हमारा भूमण्डल
चारे से जहरीली होती सभ्यता
डॉ. ईवा सिरनाथ सिंगजी
अनादिकाल से पशुधन कृषि अवशेष या अधिशेष पर निर्भर रहा है । आधुनिक खेती ने चारे का संकट पैदा कर दिया है, जिसकी किसी न किसी तरह भरपाई हो रही है । वहीं दूसरी तरफ सोयाबीन जैसी फसलें कमोवेश पशुआहार के लिए लगाई जा रही है । लेकिन जी.एम. फसलों का चारा भी जहरीला है । जी.एम. फसलों को कृषि का भविष्य बताने वालों से पूछना चाहिए कि क्या वे बिना पशुधन के मानव सभ्यता की कल्पना कर सकते हैं ?
महाकाय बायोटेक कंपनी सिजेंटा पर वर्ष २००७ में जर्मनी में एक दीवानी न्यायालय में अंतिम निर्णय पर पहुंचे मुकदमे में इस बिना पर आपराधिक कार्यवाही की गई थी क्योंकि उसने इस बात से इंकार किया था कि उसे इस बात की जानकारी है कि जैव संवर्द्धित (जीएम) बी.टी. मक्का से पशुआें की मृत्यु हो सकती है । सिजेंटा की बी.टी. १७६, मक्का में बेक्ट्रिम से निकाला गया कीटनाशक बी.टी. टॉक्सीन (जहर) (क्राय१ ए.बी.) पाया जाता है, जो कि बेसिलियस थुरूजेनिसस (बी.टी.) जो कि एक विशिष्ट खरपतवार निरोधी है । यूरोपीय यूनियन ने वर्ष २००८ से बी.टी. १७६ को लगाना बंद कर दिया है । लेकिन इसी तरह की अन्य किस्में जिसमें मीठे मक्का की बी.टी. ११ शामिल है, का मनुष्य एवं जानवरों के खाने के लिए उत्पादन किया जा रहा है । ये आरोप एक जर्मन किसान ग्लोक्नेर ने न्याय पाने की आस में लगाए थे, जिसके डेरी फार्म में पशुआें द्वारा बी.टी. १७६ खाए जाने पर उनकी रहस्यमयी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई थी ।
यह मक्का उसके खेत में एक अधिकृत मैदानी परीक्षण के हिस्से के रूप में सन् १९९७ से २००२ तक पैदा की गई थी । वर्ष २००० तक उसकी गायों को पूर्णत: बी.टी. १७६ ही खिलाया गया इसके तुरन्त बाद बीमारी उभरी । सिजेंटा ने उसकी पांच गायों की मृत्यु दूध में आई कमी एवं दवाईयों की कीमत के बदले आंशिक मुआवजे के रूप में ४० हजार युरो का भुगतान किया था । सिजेंटा ने यह मानने से इंकार कर दिया कि इसका कारण जी.एम. मक्का है और यह दावा भी किया था कि उसे नुकसान की कोई जानकारी नहीं है । अंतत: न्यायालय में यह मामला रद्द हो गया और ग्लोक्नेर हजारों यूरो के कर्ज में डूब गया लेकिन ग्लोक्नेर के यहां गायें मरती रहीं और गंभीर बीमारी की वजह से कईयों ने दूध देना बंद कर दिया । अंतत: उसने मजबूरन होकर सन् २००२ से जी.एम. मक्का खिलाना बंद कर दिया । इस संबंध में पूर्ण अनुसंधान हेतु उसने राबर्ट कोच संस्थान एवं सिजेंटा के द्वार खटखटाए । लेकिन केवल एक गाय का परीक्षण हुआ और संबंधित जानकारी अभी तक सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं । मृत्यु को लेकर कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया ।
लेकिन सन् २००९ में किसान को पता चला कि सिजेंटा द्वारा वर्ष १९९६ में चारे को लेकर किए गए एक अध्ययन में दो दिनों में चार गायों के मरने की बात सामने आई थी । लेकिन इस परीक्षण को बची में तत्काल रोक दिया गया । लेकिन अब ग्लोक्नेर ने एक जर्मन समूह बंडिस एक्शन जेंकलाज एवं कृषक कार्यकर्ता अर्स हांस के साथ सिजेंटा पर यह आरोप लगाते हुए कि उसने अमेरिका में हुए परीक्षणों से संबंधित जानकारी छिपाई है, उसे आपराधिक न्यायालय में ला खड़ा किया । गौरतलब है कि इससे कंपनी इस किसान के डेरी फार्म में नष्ट हुई ६५ गायों के लिए जिम्मेदार ठहरायी जा सकती है ।
