वन्य प्राणी
जंगल में बाघ बचें या पर्यटन
प्रमोद भार्गव
अब तक बाघों व अन्य दुर्लभ वन्य प्राणियों को प्राकृतिक परिवेश परविेश उपलब्ध कराने के बहाने जंगलों में आदिकाल से रहते आ रहे वनवासियों को निर्दयता से उजाझा जाता रहा है और कोई उफ तक नहीं करता । किन्तु जब देश के सर्वोच्च् न्यायालय ने बाघ संरक्षित क्षेत्रों के अंदरूनी इलाकों में पर्यटन पर प्रतिबंध का अंतिरम किन्तु बाध्यकारी आदेश दिया तो पर्यटन से मोटी कमाई में लगे शासन - प्रशासन की भृकुटियांतन गई ।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस फैसले के विरूद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने का ऐलान कर दिया । यही नहीं, उन्होंने दलील दी कि इस रोक से घने जंगलों में नक्सली गतिविधियां बढ़ सकती हैं और जिन आदिवासियों को पर्यटन से रोजगार मिलता है उन्हें आर्थिक संकट से जूझना होगा ।
दरअसल ये आशंकाएं बेबुनियाद हैं । हकीकत यह है कि पर्यटन को लगातार बढ़ावा दिए जाने से ही बाघों की संख्या घटी है । वर्ष २००० में अकेले मध्यप्रदेश में करीब ७०० बाघ थे, जो २०११ में घटकर २५७ रह गए । दरअसल लोगों के बेरोजगार हो जाने या नक्सली समस्या के पनप जाने से बड़ा संकट उन व्यवसायियों को है, जिन्होंने वन्य प्राणी अधिनियम १९७२ की अवहेलना कर बाघ के प्राकृत वास में होटल और रिसॉर्ट स्थापित किए हैं ।
यह आदेश न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और इब्राहिम खली उल्लाह की खण्डपीठ ने प्रयत्न संस्था की जनहित याचिका पर वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम १९७२ की धारा ३८ के अन्तर्गत दिया है । याचिका में दलील दी गई थी कि अंदरूनी क्षेत्रों में पर्यटन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि मानवीय हलचल से बाघ के स्वाभाविक जीवन पर विपरीत असर पड़ता है और उनका प्रजजन प्रभावित होता है । यही वजह है कि देश के सभी बाघ अभ्यारण्यों में बाघों की संख्या घट रही है । मूल रूप से यह याचिका पन्ना और मध्यप्रदेश के सभी बाघ संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटन पर रोक लगवाने की दृष्टि से जबलपुर उच्च् न्यायालय में लगाई गई थी, लेकिन पर्यटन से प्रदेश के लाभ को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया था ।
इसी याचिका की सुनवाई में सर्वोच्च् न्यायालय ने निर्देश दिया है कि तीन सप्तह के भीतर बाघ संरक्षित क्षेत्रों में कोर और बफर क्षेत्र सुनिश्चित किए जांए, वरना यह न्यायालय की अवमानना मानी जाएगी । दरअसल इसी न्यायालय ने अप्रैल २०१२ में भी उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, तमिलनाडु और कर्नाटक को कोर व बफर क्षेत्र तय करने के आदेश दिए थे, लेकिन राजस्थान के अलावा अन्य किसी राज्य सरकार ने ऐसा नहींकिया था । इसलिए न्यायालय ने इस बार कड़ा कदम उठाते हुए बाध्यकारी आदेश दिया ।
