सामाजिक पर्यावरण
नशे से संक्रमित अर्थव्यवस्था
भारत डोगरा
डेढ़ हजार की आबादी वाला एक गांव शराब, तंबाखु व गुटखे जैसे नशों पर प्रतिवर्ष तकरीबन ५४ लाख रूपये खर्च करता है । इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत के ग्रामीण परिवेश में रहने वाली करीब ९० करोड़ आबादी इन मदों पर कितना खर्च करती है । सौभाग्यवश अभी महिलाएं इन व्यसनों से अधिक प्रभावित नहीं हैं । महिलाआें द्वारा शराब दुकान का विरोध करने के बाद उत्तराखंड सरकार द्वारा मोबाइल वेन के माध्यम से शराब बिक्री को वैधानिक बना देना, शासन की मंशा को बेनकाब कर रहा है ।
दूर-दूर गांवों में भी शराब व गुटखे का चलन तेजी से बढ़ रहा है व इनके कारण इन गांवों में अनेक अन्य समस्याएं भी उग्र रूप ले रहीं है । दूसरी ओर सभी प्रकार के नशों को नियंत्रित करने से गांवों में सुधार कार्यो के लिए काफी आर्थिक मदद मिल सकती है ।
हाल ही में दक्षिण राजस्थान में गांव में कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताआें की एक कार्यशाला में यह अनुमान लगाने का प्रयास किया गया कि गुटखे, बीड़ी, सिगरेट व शराब के बढ़ते चलन की कितनी जबरदस्त कीमत हमारे गांवों को चुकानी पड़ रही है । विस्तृत चर्चा के दौरान चौंकाने वाले परिणाम सामने आए । ध्यान रहे कि यह चर्चा नशे से बहुत अधिक प्रभावित किसी विशेष गांव के संदर्भ में नहीं की गई थी, अपितु एक औसत गांव के संदर्भ मेंकी गई थी जिसकी कुल जनसंख्या मात्र डेढ़ हजार के आसपास है ।
सामाजिक कार्यकर्ताआें ने बताया कि गुटखे का चलन तेजी से बढ़ा है व महिलाआें व किशोरों तक भी यहां इसका उपयोग पहुंच गया है । अनुमान लगाया गया कि गांव के लगभग चार सौ व्यक्ति गुटखे का सेवन करते हैं । गुटखे पर प्रति व्यक्ति प्रति दिन का अनुमानित खर्च दस रूपए बताया गया । इस हिसाब से एक दिन में पूरे गांव में ४००० रूपए गुटखे पर खर्च होते हैं व एक वर्ष में लगभग १४ लाख रूपए इस पर खर्च होते है ।
शराब के बारे में अनुमान लगाया गया कि एक दिन में औसतन लगभग २०० बोतलों की खपत होती है । ४० रूपये प्रति बोतल के हिसाब से गांव में एक दिन में लगभग ८००० रूपए शराब पर खर्च होते हैं । इस तरह पूरे वर्ष में इस गांव में लगभग २८ लाख रूपए शराब पर खर्च अनुमान लगाया गया है । इसी तरह सिगरेट, बीड़ी व तंबाखू (गुटखे के अतिरिक्त) के बारे में अनुमान लगाया गया कि इस पर एक वर्ष में १२ लाख रूपए खर्च होते है ।
यह तो वह खर्च है जो सीधे-सीधे शराब (२८ लाख रूपए), गुटखे (१४ लाख रूपए) व बीड़ी-सिगरेट- तंबाखू (१२ लाख रूपए) पर खर्च होता है यानि कुल लगभग ५४ लाख रूपए । पर केवल यही खर्च नहीं है क्योंकि इनके सेवन से जो बीमारियाँ होती हैं, उस पर भी तो खर्च करना पड़ता है । शराब पीने के बाद कई बार तोड़-फोड़ की घटनाएं होती है, लड़ाई-झगड़े होते हैं, बात पुलिस कचहरी तक भी पहुंचती है । शराब पीने वाले कई परिवारों पर कर्ज हो जाता है व उसका ब्याज भी चुकाना पड़ता है । यदि इस तरह के खर्च को भी जोड़ लिया तो एक ही गांव में एक वर्ष में लगभग ६० से ६५ लाख रूपए तो विभिन्न तरह के नशों पर खर्च हो जाते हैं । इसमें अभी किसी नशीली दवा पर खर्च नहीं जोड़ा गया है हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह प्रवृत्ति भी कई गांवों को तहस-नहस कर रही है ।
इस चर्चा में भाग लेने वाले कई भागीदारों ने कहा कि आंकड़े थोड़े बहुत ऊपर-नीचे हो सकते है । विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग अनुमान प्रस्तुत कर सकते हैं, पर कुल मिलाकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि १५०० की आबादी वाले एक गांव में ६५ लाख रूपए नहीं तो इससे कुछ कम विभिन्न तरह के नशों व इनसे हो रही बर्बादी पर औसतन खर्च हो ही रहे है ।
