल को सस्ता रखा जाता है किसानों के लिए, जिन्हें सिंचाई के लिए पंपसेट चलाने होते है और जमीन जोतने के लिए ट्रेक्टर । फिर हर तरह की रसद की ढुलाई ट्रकों से होती है, जो डीजल से ही चलते हैं । इस इंर्धन की कीमत बढ़ने से महंगाई एकदम बढ़ती है । इसलिए सरकार डीजल सस्ता रखती है ।
    किसानों को दी इस रियायत का मजा उठाते हैं डीजल गाड़ियां चलाने वाले । चूंकि डीजल पेट्रोल की तुलना में कहीं सस्ता पड़ता है, इसलिए हमारे सहां लगभग सारी टैक्सियां डीजल से चलती हैं । गाड़ी बनाने वाली कई कंपनियां केवल डीजल की ही गाड़िया बनाती है ।
    पिछले कुछ सालों में डीजल की ही बड़ी और आलीशान गड़ियां बिकने लगी हैं । ये विलासिता और वाहन चलाने में सस्ते पड़ते हैं क्योंकि ये तो किसानों के लिए सस्ते रखे इंर्धन पर चलते हैं । महंगी गाड़ियों में पेट्रोल की जगह डलने वाले हर एक लीटर डीजल से सरकार को सात गुणा नुकसान होता है ओर यह घाटा सरकार गरीब किसानों के लिए नहीं, अमीरों की विलासिता के एवज में उठाती हैं ।   
    कई साल से बहस चल रही है कि इस अन्याय को कैसेरोका जाए । सरकार की मुश्किल यह है कि अगर वह डीजल पी जाने वाले इन अमीरों के लिए डीजल के दाम बढ़ाए तो उसकी गाज किसानों और ट्रक वालों पर भी गिरेगी । इसीलिए इतने साल से डीजल की इस आफत को सरकार ने जस का तस छोड़ रखा है ।
    लेकिन दो साल पहले योजना आयोग के किरीट पारिख ने एक सुझाव रखा था । उन्होंने कहा कि डीजल की कारों पर सीधे ८१००० रूपए का अतिरिक्त आबकारी कर  खरीद के समय ही लगा देना चाहिए ।
    संसद का बजट सत्र चल रहा चुका है । इस बार पेट्रोल मंत्रालय ने श्री पारीख का सुझाव बढ़ा दिया है । अब सरकार को तय करना होगा कि उसकी मंशा क्या है । आसान नहीं होगा यह । कार बनाने नाली कई बड़ी कंपनियों के मुनाफे  डीजल गाड़ियों की बिक्री पर निर्भर हैं और ये कंपनियां बहुत ताकतवर हैं । ये साम-दाम-दंड-भेद, हर एक उपाय ढूंढेगी इस अतिरिक्त कर को रोकने के लिए । क्योंकि अगर यह कर आ गया तो डीजल गाड़ियों की बिक्री कम हो जाएगी ।
    हाल ही में कार कंपनियों ने एक वैज्ञानिक सर्वे के मार्फत ही यह बतलाना चाहा है कि कारों में डीजल की खपत बहुत ही कम है । सर्वे की आलोचना भी हुई और कुछ जानकारों ने तो उसे फरेब ही बताया है ।
    कंपनियों ने पहले ही कह दिया है कि कारें भारी उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आती है । इसलिए उन पर कर लगाने का अधिकार पेट्रोलियम मंत्रालय को है ही नहीं । उनका यह भी कहना है कि  डीजल से चलने वाले जनरेटर भी विलासिता के साधन हैं। तो फिर उनकी बिक्री पर अतिरिक्त कर क्यों नहीं हो ? अब तो खुद योजना आयोग के श्री पारिख अपने सुझाव से पीछे हट गए हैं । किस दबाव में ये हुआ कहना मुश्किल है । कारें हमारे यहां नई समृद्धि का प्रतीक बन चुकी हैं और आर्थिक विकास की तोता रटंत में लगा हमारे समाज का ताकतवर वर्ग कारों की रफ्तार में ही अपनी सद्गगति देखता है । अब वित्त मंत्रालय को तय करना है कि वह इस समृद्धि के एवज में कितना घाटा उठाने को तैयार है ।
    इस प्रकरण में हम सबके लिए कई सबक हैं । एक तो यह कि एक झूठ को छुपाने के लिए कई झूठ बोलने पड़ते हैं । यह सब जानते हैं कि हमारे यहां के साधारण किसान पंपसेट और ट्रेक्टर इस्तेमाल नहीं करते । ज्यादा करके ये सुविधाएं अमीर किसानों के पास ही होती हैं । देश के भूजल का जिस तेजी से विनाश हो रहा है, उसमें डीजल पंपसेट का योगदान अमूल्य रहा है । पर इससे एक तेज गति की अमीरी कुछ किसानों में दिखती है, जिसे हर सरकार ग्रामीण विकास की पराकाष्ठा मान लेती है ।
    अगर सरकार गरीब किसानों का सोचती तो उसे उन जलस्त्रोतों के बारे में भी सोचना पड़ता, जिन्हें सरकार की भागीदारी से बर्बाद किया गया है । उन बैलों के बारे में सोचना पड़ेगा जो हजारों पीढ़ियों से हमारी जमीन जोतते आ रहे हैं और शायद पेट्रोलियम के भंडार खत्म होने पर वापिस याद किए जाएं । ये बैल की वो नायाब नस्लें हैं, जो कई सौ साल की साधना से तैयार की गई थी और जिन्हें सरकार के अनुवंश सुधार कार्यक्रमों ने छितरा दिया है । पर यह सब करना हो तो सरकार को अपने लोगों से उनकी भाषा में बात करनी पड़ेगी ।
    पर डीजल गाड़ियों को रोकने का एक और बहुत बड़ा कारण है । चाहे वह पेट्रोल हो या प्राकृतिक गैस, हर ईधन के धुंए से प्रदूषण होता है । पर केवल डीजल के धुंए में ही ऐसे सूक्ष्मकण होते हैं, जिनसे कैंसर होता है और इन कणों का स्वभाव भी विचित्र है । ट्रकों से निकलने वाले काले धुंए में जो कण होते हैं,उन्हें हमारा शरीर श्वास नली के ऊपर ही रोक लेता है । लेकिन डीजल की आधुनिक गाड़ियां से जो अदृश्य धुंआ निकलता है, उसमें कैंसर करने वाले कण बहुत ही छोटे होते हैंं। ये सीधे हमारे फेफड़े तक जाते हैं ।
    इसलिए उच्च्तम न्यायालय ने दिल्ली की सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन से डीजल हटवाया था । लेकिन आज यह डीजल और कैंसर से लैस इसके कण हमारी छाती में बहुत महंगी और आलीशान गाड़ियों के सौजन्य से जा रहे हैं । सोचे तो कुछ धंुआ तो हमारी अकल पर भी पड़ा है ।

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