सिजेंटा पर अमेरिकी परीक्षण के दौरान जानवरों की मृत्यु एवं ग्लेक्नार के डेरी फार्म पर हुई पशुआें की मृत्यु यानि अनपेक्षित घटना के संबंध में मुकदमा चलाया जा सकता है । इन सबसे गंभीर बात यह है कि सिजेंटा के जर्मनी प्रमुख ह्ांस थियो जाइमन पर न्यायाधीश एवं ग्लाक्नेर से मूल दीवानी मुकदमें में अमेरिकी अध्ययन की जानकारी छिपाने का आरोप भी लगाया गया है ।
केवल ग्लाक्नेर की गायों तक सीमित नहीं है - बी.टी., जी.एम. खाद्य से मौतों का यह काई बिरला मामला नहीं है । भारत में जहां कपास की फसल कट जाने के बाद पशुधन को खतों में चरने के लिए छुट्टा छोड़ दिए जाने की परम्परा है, वहां मध्य भारत में बी.टी. कपास लगाने वाले अनेक गांवों में हजारों पशुआें के मारे जाने की बात सामने आई है । गडरियों का अपना मत एवं पोस्टमार्टम के बाद प्रयोगशाला मेंकिए गए विश्लेषण बताते हैं कि इन पशुआें में असामान्य लिवर, बढ़ा हुआ पित्ताशय और अंतड़ियों में काले धब्बे पाए गए थे । गडरियों का कहना है कि चरने के दो-तीन दिन के भीतर ही भेड़े सुस्त/अवसाद ग्रस्त हो गई एवं उन्होनें नाक से बहाव निकलने के साथ खांसना शुरू कर दिया और उनके मुंह मेंलाल घाव हो गए, उनमें धब्बे दिखाई देने लगे और काले दस्त भी होने लगे तथा कई बार उन्हें लाल पेशाब भी हुई ।
इन खेतों में चरने के पांच से सात दिन के भीतर उनकी मृत्यु हो गई । छोटे मेंमनों से लेकर डेढ़-दो वर्ष की वयस्क भेड़ों पर इसका प्रभाव पड़ा । यह बात भी सामने आई कि एक प्रभावित भेड़ का मांस खाने से एक गड़रिये को भी उल्टी दस्त होने लगे । पशु चिकित्सकों का कहना है कि यह जहर बी.टी. का हो सकता है लेकिन इसे इसलिए सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि खेतों में अन्य कीटनाशकों का भी प्रयोग होता है । इसलिये गडरियों को सलाह दी गई कि वे अब अपनी भेड़ों को बी.टी. कपास के खेतों में चरने न दें ।
फिलिपींस में बी.टी. मक्का के खेतों के आसपास रहने वाले ग्रामीणों में भी मृत्यु के मामले सामने आए हैं साथ ही इसी तरह की बीमारियां जैसे बुखार, सांस, अतड़ियों एवं त्वचा की समस्याएं भी उजागर हुई है । वर्ष २००३ में पांच मौतों की बात सामने आई एवं इसके बाद ३८ व्यक्तियों के खून की जांच से यह सिद्ध हुआ कि उन सभी की क्राय-१ ए.बी. जैसे जहर के विरूद्ध प्रतिरोधकता समाप्त् हो गई है । जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर होता है सरकारी अधिकारियों के डर एवं अस्वीकार्यता की वजह से इस मामले में आगे कोई जांच नहीं हो पाई ।
मृत्यु का कारण अज्ञात - अधिकारी अभी भी ग्लक्नार की गायों की मृत्यु का कोई कारण नहीं बता पा रहे हैं । बायोटेक उद्योग का यह दावा है कि बी.टी. जहर पेट में तुरन्त घुल जाता है और यह केवल लक्षित कीट प्रजाति पर ही प्रभावशाली रहता है । हाल ही में कनाडा में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां परीक्षण की गई ८० प्रतिशत महिलाआें एवं उनके अजन्में बच्चें के खून में यह जहर मौजूद है । इसकी वजह यह है कि लम्बे समय से मौजूद मिट्टी बेक्टेरियम में प्राकृतिक रूप से विद्यमान बी.टी. जहर इस्तेमाल किया जाता रहा है । वहीं दूसरी ओर बी.टी. फसलों में मौजूद बी.टी. प्रोटीन में दीर्घावधि तक के जहरीलेपन एवं स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का आकलन ही नहीं किया गया है ।