शीषर्स्थ न्यायालय से आदेश जारी होने के साथ ही विरोध के स्वर भी मुखर होना शुरू हो गए हैं । मध्यप्रदेश का विश्व प्रसिद्ध हिल स्टेशन पचमढ़ी एक दिन के लिए बंद रहा है और लोगोंने न्यायालयीन आदेश के विरूद्ध रैली भी निकाली । स्थानीय लोगों का मानना है कि इस प्रतिबंध से पचमढ़ी में बेरोजगारी बढ़ेगी । विरोध के स्वरोंको बल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उस बयान से मिला है जो उन्होनेंपर्यटन पर प्रतिबंध को लोगों की आजीविका से जोड़कर दिया था । उन्होंने इस तथ्य पर भी सवाल उठाया कि केवलप्रतिबंध से ही राष्ट्रीय पशु बाघ को नहीं बचाया जा सकता, उल्टे वह संकट से घिर जाएगा । पर्यटन नहीं होगा तो लोगों का बाघ के प्रति रूझान बदल जाएगा । यदि बाघ ग्रामीणों के मवेशियों को खाएंगे तो लोग बाघ से छुटकारे के लिए पानी में जहर मिलाकर उसे मारने की कोशिश करेंगे ।
मुख्यमंत्री इस बयान के जरिए उस पर्यटन उद्योग को बचाना चाहते हैं, जिससे मध्यप्रदेश शासन को सालाना ४०० करोड़ की आमदनी होने लगी है । हैरानी इस बात पर है कि अब तक करीब चार करोड़ आदिवासियों को अभयारण्यों, बांधों, राजमार्गो और औद्योगिक स्थापनाआें के लिए उजाड़ा गया है, लेकिन अपवादस्वरूप ऐसा एकाध ही मामला हो सकता है जिसमें किसी आदिवासी ने बाघ या तेंदुए को जहर देकर मारा हो । जबकि अपने मूल निवास स्थलों से उजड़ने के बाद इनकी आमदनी बेतहाशा घटी है ।
सतपुड़ा बाघ अभयारण्य से विस्थापितों के जीवन स्तर के आकलन में पाया गया कि इनकी आमदनी में ५० से ९० प्रतिशत तक की कमी आई है । कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर अभयारण्य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को दो दिन में एक ही मर्तबा बमुश्किल भोजन नसीब हो पा रहा है । इसके बावजूद यह कहीं देखने में नहीं आया कि इन लाचार लोगों ने बाघ की जिन्दगी को जोखिम में डालकर अपनी रोजी-रोटी के हित साधे हो ।
इसके उलट मध्यप्रदेश के ही पन्ना और उच्च्ेहरा में बाघ के शिकार के साथ शिकारी भी पकड़ा गया था । किन्तु वह भाग निकला अथवा भगा दिया गया । इसके बाद समाचार माध्यमोंके जरिए जो जानकारियां सामने आई उनसे पता चला कि आला वनाधिकारियों की मिलिभगत से कुख्यात डकैत ठोकिया ने अन्तर्राष्ट्रीय वन्य प्राणी तस्कर संसारचंद और शब्बीर के लिए बाघोंकी हत्या की है । मामला उछला तो शासन ने एक समीति से जांच भी कराई । जांच में शिकारियों के साथ पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के संचालकों की मिलीभगत और भोपाल में शिकार की जानकारी मिलने के बावजूद तमाशाबीन बने बैठे रहे वनाधिकारियों को भी दोषी ठहराया गया । १६० पृष्ठीय इस जांच प्रतिवेदन के आधार पर वनमंत्री सरताजसिंह ने इस मामले की जांच सीबीआई से कराने का फैसला लिया और राज्य सरकार के पास कार्यवाही को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव भेज दिया, लेकिन राज्य सरकार इस प्रस्ताव पर दो साल से कुंडली मारकर बैठी हुई है ।
यदि जांच शुरू होती तो वनाधिकारियों के चेहरों से नकाब उतरते और शिकारी, तस्कर व वनाधिकारियों के गठजोड़ के हौसले पस्त होते । सर्वोच्च् न्यायालय के इस आदेश के बाद यह उम्मीद जगी है कि यदि देश के उद्यानों व अभयारण्यों में कोर क्षेत्रों का सीमांकन कर दिया जाए, तो बाघ और तेंदुए जैसे दुर्लभ प्राणियों की संख्या में वृद्धि होगी । दरअसल बाघ संरक्षित क्षेत्रों के दायरे में आने वाला यह कोर वनखण्ड वह क्षेत्र होता है, जहां बाघ चहल-कदमी करता है, आहार के लिए शिकार करता है, जोड़ा बनाता है और फिर इसी प्रांत की किसी सुरक्षित खोह में आराम फरमाता है । यह क्षेत्र १० वर्ग किलोमीटर तक हो सकता है । न्यायालय ने इसे ही बाघों का अंदरूनी इलाका मानते हुए, इसे अधिसूचित करने के साथ, इसे पर्यटन के लिए प्रतिबंधित किया है ।
