सोमवार, 14 मई 2012

पर्यावरण परिक्रमा
ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते तापमान बढ़ेगा

    ग्लोबल वॉर्मिंग और बदलते मौसम का देश के पर्यावरण पर खतरनाक असर होने वाला है । एक चौंकाने वाली रिपोर्ट में कहा गया है कि २०२० तक राजस्थान और गुजरात में कच्छ के कई इलाकों का तापमान ४ डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जाएगा और यही हाल जारी रहा तो २०८० तक पूरे देश के तापमान में ४ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो सकती है । ऐसा कहा गया है कि १९७१-२००७ के बीच हर दशक में ०.२ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी दर्ज की गई है जबकि पिछले १०० सालों में तापमान में १.२ डिग्री की ही बढ़ोतरी हुई थी ।
    रिपोर्ट में देश में ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन पर चिंता जाहिर की गई है । ऐसी संभावना जताई गई है कि कुल मॉनसूनी बारिश की मात्रा में ९-१६ फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी । यह भी कहा जा रहा है कि २०५० तक देश के ज्यादातर इलाकों के रात का तापमान ४.५ डिग्री तक बढ़ सकता है । ग्रीन हाउस गैसों का पानी की उपलब्धता पर प्रभाव के मुद्दे पर किए  गए  अलग-अलग अध्ययनों से साफ हो गया है कि इसका नदियों के जल स्तर पर खराब असर पड़ रहा है ।
    रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा के चलते बरसात के दिनों की संख्या घटेगी लेकिन पानी ज्यादा    बरसेगा । इससे पूरे देश में ज्यादा नुकसान पहुंचेगा । दिन के  अधिकतम और न्यूनतम तापमान में भी बढ़ोतरी होगी ।
    सरकारी अनुमान के मुताबिक कावेरी, माही, साबरमती, साऊ और लूनी, ताप्ती, नर्मदा जैसी नदियों में पानी का स्तर और देश के सभी भाग में भूजल स्तर घट रहा है ।
रेतीली जमीन पर अकेले इंसान ने बसाया जंगल
    एक व्यक्ति ने असम के जोरहट में ब्रह्मपुत्र नदी के बीचों बीच रेतीली भूमि पर एक घना जंगल बसाया है । इस काम ने सरकार, पर्यटकों और फिल्मकारों का ध्यान आकर्षित किया है । जादव पायेंग नाम के इस व्यक्ति को लोग मुलई नाम से बुलाते हैं ।
    मुलई ने ३० सालों तक ५५० हेक्टेयर के क्षेत्र में जंगल उगाने के लिए काम किया । असम वन विभाग ने उनके इस काम को अनुकरणीय बताया है । मुलई ने १९८० में इस जंगल के लिए काम करना शुरू किया था जब गोलाघाट जिले के सामाजिक वानिकी प्रभाग ने अरूणा चपोरी इलाके में २०० हेक्टेयर भूमि पर पौधरोपण की एक योजना शुरू की थी । अरूणा चपोरी जोरहट जिले के कोकिलामुख से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । वन के सहायक संरक्षक गुनिन सैकिया जो अब शिवसाग जिले में कार्यरत हैं, ने कहा कि मुलई हमारी परियोजना के अन्तर्गत काम करने वाले मजदूरों में से एक था ।
    मुलई ने कहा कि अधिकारी घने और विशाल जंगल को देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं । मुलई ने कहा कि अगर वन विभाग मुझसे जंगल की सही देखभाल का वादा करता है, तो मैं राज्य के दूसरे हिस्सों को भी हरा भरा  करूंगा ।
    अब इस जगह ने केवल पर्यटक जुट रहे है, बल्कि एक प्रसिद्ध ब्रिटिश फिल्मकार टॉम रॉबर्ट ने पिछले साल यहां अपनी एक फिल्म की शूटिंग भी की । असमी भाषा में मुलई कथोनी या मुलई जंगल के रूप मेंजाने वाले इस जंगल में चार बाघ, तीन गैडे, सौ हिरण, लंगूर, खरगौश और चिड़ियों की कई प्रजातियां है । यहां वालकोल, अर्जुन, इजर, गुलमोहर आदि के पेड़ पाए जाते है । यहां ३०० हेक्टेयर भूमि में बांस के पेड़ भी  है ।
क्या मानसरोवर है, गंगा का उद्गम
    गंगा नदी का उद्गम गोमुख नहीं, बल्कि कैलास मानसरोवर है । कैलास मानसरोवर के नीचे कई झरने हैं, जिनका पानी पहाड़ों के नीचे होते हुए गोमुख तक पहुंचता है । इसी स्त्रोत से होता है गंगा नदी का जन्म ।
