सामयिक
भाषा पर विकास का संकट
प्रमोद भार्गव
भारत सहित विश्वभर में भाषाई विविधता समाप्त् होती जा रही है । पहनावे के बाद अब भाषा पर आया संकट अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है । कहा जाता है कि भाषा अपनी संस्कृति भी साथ लाती हेै । अंग्रेजी से हमारे साक्षात्कार से यह सिद्ध भी हो चुका है ।
अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएं अस्तित्व के संकट से जुझ रही हैं । भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है क्योंकि यहां कि १९६ भाषाएं विलुिप्त् के कगार पर है । भारत के बाद अमेरिका की स्थिति चिंताजनक है, जहां की १९२ भाषाएं दम तोड़ रही हैं । दुनिया में कुल ६९०० भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से २५०० विलुिप्त् के कगार पर हैं ।बेलगाम अंग्रेजी इसी तरह से पैर पसारती रही तो एक दशक के भीतर करीब ढाई हजार भाषाएं पूरी तरह समाप्त् हो जाएंगी । भारत और अमेरिका के बाद इंडोनेशियाकी १४७ भाषाआें को जानने वाले खत्म हो जाएंगे । दुनिया भर में १९९ भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है ।
कैरेम भी एक भाषा है जिसे उक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं । इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग बोल पाते हैं । इंडोनेशिया की लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं । १७८ भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या १५० से भी कम है । भाषाआें को संरक्षण देने की दृष्टि से ही १९९० के दशक में हर साल अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की गई थी, लेकिन दो दशक बीत जाने के भाषाआें के बचाने के कोई सार्थक उपाय सामने नहींआ पाए ।
कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्योंा में भी कमी आने लगती है । क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं । इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने, हम अन्हें तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं । कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में एवं कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारंपरिक ज्ञान के असीम खजाने की उम्मीद रहती है । ऐसी भाषाआें का उपयोग जब मातृभाषा के रूप में नहीं रह जाता है तो वे विलुप्त् होने लगती हैं । धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो सन् २१०० तक विलुप्त् हो सकती हैं ।
हर पखवाड़े भारत समेत दुनिया में एक भाषा मर रही है । इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं है, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त् हो रही हैं । ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और पारंपरिक ज्ञान का कोष हैं । भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे है कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए । गणतंत्र दिवस २६ जनवरी २०१० के दिन अंडमान द्वीप समूह की ८५ वर्षीया बोआ के निधन के साथ ही एक महान अंडमानी भाषा बो भी हमेशा के लिए विलुप्त् हो गई । इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थी । इसके पूर्व नवम्बर २००९ में एक और महिला बोरो की मौत के साथ खोरा भाषा का अस्तित्व समाप्त् हो गया । इन भाषाआेंऔर लोगों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है । ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुिप्त् के कगार पर हैं ।
अंडमान-निकोबार द्वीप की भाषाआें पर अनुसंधान करने वाली जवाहरलाल नहेरू विश्वविद्यालय की प्राध्यापक अन्विता अब्बी का मानना है कि अंडमान के आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किए गए हैं उनके दुष्प्रभाव से अंडमान द्वीप क्षेत्र में जो १० भाषाएं प्रचलन में थी, पर साफ नजर आते हैं । धीरे-धीरे ये सिमट कर ग्रेट अंडमानी भाषा बन गई । यह चार भाषाआें के समूह के समन्वय से बनी ।
भारत सरकार ने उन भाषाआें के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें १० हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते है । २००१ की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी १२२ भाषाएं और २३४ मातृभाषाएं हैं । भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या १० हजार से कम है, उन्हें गिनती में शामिल हीं नहीं किया गया ।
चिेंता का विषय यह है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रही की बो और खोरा भाषाआें की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाई । ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाई । दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिस थीं । अंग्र्रेजों ने जब भारत में फिरंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया । अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरू किया गया । इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब १० जनजातियों के पांच हजार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे ।
बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरन्तर जारी रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे । नतीजतन गिनती के केवल ५२ लोग जीवित बच पाए । ये लोग जेरू तथा अन्य भाषाएं बोलते थे । बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा बो के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थी । लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण ताजिंगदगी उसने गंूगी बने रहने का अभिशाप झेला । भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग ६५ हजार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे ।
नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है । पूरी दुनिया में कुल सत्ताइस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाआें में असम की १७ भाषाएं शामिल हैं । यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं है ।
इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है । नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं । इसके बावजूद २८ हजार लोग देवरी भाषी मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब १९ हजार लोग अभी भी है । इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाआें के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं । घरों में, बाजार में व रोजगार में इन भाषाआें का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन भाषाआें को सीख पढ़ नहीं रही हैं ।
भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं । व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है । इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है ।
प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाआें में हीन भावना भी पनप रही है । इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाआें की विलुिप्त् पर अंकुश लगाना मुश्किल है । अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और स्थानीय ज्ञान-परंपराआें को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम भाषाआें और उनके जानकारों की वंश परम्परा को भी अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता करें ।
