शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

विरासत
पहाड़ और पानी
                         डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
    पहाड़ और पानी का बड़ा ही अटूट रिश्ता है । हिमालयी पहाड़ों की देह से फूट-फूटकर पानी रिसता है । जल प्रपात और झरने पानी की रबानी है । गिरिवर सघन वन और पानी की प्रेम कहानी है । पर्वत ही तो पर्जन्यों को पास बुलाते हैं । शीत ऋतु में गिरि शिखरों पर हिम तुहिन सजाते है ।
    नि:संदेह पहाड़ के पाद से जो पानी बूँद-बूँद कर रिसता है वह पहाड़ के वन प्रांतरों में औषधि पूर्ण होकर निकलता है क्योंकि वह जड़ी बुटियों तथा खनिजों के सम्पर्क मेंआकर अमृत तुल्य हो जाता है । पर्वत ही तो अपने शीर्ष हिम मुकुट सजाता है । पहाड़ों के पत्थरों की कठोरता के मध्य जल रूप में मृदुलता छिपी रहती है । पहाड़ों की अचलता में जल का प्रवाह रहता है । पानी चट्टानी रंघ्रों में बूँद-बूँद कर बहता है । पेड़ और पहाड़ ही़़ ऋतुआें के निर्धारक है । किसी कवि ने कहा है -
    पर्वत-पर्वत पेड़ है, पेड़-पेड़ पर पात ।
    पात-पात पर है लिखें, शीत-ग्रीष्म बरसता ।।
    पेड़ और पानी के बिना पहाड़ भी आकर्षण विहीन रहता है । पर्वत की पीर पिघलती है तो पानी बनकर बहती है । पहाड़ों से नि:सृत जल जब ऊँचे शिलाखण्डों से तीव्रता के साथ अधोवादियो में संगीत सा गंुजायमान होता है । झरने प्रपात का जल सरिता बनाता है जो कि पत्थरों के बीच से होकर, जलचरों को साथ लेकर घाटी से उतर कर मैदान भाग में आती है । इसीलिए नदी को परिभाषित करते हुए कहा गया है किसी पर्वत आवृत झील से निकलकर बहने वाला प्राकृतिक प्रवाह जो वर्ष पर्यन्त रहता है नदी कहलाता है । नदियां ही नदीश अर्थात् समुद की पोषक है । जलचक्र में पर्वत, नदियों, सागर, बादल सभी को समन्वित भूमिका है । सूर्य ताप और पवन वेग का योगदान है ।
    पहाड़ों के अचल रहने की विवशता एवं विकलता को पर्वत पुत्रियॉ-नदियों ही दूर करती हैं नदियाँ ही पहाड़ों के मध्य नैसर्गिक आकर्षण, स्वयं प्रवहमान होकर देती है । प्रसिद्ध गांधीवादी काका कालेलकर ने कहा था नदी को देखते ही मन में विचार आता है कि यह कहाँ से आती और कहों को जाती है । .... आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी से ही मिली होगी । .... पानी के प्रवाह या विस्तार में जो जीवन लीला प्रकट होती है उसके प्रभाव जैसा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं । पहाड़ चाहे कितना उत्रुंग या गगन भेदी क्यों न हो जब तक उसके विशाल वक्ष को चीरकर कोई जलधारा नहीं निकलती, तब तक उसकी भव्यता कोरी, सूनी और अलोनी ही मालूम होती है ।
    पहाड़ी सौन्दर्यता, भव्यता एवं सजलता को समादृत करना ही हमारा अभीष्ट है । ऊँचे नीचे पहाडों के बीच से गुजरती हुई फूलों की घाटियों के मध्य बहती पहाड़ी सरिता जिसे स्थानीय बोलबाल में रोखड़ या गधेरे कहा जाता है की कल-कल ध्वनि, जीव जन्तुआें का भी ध्यान अपनी और बरबस ही खींच लेती है । वह सरिता के समीप आते है । जल में अठखेलियों करते हैं और उत्सव मनाते है । पहाडी सरिताआें एवं झरनों के जल में रहने वाली मछलियों में तेज बहाव को सहने की अपार क्षमता होती है और उनमें ऐसी संरचनाए भी विकसित होती है जो उन्हें उस परिस्थति में रहने के अनुकूल बनाती है ।
    पहाड़ों को जल स्तम्भ कहा जाता है विशेष रूप से हिमालय के संदर्भ में यह विशेषण प्रयुक्त होता है । हिमालय की अस्तित्व मानता से ही दक्षिण एशिया समृद्ध हुआ    है । हिमालय ही ४० प्रतिशत जलराशि का दाता है । यह माना जाता है कि हिमालय पर्वत ३३००० वर्ग किलोमीटर में फैला है । इसका १७ प्रतिशत भाग हिमाच्छादित है । हिमालीय क्षेत्र में लगभग १५००० हिमनद है इनमें से कुछ हिमनद ६० किलोमीटर से अधिक और कुछ ३ से ५ किलो मीटर तक लम्बे हैं। वस्तुत: यही हिमनद ही तो हिमालय की जल समृद्धि के आधार है ।