प्राकृतिक रूप से उत्पादित जहर और जी.एम. संवर्द्धित जहर में अंतर यह है कि प्राकृतिक उत्पादित जहर फसलों से अपने आप घुल जाता है जबकि जी.एम. संवर्द्धित फसलों में तो यह जी.एम. फसल का ही हिस्सा हो जाता है । स्वतंत्र अध्ययन बताते हैं जी.एम. खाद्यों का स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों का नकारना न केवल हठीलापन है बल्कि मूर्खता भी है ।
नब्बे के दशक से हो रहे वैज्ञानिक अध्ययन बताते है कि इसमें इस्तेमाल होने वाले जहर का चूहों पर हैजा के विषाणुआें जैसा ही प्रभाव हुआ है । बी.टी. कपास के खेतों में कार्य कर रहे लोगों को लगातार एलर्जी की शिकायत बनी रहती है और उन्हें कई बार अस्पताल में भी भर्ती करना पड़ता है । इतना ही नहीं क्राय-१ ए.बी. के परिणामस्वरूप चूहों में दस्त की शिकायत में सामने आई है । प्रयोगशाला के जानवरों पर बी.टी. मक्का के परीक्षण से इनके खून के प्रोटीन एवं लिवर में असामान्यता की बात सामने आई है । हाल ही में मानव किडनी सेल पर क्राय-१ ए.बी. के परीक्षण के दौरान इसकी कम खुराक के बावजूद सेल नष्ट होने के प्रमाण मिले हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि नए जी.एम. उत्पादों की सुरक्षा आकलन का परीक्षण उसी उद्योग द्वारा न हो, जो कि इन्हें बाजार में उतारना चाहता है । हितों के टकराव से बचा जाना चाहिए क्योंकि इससे अस्पष्ट आंकड़े ही सामने आएंगे । लेकिन आवश्यकता यह है कि सही आकलन हो क्योंकि यह हमारे कृषि उद्योग, पशुधन कल्याण के साथ ही साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है ।
चारे से जहरीली होती सभ्यता
डॉ. ईवा सिरनाथ सिंगजी
अनादिकाल से पशुधन कृषि अवशेष या अधिशेष पर निर्भर रहा है । आधुनिक खेती ने चारे का संकट पैदा कर दिया है, जिसकी किसी न किसी तरह भरपाई हो रही है । वहीं दूसरी तरफ सोयाबीन जैसी फसलें कमोवेश पशुआहार के लिए लगाई जा रही है । लेकिन जी.एम. फसलों का चारा भी जहरीला है । जी.एम. फसलों को कृषि का भविष्य बताने वालों से पूछना चाहिए कि क्या वे बिना पशुधन के मानव सभ्यता की कल्पना कर सकते हैं ?
महाकाय बायोटेक कंपनी सिजेंटा पर वर्ष २००७ में जर्मनी में एक दीवानी न्यायालय में अंतिम निर्णय पर पहुंचे मुकदमे में इस बिना पर आपराधिक कार्यवाही की गई थी क्योंकि उसने इस बात से इंकार किया था कि उसे इस बात की जानकारी है कि जैव संवर्द्धित (जीएम) बी.टी. मक्का से पशुआें की मृत्यु हो सकती है । सिजेंटा की बी.टी. १७६, मक्का में बेक्ट्रिम से निकाला गया कीटनाशक बी.टी. टॉक्सीन (जहर) (क्राय१ ए.बी.) पाया जाता है, जो कि बेसिलियस थुरूजेनिसस (बी.टी.) जो कि एक विशिष्ट खरपतवार निरोधी है । यूरोपीय यूनियन ने वर्ष २००८ से बी.टी. १७६ को लगाना बंद कर दिया है । लेकिन इसी तरह की अन्य किस्में जिसमें मीठे मक्का की बी.टी. ११ शामिल है, का मनुष्य एवं जानवरों के खाने के लिए उत्पादन किया जा रहा है । ये आरोप एक जर्मन किसान ग्लोक्नेर ने न्याय पाने की आस में लगाए थे, जिसके डेरी फार्म में पशुआें द्वारा बी.टी. १७६ खाए जाने पर उनकी रहस्यमयी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई थी ।