चर्चा में कुछ कार्यकर्ताआें ने बताया कि हाल ही में राजस्थान सरकार ने गुटखे पर जो प्रतिबंध लगाया है उससे इसकी खपत भविष्य में चाहे रूक जाए पर अभी तो यह ब्लैक में बिकने लगा है यानि १ रूपए का गुटखा ३ रूपए में बिक रहा है ।
एक चौंका देने वाला आंकड़ा यह भी है व इस चर्चा में ऐसा कहा भी गया कि यदि एक बड़ा अभियान चला कर इस खर्च में आधी भी कमी कर दी जाए तो प्रतिवर्ष २५ से ३० लाख रूपए संतुलित भोजन व बेहतर स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध हो जाएगें ।
यदि गांववासी यह तय कर लें कि नशे को छोड़ने से जो पैसा बचाएंगे उसका मात्र १० प्रतिशत गांव के सुधार कार्यो के किसी कोष में जमा करवाएंगे तो प्रतिवर्ष गांव की भलाई के लिए ५ से ६ लाख रूपए उपलब्ध हो सकते है, जिससे खाद्यान्न बैंक, स्वरोजगार के विभिन्न उपाय जैसे कई सार्थक कार्य आरंभ किए जा सकते है ।
पर दुख की बात यह है कि सरकार ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करने के स्थान पर गांव-गांव में शराब के ठेके खोलने को तेजी से बढ़ावा दे रही है । हाल के वर्षो में गांवों में या उनके आसपास शराब की दुकानों या ठेकों में बहुत तेजी से वृद्धि आई है । शराब की खपत बढ़ाने में इसकी बड़ी भूमिका है । कुछ समय पहले जब उत्तराखंड में कुछ महिलाआें ने आंदोलन कर ऐसे कुछ ठेकों को हटाया तो मोबाइल वेन भेजकर शराब की बिक्री की जाने लगी । शिकायत करने पर अधिकारियों ने मोबाईल वेन में शराब बेचने पर रोक लगाने में इंकार कर दिया । इस तरह सरकारी संरक्षण में गांव-गांव में शराब बेचने का एक नया रास्ता खुल गया ।
अब समय आ गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा अभियान चला कर सरकार को नशा समर्थक नीतियां अपनाने से रोका जाए तथा साथ ही गांव-गांव में नशा विरोधी समितियों का गठन कर गांवों को नशामुक्त बनाने के प्रयास किए जाएं ।
नशे से संक्रमित अर्थव्यवस्था
भारत डोगरा
डेढ़ हजार की आबादी वाला एक गांव शराब, तंबाखु व गुटखे जैसे नशों पर प्रतिवर्ष तकरीबन ५४ लाख रूपये खर्च करता है । इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत के ग्रामीण परिवेश में रहने वाली करीब ९० करोड़ आबादी इन मदों पर कितना खर्च करती है । सौभाग्यवश अभी महिलाएं इन व्यसनों से अधिक प्रभावित नहीं हैं । महिलाआें द्वारा शराब दुकान का विरोध करने के बाद उत्तराखंड सरकार द्वारा मोबाइल वेन के माध्यम से शराब बिक्री को वैधानिक बना देना, शासन की मंशा को बेनकाब कर रहा है ।
दूर-दूर गांवों में भी शराब व गुटखे का चलन तेजी से बढ़ रहा है व इनके कारण इन गांवों में अनेक अन्य समस्याएं भी उग्र रूप ले रहीं है । दूसरी ओर सभी प्रकार के नशों को नियंत्रित करने से गांवों में सुधार कार्यो के लिए काफी आर्थिक मदद मिल सकती है ।
हाल ही में दक्षिण राजस्थान में गांव में कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताआें की एक कार्यशाला में यह अनुमान लगाने का प्रयास किया गया कि गुटखे, बीड़ी, सिगरेट व शराब के बढ़ते चलन की कितनी जबरदस्त कीमत हमारे गांवों को चुकानी पड़ रही है । विस्तृत चर्चा के दौरान चौंकाने वाले परिणाम सामने आए । ध्यान रहे कि यह चर्चा नशे से बहुत अधिक प्रभावित किसी विशेष गांव के संदर्भ में नहीं की गई थी, अपितु एक औसत गांव के संदर्भ मेंकी गई थी जिसकी कुल जनसंख्या मात्र डेढ़ हजार के आसपास है ।
सामाजिक कार्यकर्ताआें ने बताया कि गुटखे का चलन तेजी से बढ़ा है व महिलाआें व किशोरों तक भी यहां इसका उपयोग पहुंच गया है । अनुमान लगाया गया कि गांव के लगभग चार सौ व्यक्ति गुटखे का सेवन करते हैं । गुटखे पर प्रति व्यक्ति प्रति दिन का अनुमानित खर्च दस रूपए बताया गया । इस हिसाब से एक दिन में पूरे गांव में ४००० रूपए गुटखे पर खर्च होते हैं व एक वर्ष में लगभग १४ लाख रूपए इस पर खर्च होते है ।