भारत सहित विश्वभर में भाषाई विविधता समाप्त् होती जा रही है । पहनावे के बाद अब भाषा पर आया संकट अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है । कहा जाता है कि भाषा अपनी संस्कृति भी साथ लाती हेै । अंग्रेजी से हमारे साक्षात्कार से यह सिद्ध भी हो चुका है ।
अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएं अस्तित्व के संकट से जुझ रही हैं । भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है क्योंकि यहां कि १९६ भाषाएं विलुिप्त् के कगार पर है । भारत के बाद अमेरिका की स्थिति चिंताजनक है, जहां की १९२ भाषाएं दम तोड़ रही हैं । दुनिया में कुल ६९०० भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से २५०० विलुिप्त् के कगार पर हैं ।बेलगाम अंग्रेजी इसी तरह से पैर पसारती रही तो एक दशक के भीतर करीब ढाई हजार भाषाएं पूरी तरह समाप्त् हो जाएंगी । भारत और अमेरिका के बाद इंडोनेशियाकी १४७ भाषाआें को जानने वाले खत्म हो जाएंगे । दुनिया भर में १९९ भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है ।
कैरेम भी एक भाषा है जिसे उक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं । इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग बोल पाते हैं । इंडोनेशिया की लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं । १७८ भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या १५० से भी कम है । भाषाआें को संरक्षण देने की दृष्टि से ही १९९० के दशक में हर साल अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की गई थी, लेकिन दो दशक बीत जाने के भाषाआें के बचाने के कोई सार्थक उपाय सामने नहींआ पाए ।
कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्योंा में भी कमी आने लगती है । क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं । इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने, हम अन्हें तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं । कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में एवं कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारंपरिक ज्ञान के असीम खजाने की उम्मीद रहती है । ऐसी भाषाआें का उपयोग जब मातृभाषा के रूप में नहीं रह जाता है तो वे विलुप्त् होने लगती हैं । धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो सन् २१०० तक विलुप्त् हो सकती हैं ।
हर पखवाड़े भारत समेत दुनिया में एक भाषा मर रही है । इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं है, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त् हो रही हैं । ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और पारंपरिक ज्ञान का कोष हैं । भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे है कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए । गणतंत्र दिवस २६ जनवरी २०१० के दिन अंडमान द्वीप समूह की ८५ वर्षीया बोआ के निधन के साथ ही एक महान अंडमानी भाषा बो भी हमेशा के लिए विलुप्त् हो गई । इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थी । इसके पूर्व नवम्बर २००९ में एक और महिला बोरो की मौत के साथ खोरा भाषा का अस्तित्व समाप्त् हो गया । इन भाषाआेंऔर लोगों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है । ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुिप्त् के कगार पर हैं ।
अंडमान-निकोबार द्वीप की भाषाआें पर अनुसंधान करने वाली जवाहरलाल नहेरू विश्वविद्यालय की प्राध्यापक अन्विता अब्बी का मानना है कि अंडमान के आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किए गए हैं उनके दुष्प्रभाव से अंडमान द्वीप क्षेत्र में जो १० भाषाएं प्रचलन में थी, पर साफ नजर आते हैं । धीरे-धीरे ये सिमट कर ग्रेट अंडमानी भाषा बन गई । यह चार भाषाआें के समूह के समन्वय से बनी ।
भारत सरकार ने उन भाषाआें के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें १० हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते है । २००१ की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी १२२ भाषाएं और २३४ मातृभाषाएं हैं । भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या १० हजार से कम है, उन्हें गिनती में शामिल हीं नहीं किया गया ।
चिेंता का विषय यह है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रही की बो और खोरा भाषाआें की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाई । ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाई । दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिस थीं । अंग्र्रेजों ने जब भारत में फिरंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया । अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरू किया गया । इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब १० जनजातियों के पांच हजार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे ।
बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरन्तर जारी रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे । नतीजतन गिनती के केवल ५२ लोग जीवित बच पाए । ये लोग जेरू तथा अन्य भाषाएं बोलते थे । बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा बो के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थी । लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण ताजिंगदगी उसने गंूगी बने रहने का अभिशाप झेला । भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग ६५ हजार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे ।
नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है । पूरी दुनिया में कुल सत्ताइस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाआें में असम की १७ भाषाएं शामिल हैं । यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं है ।
इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है । नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं । इसके बावजूद २८ हजार लोग देवरी भाषी मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब १९ हजार लोग अभी भी है । इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाआें के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं । घरों में, बाजार में व रोजगार में इन भाषाआें का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन भाषाआें को सीख पढ़ नहीं रही हैं ।
भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं । व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है । इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है ।
प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाआें में हीन भावना भी पनप रही है । इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाआें की विलुिप्त् पर अंकुश लगाना मुश्किल है । अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और स्थानीय ज्ञान-परंपराआें को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम भाषाआें और उनके जानकारों की वंश परम्परा को भी अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता करें ।
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