    हिमनदीप जल वर्ष पर्यन्त रिसरिस कर कठोर पर्वतों को भी आन्तरिक रूप से सरस रखता है । पहाड़ों पर उगी हुई वनस्पतियाँ तथा वन-वनिताएँ जल को रोकने में मदद करती है । जिससे जलग्रहण क्षेत्र बनते हैं । गंगोत्री में गोमुख से ऊपर देवदार तथा भोजवन साक्षात शिवरूप में जल को शिरोधार्य करते हैं । उत्तरी भारत की अधिकांश नदियों का उद्गम स्त्रोत हिमालय के हिमनद ही है । सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रहृापुत्र एवं अनेक सहायक नदियाँ हिमवान हिमालय से नि:स्तृत शैलसुताएं हैं । देवियों का ही जल रूप में अवतरण हुआ है ।
    हमारे पहाड़ जल प्राचीर से सदा समृद्ध रहे हैं इससे पहले पहाड़ों पर जल की समस्या नहीं थी किन्तु ज्यों ज्यों बढ़ती आबादी के कारण मानवीय बस्तियों का विस्तार हुआ और अतिशय काकीटीय निर्माण कार्य हुआ जल स्त्रोत सूखने लगे, झरने अवरूद्ध हो गये जल देवता मानो कु्रद्ध हो गये । पर्जन्य प्रिय पेड़ कटे तो वर्षा भी अनियमित हो गई । अब तो पहाड़ों पर लोग मंहगा पानी खरीदकर जीवन यापन कर रहें हैं इसीलिए पहाड़ों से पलायन जारी है । पर्वत उपत्यकाआें की नैसर्गिक सुषमा से मोहभंग जारी है ।
    प्राकृतिक समुदाय एवं पारिस्थितिक तंत्र डगमगा रहे है । क्योंकि हमारी वर्तमान नीतियाँ दोहन एवं दमन पर आधारित है । जल जंगल और जमीन के सहअस्तित्व पर हमने आघात किया है । हमें हिमालयी पारिस्थिति की परवाह करनी ही चाहिए । भूस्खलन, त्वरित जल प्लायन, बादल फटना, भूगर्भीय कंपन पहाड़ ही तो झलते हैं । जल प्रवाह भी प्रकाशित होता   है । भारतीय उपमहाद्वीपीय संरचना की सुरक्षा के लिए पहाड़ों का संरक्षण जरूरी है ।
    पहाड़ ही तो नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र एवं जलागम बनाते हैं । पहाड़ों के ऊपरहिमनद ही तो नदी में परिवर्तित हो जाते हैं । जल ग्रहण क्षेत्र वह भू-भाग होता है जहाँ सभी ओर से जल एकत्रित होकर पहाड़ों के मध्य बनी जलागम में जमा होता है । ग्लोबल वॉर्मिग के कारण जलवायु परिवर्तन एवं तापमान में वृद्धि के कारण अब पर्याप्त् हिमपात नहीं होता है । हिम का कणीकरण नहीं हो पाता । वैश्विक तापन के कारण हिमनद पीछे हट रहे हैं । एक आकंलन के अनुसार वर्ष २०३० तक गोमुख का ग्लेशियर पूर्णतय: लुप्त् हो जायेगा । तब पतित पावनी गंगा केवल पहाड़ी नालों से पोषिता होकर रह जायेगी । ऐसी विषम परिस्थिति में हमें पहाड़ और पानी के रिश्ते को नये सिरे से समझना   चाहिए ।
    प्रश्न उठता है कि क्या हम सदानीरा नदियों का केवलबरसाती पानी ढोने वाली नदियों बना दें । सदानीर नदियों को हम पल-पल सुखा रहे हैं । जाने अनजाने पहाड़ की आत्मा को दुखा रहे हैं । जल, जल रहा है और हम मुस्करा रहे   है । जब तक हम जल की वेदना को नहीं समझेगे जल के प्रति आत्मीय नहीं हो सकेंगे । हमें जल संवेदना को समझने के लिए परस्पर संवाद बनाना ही होगा । हमें जल बर्बाद करने वाले लोगों को समझाना ही होगा । हिमालयी क्षेत्र के जल स्त्रोंतो का विकास जरूरी है । ताकि बदलती हुई जलवायु में भी जलापूर्ति सुचारू रह सके और हमारी प्रकृति को ऋत्विक त्रृजुता बनी रह  सके । किसी कवि ने कहा है -
    यह इच्छा है, नदी और नालोंका वेटा धरूँगा ।
    गाता हुआ गीत मस्ती के पर्वत से उतरूँगा ।।