यह मक्का उसके खेत में एक अधिकृत मैदानी परीक्षण के हिस्से के रूप में सन् १९९७ से २००२ तक पैदा की गई थी । वर्ष २००० तक उसकी गायों को पूर्णत: बी.टी. १७६ ही खिलाया गया इसके तुरन्त बाद बीमारी उभरी । सिजेंटा ने उसकी पांच गायों की मृत्यु दूध में आई कमी एवं दवाईयों की कीमत के बदले आंशिक मुआवजे के रूप में ४० हजार युरो का भुगतान किया था । सिजेंटा ने यह मानने से इंकार कर दिया कि इसका कारण जी.एम. मक्का है और यह दावा भी किया था कि उसे नुकसान की कोई जानकारी नहीं है । अंतत: न्यायालय में यह मामला रद्द हो गया और ग्लोक्नेर हजारों यूरो के कर्ज में डूब गया लेकिन ग्लोक्नेर के यहां गायें मरती रहीं और गंभीर बीमारी की वजह से कईयों ने दूध देना बंद कर दिया । अंतत: उसने मजबूरन होकर सन् २००२ से जी.एम. मक्का खिलाना बंद कर दिया । इस संबंध में पूर्ण अनुसंधान हेतु उसने राबर्ट कोच संस्थान एवं सिजेंटा के द्वार खटखटाए । लेकिन केवल एक गाय का परीक्षण हुआ और संबंधित जानकारी अभी तक सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं । मृत्यु को लेकर कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया ।
लेकिन सन् २००९ में किसान को पता चला कि सिजेंटा द्वारा वर्ष १९९६ में चारे को लेकर किए गए एक अध्ययन में दो दिनों में चार गायों के मरने की बात सामने आई थी । लेकिन इस परीक्षण को बची में तत्काल रोक दिया गया । लेकिन अब ग्लोक्नेर ने एक जर्मन समूह बंडिस एक्शन जेंकलाज एवं कृषक कार्यकर्ता अर्स हांस के साथ सिजेंटा पर यह आरोप लगाते हुए कि उसने अमेरिका में हुए परीक्षणों से संबंधित जानकारी छिपाई है, उसे आपराधिक न्यायालय में ला खड़ा किया । गौरतलब है कि इससे कंपनी इस किसान के डेरी फार्म में नष्ट हुई ६५ गायों के लिए जिम्मेदार ठहरायी जा सकती है ।
सिजेंटा पर अमेरिकी परीक्षण के दौरान जानवरों की मृत्यु एवं ग्लेक्नार के डेरी फार्म पर हुई पशुआें की मृत्यु यानि अनपेक्षित घटना के संबंध में मुकदमा चलाया जा सकता है । इन सबसे गंभीर बात यह है कि सिजेंटा के जर्मनी प्रमुख ह्ांस थियो जाइमन पर न्यायाधीश एवं ग्लाक्नेर से मूल दीवानी मुकदमें में अमेरिकी अध्ययन की जानकारी छिपाने का आरोप भी लगाया गया है ।
केवल ग्लाक्नेर की गायों तक सीमित नहीं है - बी.टी., जी.एम. खाद्य से मौतों का यह काई बिरला मामला नहीं है । भारत में जहां कपास की फसल कट जाने के बाद पशुधन को खतों में चरने के लिए छुट्टा छोड़ दिए जाने की परम्परा है, वहां मध्य भारत में बी.टी. कपास लगाने वाले अनेक गांवों में हजारों पशुआें के मारे जाने की बात सामने आई है । गडरियों का अपना मत एवं पोस्टमार्टम के बाद प्रयोगशाला मेंकिए गए विश्लेषण बताते हैं कि इन पशुआें में असामान्य लिवर, बढ़ा हुआ पित्ताशय और अंतड़ियों में काले धब्बे पाए गए थे । गडरियों का कहना है कि चरने के दो-तीन दिन के भीतर ही भेड़े सुस्त/अवसाद ग्रस्त हो गई एवं उन्होनें नाक से बहाव निकलने के साथ खांसना शुरू कर दिया और उनके मुंह मेंलाल घाव हो गए, उनमें धब्बे दिखाई देने लगे और काले दस्त भी होने लगे तथा कई बार उन्हें लाल पेशाब भी हुई ।
इन खेतों में चरने के पांच से सात दिन के भीतर उनकी मृत्यु हो गई । छोटे मेंमनों से लेकर डेढ़-दो वर्ष की वयस्क भेड़ों पर इसका प्रभाव पड़ा । यह बात भी सामने आई कि एक प्रभावित भेड़ का मांस खाने से एक गड़रिये को भी उल्टी दस्त होने लगे । पशु चिकित्सकों का कहना है कि यह जहर बी.टी. का हो सकता है लेकिन इसे इसलिए सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि खेतों में अन्य कीटनाशकों का भी प्रयोग होता है । इसलिये गडरियों को सलाह दी गई कि वे अब अपनी भेड़ों को बी.टी. कपास के खेतों में चरने न दें ।