शराब के बारे में अनुमान लगाया गया कि एक दिन में औसतन लगभग २०० बोतलों की खपत होती है । ४० रूपये प्रति बोतल के हिसाब से गांव में एक दिन में लगभग ८००० रूपए शराब पर खर्च होते हैं । इस तरह पूरे वर्ष में इस गांव में लगभग २८ लाख रूपए शराब पर खर्च अनुमान लगाया गया है । इसी तरह सिगरेट, बीड़ी व तंबाखू (गुटखे के अतिरिक्त) के बारे में अनुमान लगाया गया कि इस पर एक वर्ष में १२ लाख रूपए खर्च होते है ।
यह तो वह खर्च है जो सीधे-सीधे शराब (२८ लाख रूपए), गुटखे (१४ लाख रूपए) व बीड़ी-सिगरेट- तंबाखू (१२ लाख रूपए) पर खर्च होता है यानि कुल लगभग ५४ लाख रूपए । पर केवल यही खर्च नहीं है क्योंकि इनके सेवन से जो बीमारियाँ होती हैं, उस पर भी तो खर्च करना पड़ता है । शराब पीने के बाद कई बार तोड़-फोड़ की घटनाएं होती है, लड़ाई-झगड़े होते हैं, बात पुलिस कचहरी तक भी पहुंचती है । शराब पीने वाले कई परिवारों पर कर्ज हो जाता है व उसका ब्याज भी चुकाना पड़ता है । यदि इस तरह के खर्च को भी जोड़ लिया तो एक ही गांव में एक वर्ष में लगभग ६० से ६५ लाख रूपए तो विभिन्न तरह के नशों पर खर्च हो जाते हैं । इसमें अभी किसी नशीली दवा पर खर्च नहीं जोड़ा गया है हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह प्रवृत्ति भी कई गांवों को तहस-नहस कर रही है ।
इस चर्चा में भाग लेने वाले कई भागीदारों ने कहा कि आंकड़े थोड़े बहुत ऊपर-नीचे हो सकते है । विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग अनुमान प्रस्तुत कर सकते हैं, पर कुल मिलाकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि १५०० की आबादी वाले एक गांव में ६५ लाख रूपए नहीं तो इससे कुछ कम विभिन्न तरह के नशों व इनसे हो रही बर्बादी पर औसतन खर्च हो ही रहे है ।
चर्चा में कुछ कार्यकर्ताआें ने बताया कि हाल ही में राजस्थान सरकार ने गुटखे पर जो प्रतिबंध लगाया है उससे इसकी खपत भविष्य में चाहे रूक जाए पर अभी तो यह ब्लैक में बिकने लगा है यानि १ रूपए का गुटखा ३ रूपए में बिक रहा है ।
एक चौंका देने वाला आंकड़ा यह भी है व इस चर्चा में ऐसा कहा भी गया कि यदि एक बड़ा अभियान चला कर इस खर्च में आधी भी कमी कर दी जाए तो प्रतिवर्ष २५ से ३० लाख रूपए संतुलित भोजन व बेहतर स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध हो जाएगें ।
यदि गांववासी यह तय कर लें कि नशे को छोड़ने से जो पैसा बचाएंगे उसका मात्र १० प्रतिशत गांव के सुधार कार्यो के किसी कोष में जमा करवाएंगे तो प्रतिवर्ष गांव की भलाई के लिए ५ से ६ लाख रूपए उपलब्ध हो सकते है, जिससे खाद्यान्न बैंक, स्वरोजगार के विभिन्न उपाय जैसे कई सार्थक कार्य आरंभ किए जा सकते है ।
पर दुख की बात यह है कि सरकार ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करने के स्थान पर गांव-गांव में शराब के ठेके खोलने को तेजी से बढ़ावा दे रही है । हाल के वर्षो में गांवों में या उनके आसपास शराब की दुकानों या ठेकों में बहुत तेजी से वृद्धि आई है । शराब की खपत बढ़ाने में इसकी बड़ी भूमिका है । कुछ समय पहले जब उत्तराखंड में कुछ महिलाआें ने आंदोलन कर ऐसे कुछ ठेकों को हटाया तो मोबाइल वेन भेजकर शराब की बिक्री की जाने लगी । शिकायत करने पर अधिकारियों ने मोबाईल वेन में शराब बेचने पर रोक लगाने में इंकार कर दिया । इस तरह सरकारी संरक्षण में गांव-गांव में शराब बेचने का एक नया रास्ता खुल गया ।
अब समय आ गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा अभियान चला कर सरकार को नशा समर्थक नीतियां अपनाने से रोका जाए तथा साथ ही गांव-गांव में नशा विरोधी समितियों का गठन कर गांवों को नशामुक्त बनाने के प्रयास किए जाएं ।
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