सोमवार, 14 मई 2012

विशेष लेख
क्या है, जंगल की परिभाषा ?
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    पेड़ रूद्र रूप होते हैं । पेड़ों के आसपास ईश्वरीय चेतना से तरंगित भाव रहता है । भारत की ऋषि संस्कृति पेड़ों को पूजती रही है । वृक्षों में देवत्व के अधिष्ठान की अवधारणा ने उन्हें मनुष्य से भी ऊँचा स्थान प्रदान किया है । वृक्षों की पूजा से सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। ग्रथों में वृक्षों को लोकदेवता की मान्यता दी गई है । ऐसे जीवनाधारी सभी छोटे बड़े पेड़-पौधे, सघनता से एवं सामूहिकता से विशेष भू-क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगते है । ऐसे प्राकृतिक जंगल में उगी हुई वनस्पति प्रजातियों का निर्धारण उस स्थान विशेष की पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार प्रकृति ही करती है तथा यह जंगल तमाम प्रकार के जीव जन्तुआें, पशु पक्षियों को जीवनाधारी तंत्र प्रदान करते हैं ।
    प्रश्न यह है कि आज कितने सघन वन जिंदा है । हास्यासाद स्थिति यह है कि वन मंत्रालय को ही नहीं पता कि वन क्या हैं  ? यह छोटा सा एवं सीधा सा सवाल एक आर.टी.आई. आवेदन से उभरा है । मुम्बई में रहने वाले अजय मराठे ने सूचना के अधिकार के तहत वन मंत्रालय से वनों के बारे में राज्यवार और क्षेत्रवार तुलनात्मक जानकारी देने के लिए कहा था ताकि पिछले दशक में वन क्षेत्र में वृद्धि के बारे में प्रमाण मिल सके । श्री मराठे ने कहा कि यह हैरान करने वाली बात है कि ३० मार्च २०११को अपडेट की गई वनों की कटाई और उत्सर्जन घटाने संबंधित रिपोर्ट में मंत्रालय ने दर्शाया है कि देश में ३० लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र पिछले दशक में बढ़ा है ।
    ताज्जुब की बात यह है कि मंत्रालय ने जंगल की अभिवृद्धि का दावा तब किया है जबकि देश का शायद ही कोई हिस्सा बचा हो जहाँ सरसब्ज पेड़ोें का कटान न हुआ हो । कल कारखानों की वृद्धि और विकास, खाद्य उत्पान हेतु कृष्यि भूमि का विकास तथा यातायात साधनों को बढ़ाने हेतु सड़क निर्माण में पेड़ों का ही तो कत्ल हुआ है । धरती पर संसाधनों के दोहन में जंगलों को जमीन घेरने वाला समझते हुए बेरहमी से वृक्ष विनाश हुआ । जंगलों के सफाये को न धरती सह पा रही है और न ही आबो हवा । नतीजा हमारे सामने है । अत: शंका उठना स्वभाविक है कि सरकारी रिपोर्ट में वनों की परिभाषा क्या है ? किस आधार पर मत्रंालय वन क्षेत्र बढ़ने का दावा कर रहा है तथा वनों की गुणवत्ता क्या है । ?