फिलिपींस में बी.टी. मक्का के खेतों के आसपास रहने वाले ग्रामीणों में भी मृत्यु के मामले सामने आए हैं साथ ही इसी तरह की बीमारियां जैसे बुखार, सांस, अतड़ियों एवं त्वचा की समस्याएं भी उजागर हुई है । वर्ष २००३ में पांच मौतों की बात सामने आई एवं इसके बाद ३८ व्यक्तियों के खून की जांच से यह सिद्ध हुआ कि उन सभी की क्राय-१ ए.बी. जैसे जहर के विरूद्ध प्रतिरोधकता समाप्त् हो गई है । जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर होता है सरकारी अधिकारियों के डर एवं अस्वीकार्यता की वजह से इस मामले में आगे कोई जांच नहीं हो पाई ।
मृत्यु का कारण अज्ञात - अधिकारी अभी भी ग्लक्नार की गायों की मृत्यु का कोई कारण नहीं बता पा रहे हैं । बायोटेक उद्योग का यह दावा है कि बी.टी. जहर पेट में तुरन्त घुल जाता है और यह केवल लक्षित कीट प्रजाति पर ही प्रभावशाली रहता है । हाल ही में कनाडा में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां परीक्षण की गई ८० प्रतिशत महिलाआें एवं उनके अजन्में बच्चें के खून में यह जहर मौजूद है । इसकी वजह यह है कि लम्बे समय से मौजूद मिट्टी बेक्टेरियम में प्राकृतिक रूप से विद्यमान बी.टी. जहर इस्तेमाल किया जाता रहा है । वहीं दूसरी ओर बी.टी. फसलों में मौजूद बी.टी. प्रोटीन में दीर्घावधि तक के जहरीलेपन एवं स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों का आकलन ही नहीं किया गया है ।
प्राकृतिक रूप से उत्पादित जहर और जी.एम. संवर्द्धित जहर में अंतर यह है कि प्राकृतिक उत्पादित जहर फसलों से अपने आप घुल जाता है जबकि जी.एम. संवर्द्धित फसलों में तो यह जी.एम. फसल का ही हिस्सा हो जाता है । स्वतंत्र अध्ययन बताते हैं जी.एम. खाद्यों का स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों का नकारना न केवल हठीलापन है बल्कि मूर्खता भी है ।
नब्बे के दशक से हो रहे वैज्ञानिक अध्ययन बताते है कि इसमें इस्तेमाल होने वाले जहर का चूहों पर हैजा के विषाणुआें जैसा ही प्रभाव हुआ है । बी.टी. कपास के खेतों में कार्य कर रहे लोगों को लगातार एलर्जी की शिकायत बनी रहती है और उन्हें कई बार अस्पताल में भी भर्ती करना पड़ता है । इतना ही नहीं क्राय-१ ए.बी. के परिणामस्वरूप चूहों में दस्त की शिकायत में सामने आई है । प्रयोगशाला के जानवरों पर बी.टी. मक्का के परीक्षण से इनके खून के प्रोटीन एवं लिवर में असामान्यता की बात सामने आई है । हाल ही में मानव किडनी सेल पर क्राय-१ ए.बी. के परीक्षण के दौरान इसकी कम खुराक के बावजूद सेल नष्ट होने के प्रमाण मिले हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि नए जी.एम. उत्पादों की सुरक्षा आकलन का परीक्षण उसी उद्योग द्वारा न हो, जो कि इन्हें बाजार में उतारना चाहता है । हितों के टकराव से बचा जाना चाहिए क्योंकि इससे अस्पष्ट आंकड़े ही सामने आएंगे । लेकिन आवश्यकता यह है कि सही आकलन हो क्योंकि यह हमारे कृषि उद्योग, पशुधन कल्याण के साथ ही साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है ।
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