    इस बात का रहस्योद्घाटन जेएनयू में विज्ञान नीति के प्रोफेसर रहे  धीरेन्द्र शर्मा के अध्ययन में हुआ । उनके अध्ययन के आधार पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेसिंग (आइआइआरएस) ने मानसरोवर व गोमुख के बीच पानी के जुड़ाव की मैपिंग भी की । गंगा के नए उद्गम की रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी गई है ।
    प्रोेफेसर धीरेन्द्र शर्मा के मुताबिक, कुछ साल पहले गंगोत्री तक बर्फ थी, जिससे लोग गोमुख नहीं पहुंच पाते थे । अब गोमुख के आसपास पहुंचा जा सकता है । गोमुख को देखने पर यह तो लगता है कि गंगा का पानी वहां से बाहर आ रहा है । मगर, वैज्ञानिक आधार पर इस मामले में कई सवाल  थे । इनका जवाब तलाशने के लिए प्रोफेसर शर्मा ने गोमुख क्षेत्र का गहन अध्ययन किया । जिस तरह से गोमुख की चट्टानों से पानी निकल रहा था, उससे आभास हुआ कि इसका स्त्रोत कही और ही है ।
    उन्होनें निष्कर्ष निकाला कि गंगा का स्त्रोत मानसरोवर से जुड़ा हो सकता है । इसके बाद आइआइ आरएस ने पूरे क्षेत्र का भूगर्भीय नक्शा तैयार किया । इससे साफ हो गया है कि करीब ६५ मील लंबी कैलास मानसरोवर झील के नीचे २०० के आसपास झरने है, जिनका पानी चट्टानों के नीचे से होते हुए गोमुख में निकल रहा है । प्रोफेसर शर्मा ने बताया कि गोमुख सिर्फ गंगा का मुख है ।
    गंगा का मुख्य उद्गम कैलास मानसरोवर के नीचे के झरने है । नए अध्ययन की रिपोर्ट वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के साथ योजना आयोग को भी भेजी गई है । 
नदियों का गंदा पानी बुझाएगा प्यास
    देश में जल संकट गहराता जा रहा है । उ.प्र. में १३८ ब्लॉकों में भूजल स्तर सामान्य से नीचे चला गया है । उद्योगों से निकलने वाले रसायन युक्त पानी और कूड़े-कचरे से नदियों का जल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है । इसके निदान के लिए यूरोपिय देशों की तर्ज पर भारत में भी नदियों के जल का प्राकृतिक ढंग से ट्रीटमेंट कर इसे पीने योग्य बनाया जाएगा ।
    इसके लिए राष्ट्रीय जल विज्ञान  संस्थान, रूड़की की ओर से शोध शुरू किया गया है । यूरोपियन कमीशन के सहयोग से शुरू किए गए प्रोजेक्ट का नाम साफ-पानी रखा गया है । इसके लिए ३१ करोड़ रूपए जारी भी हो चुके है ।
    शोध के लिए दिल्ली में यमुना नदी सहित तीन नदियों और एक झील को चुना गया है । प्रोजेक्ट को अगले तीन साल में पूरा किया जाएगा । प्रोजेक्ट के लिए भारत समेत आठ देशों के २० संस्थानों का सहयोग लिया जा रहा है । इनमें राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की भी शामिल है । शोध के लिए दिल्ली में यमुना नदी के अलावा अलकनंदा (श्रीनगर), नैनी झील (नैनीताल) और गंगा (हरिद्वार) प्रोजेक्ट में शामिल है । साफ पानी प्रोजेक्ट के तहत रिवर बैंक फिल्ट्रेशन (आरबीएफ) सिस्टम से नदियों के जल को प्राकृतिक ढंग से उपचारित किया जाएगा ।
    रिवर बैंक फिल्ट्रेशन सिस्टम में नदियों के किनारों पर वॉटर टैंक बनाए जाएंगे । इससे नदियों से जल रिसकर टैकों में भर जाएगा । नदी के जल में जितना भी प्रदूषण होगा, वह उसके किनारों की मिट्टी पर रूक जाएगा । टैंक में जो पानी जमा होगा वह शुद्ध होगा । गहरे वॉटर टैक में नीचे से आएगा ग्राउंड वॉटर । ग्राउंड वॉटर और रिसाव से आया पानी मिलकर होगा पीने लायक । नाममात्र की अशुद्धि रही तो मामूली ट्रीटमेंट से हो सकेगाशुद्ध । पानी का नुकसान भी नहीं के बराबर होगा । यह विधि मौजूदा वॉटर ट्रीटमेंट से ८० फीसदी सस्ती भी होगी ।

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