    जंगल ही तो हमें हरियाला वैभव प्रदान करते है । जंगल ही हरित सम्पदा के सिरजनहार होते है । वन प्रांतरो में जैव विविधता रहती है । हमारी धरती का हरित परिधान ही प्राणिधान है । हरित परिधान से ही प्रकृति प्राणवान है । वन वीथिकाएं ही हमारे अतीत, वर्तमान एवं भविष्य की प्रस्तावक है । हरियाली से ही ऊर्जा का संचार होता है । हरियाली ही तो पोषण का आधार होती है । वन प्रांतर ही धरती के फेफड़े सरीखे है जो शिवमयी बन कर विषपान करते हैं । वृक्षधरा के भूषण हैं जो करते दूर प्रदूषण हैं । ऐसे जंगलों का हम ही तो विनाश करते है जबकि हमारे मन में जीवन उगाने की तथा जीवन को सरसब्ज करने की कुदरती चाह होनी चाहिए । जब किसी बीज से हमारा आत्मिक संवाद बनता है तो बीज अंकुरित होने को मचल उठता है । नमी पाकर अंकुर फूटता    है । जीवन की कशिश और कोशिश में वह पेड़ बन जाता है । हरे पन की चाहत ही हरापन लाती है । और यही जंगल की थाती है ।
    प्रश्न यह है कि और कितना लूटेंगे हम अपने अस्तित्व के प्रणेता, प्राणवान मुद मंगलदाता जंगलों को ? आज पेड़ क्यों बदहवास है ? क्यों टूट रहा उनका विश्वास है ? विकास की नजरों से बचे हुए मानवीय बस्तियों के बीच, कहीं दुबके हुए से, धूल धूसरित पेड़ों के पत्ते मानो सवाल करते हो कि आखिर कब तक बचेगा यह अंतिम पेड़ जो सड़क चौड़ीकरण के नाम पर काट डाला जायेगा निर्ममता से ।
    दरअसल सरकार जिन भ्रामक आँकड़ों के सहारे वनीकरण एवं वृक्षारोपण का दावा करती है वह वन की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आते है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ युकेलिप्टिस तथा पॉपलर के सहारे अपना बाजार सजाते हैं । कागज एवं प्लायवुड हेतु पेड़ों के पल्प की दरकार उन्हें होती है और वह किसानों से अनुबंध करके कृष्य भूमि में उन्हेंे उगाते है यह त्वरित वृद्धि प्रजाति पेड़ कुछ ही वर्षो में भूमि की उर्वरता तथा नमी को चाट जाते हैं जिससे वह भूमि बंजर और बेजान हो जाती है ।
    क्या हमने पेड़ों के दर्द को जाना है ? आखिर कब तक झूठे आँकड़ों की आड़ में भरमाते रहेंगे अपने मन को ? क्या हमने कभी इतना संवेदनशील होने का प्रयास किया है कि क्या कहती होगी पेड़ की संवेदना, जबकि हम काट देते हैं और टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं उसके सरसब्ज तन को ? प्रश्न-प्रति प्रश्न है जो जवाब चाहते हैं ं याद रखें पीढ़ियाँ चुकती रहेंगी और चुपचाप कटते रहेगे हमारे जंगल और उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी छाया की तलाश में भटकते हुआें को ।
    आदि मानव जंगली था जंगल में रहता और पलता-बढ़ता था । सभ्यता के विकास के साथ मानव ने आरण्यक संस्कृति को अपनाया और मनुष्य कहलाया उसने मानवीय चेतना के उत्सव को पाया । तभी तो हमने जंगल को अपना जीवन प्राण बताया । वन जीवित वस्तुआें या एक समुदाय है जिसके सदस्य विभिन्न प्रजातियों के छोटे-बड़े वृक्ष, झाड़ियों, घास, कन्द-मूल पशु पक्षी और कीड़े-मकोड़े होते     है । धरती पर जब मानव जन्मा तो माँ की गोद के बाद वृक्ष ने ही उसे आसरा दिया और अपने कन्दमूल फलों से उसे पोषित किया । विकास के साथ-साथ आदमी का रिश्ता जंगलों एवं पेड़ों से बदलता गया । हमें पुराने रिश्ते के मर्म को जानना है ।
    आसन्न प्रश्न यह है कि क्या अब तक हमने यह जाना कि हमारे अस्तित्व के नियामक हमारे जंगल है । जंगल ही बादलों को आकर्षित करते है जिससे बादल बरसकर हमारी धरती को सरसाते हैं । जंगल से ही पर्वतों में हिमनद रूकता है । जंगल में ही नदियों का उद्गम होता है । नदियों एवं सघन वनों का गहरा नाता है । जंगल से ही हर जीवन तादात्म बनाता है । वन हमारे प्राण है । जीव और वन मिलकर जीवन का आधार     हैं । वन ही हमारे अमूल्य संसाधन और धरोहर के सहकार है । वन ही सर्वागीण विकास के प्रस्तोता है तथा आध्यात्मिक चेतना के स्त्रोत है । दुर्लभ जैव विविधता जंगलों में ही सुरक्षित है । मनीषियों के कथनानुसार प्रकृति के दंड से बचने का एक ही उपाय है कि वृक्ष वनस्पतियों के प्रति जो धन्यवाद और विनम्र पुरूषार्थ का भाव है उसे चरितार्थ किया जाये । जंगल के साथ जीवन को कृतार्थ किया जाये । ताकि हम कह सके पत्ता-पत्ता बयाँ कर रहा जंगल की परिभाषा, वृक्ष हमारे जीवन प्राण और हमारी आशा ।

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