    सृष्टि ने अनेक बार सृजन एवं ध्वंस को सहा है । भू संरचनाएं बदलती रही हैं । आज भी हिमालय पर्वत ऊपर उठ रहा है और शिशु पर्वत कहलाता है । सृजन है तो क्षरण भी जारी है । पहाड़ी भूस्खलन आपदा हमारी है । पहाड़ों पर अतिक्रमण हुआ है । नदियों के किनारे रिहायशी भवन तथा अतिथि गृहों का निर्माण पर्यटन के विस्तार के कारण पहाड़ों पर अधिक हुआ है । विकास के प्रतिमान गढ़ने के कारण जल के बाँध भी बने । नदियों में प्रवाह कम हुआ है किन्तु वर्षाकाल में सामान्यत: नदियाँ उफनती है तो अपने हक की जमीन के भवनों को जमींदोज करने में नहीं हिचकिचाती ।
    आज जहॉ पर्वतराज हिमालय स्थित है वहाँ टेथिस नामक महासागर था जो भारत और म्यांमार (बर्मा) की वर्तमान सीमा से लेकर पश्चिम एशिया के विशाल क्षेत्र मेंविस्तृत था (वर्तमान भूमध्य सागर टेथिस का ही अवशेष है) । इस महासागर के उत्तर मेंअंगारालेंड तथा दक्षिण में गोड़वाना लैण्ड नामक स्थल खण्ड थे । इन दोनों स्थलाकृतियों से नि:सृत नदियाँ प्रतिवर्ष भारी मात्रा में अवसाद (गाद) बहाकर लाई जिससे टेथिस सागर भारत गया । कालान्तर में भूगर्भीय परिवर्तन हुए तथा दोनों स्थलखण्ड कठोर होकर एक दूसरे की ओर विस्थापित हुए जिससे टेथिस की अवसाद हिमालय के रूप मेंऊपर उठती गई दोनों स्थल खण्डों का विस्थापन अभी भी जारी है और आज भी हिमालय ऊपर उठ रहा है ।
    हिमालयी पहाड़ों में बाँज (ओक) के वृक्ष वनोंका विशेष महत्व रहा है । हरित क्षेत्र के बाँज के वृक्षोंमें धरती की कोख में मिट्टी की मोटी-मोटी परतें जमा करने की अपार क्षमता होती है तथा जल अवशोषण का अद्भूत गुण होता है जिससे पर्वत श्रृखंलाआें पर बाँज बनाती रहती है अर्थात बाँज वनों की अधिकता रहती है और ऐसे पहाड़ों पर जल स्त्रोत अधिक पाये जाते हैं । इन्हीं जल स्त्रोंतों से प्रस्फुटित जल बुलबुलों के रूप में फूटताहुआ पहाड़ी धरती पर बहता है । यही जल लोहे की परनालियों अथवा प्लास्टिक के पाइपों की सहायता से सीमेंट की बनी होजियों में एकत्रित किया जाता है जहॉ से आम लोग उपयोग हेतु प्राप्त् करते  हैं । पहाडी यात्रा में अक्सर होजियों के जल निकास मार्ग पर शेर या हाथी की मुखाकृति दिखलाई दे जाती है । प्राकृतिक रूप से औषधी गुणों से  युक्त यह जल बड़ा ही स्वास्थ्यवर्धक होता है ।
    उत्तराखण्ड में जल को विष्णु भगवान के प्रतीक के रूप मेंपूजा जाता है क्योंकि जल में ही हरि नारायण का वास है । जल की निर्बाध आपूर्तिहेतु जल स्त्रोत पर पत्थरों की चिनाई करके सीढ़ी दार कुण्ड बनाये जाते है जिन्हें नौला कहा जाता है । नौले के अन्दर गवाक्ष (आले) में विष्णु एवं विष्णु प्रिया (लक्ष्मी देवी) की अनगढ़ प्रतिमाएं रखी जाती है । नाले को सदैव स्वच्छ रखा जाता है । नौले के अन्दर बरतन धोना, कपड़े धोना तथा स्नान करना वर्जित रहता है । नौले को केवल जल प्रािप्त् हेतु एवं मांगलिक कार्य हेतु प्रयुक्त किया जाता है । नौले पर आकर महिलाएं पूजा अर्चना एवं प्रदक्षिणा करती है । जल पूजन के बड़े श्रेयस संस्कारों को निर्वाह होता है पहाड़ों पर । पहाड़ी सरिताआें पर जल संग्रह एवं उसके उपयोग पर आधारित घराट की बहुउद्देशीय व्यवस्था भी रहती है। यह घराट लघु उद्योग के रूप में मान्यता प्राप्त् है तथा अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक है ।
    हिमालय पर्वत ही मानसूनी हवाआें के मार्ग में बाधा बनकर वर्षण को प्रेरित करता है  यह हवाएं चाहे बंगाल की खाड़ी से उठी हो चाहे अरब सागर से उठी हो, दोनों ही स्थितियों में हिमालय हमारा सहायक है । यदि हिमालय नहीं होता तो विशाल भू-भाग शुष्क मरूस्थल होता । हिमालय से निकली नदियों ने ही हमें जल समृद्ध हरियाले मैदान दिये है । हिमालय का हम पर उपकार है क्या हम भी पहाड़, पेड़ और पानी से अपना सहकार निभा रहे है ? यह विचारणीय प्रश्न है ।

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