दरअसल अभी तक हमारे यहां उद्यानों और अभयारण्यों को लेकर विरोधाभासी व पक्षपाती रवैया अपनाया जाता रहा है । वनवासियों को तो वन या वन्य प्राणियों के संरक्षण के बहाने लगातार विस्थापित किया जाता रहा है, जिनके जीवन का आधार ही जंगल है । किन्तु पर्यटन को बढ़ावा देने तथा उसे नवधनाढयों के लिए सुविधा सम्पन्न बनाने की दृष्टि से राज्य सरकारें होटल, रिसॉर्ट और मनोरंजन पार्क बनाने की खुली छूट देती रहीं । यदि उद्यानों में तालाब हैं तो उनमें नौका विहार की खुली छुट दी गई है । इस छूट के चलते जिन बाघ संरक्षित क्षेत्रोंसे गांवों और वनवासियों को बेदखल किया गया था, उन क्षेत्रों में देखते-देखते पर्यटन सुविधाआें के जंगल उगा दिए गए ।
अकेले मध्यप्रदेश की ही बात करें तो बाघ दर्शन के प्रेमी सैलानियोंसे ही सालान ४०० करोड़ रूपए का पर्यटन उद्योग संचालित है । वन विभाग के आंकड़ो के मुताबिक २०१०-११ में केवल छह बाघ संरक्षित उद्यानों में १२ लाख देशी और एक लाख विदेशी सैलानी घूमने गए । इनमें भोपाल का वन विहार भी शामिल है जहां दुर्लभ सफेद शेर को देखने सैलानी आते हैं । इस उद्योग से राज्य सरकार को शुद्ध मुनाफा १५.४१ करोड़ का हुआ ।
इन बाघ अभयारण्यों में आदिवासियों को उजाड़कर किस तरह होटल व लॉजों की श्रृंखला खड़ी की गई है, इसकी फेहरिस्त गौरतलब है । कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में ६० होटल, रिसॉर्ट व लॉज है, बांधवगढ़ में ४०, पन्ना में ४, पेंच में ३०, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान पचमढ़ी में २०० रिसॉर्ट और लगभग ५० होटल हैं । अकेला संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान ऐसा अपवाद है, जिसमें पर्यटकों के ठहरने की कोई सुविधा नहीं है । शिवपुरी में मध्यप्रदेश पर्यटन निगम का होटल पर्यटन ग्राम और वन विभाग का सैलिंग क्लब है ।
वन क्षेत्रों में व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के विरूद्ध कानून हैं । इनके बावजूद पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से पर्यटन कारोबारियों को लगातार प्रोत्साहित किया जाता रहा है । यही नहीं, राज्य सरकारें अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से भू-उपयोग संंबंधी नियमों को बदलकर खनन और कारोबार की इजाजत देती रही है । जाहिर है, सरकारों को बाघ और विस्थापित वनवासियों की बजाए पर्यटन और उससे होने वाली आय की चिंता ज्यादा रहती है । ऐसी ही गतिविधियों की ओट में शिकारी अपना जाल जंगल के अंदरूनी इलाकों में फैलालेते हैं और वन्य जीवों का शिकार सहजता से कर लेते हैं । रणथंभौर, सरिस्का, कान्हा, बांधवगढ़ और पन्ना में ऐसे ही हालातों के चलते बाघ का शिकार आसान हुआ और इनकी संख्या घटी ।
हालांकि बाघों की संख्या घटने के लिए केवल पर्यटन उद्योग को दोषी ठहराना गलत है । खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाएं भी बाघों की संख्या पर अंकुश लगाने का कारण बनी हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघों के प्राकृतवास भी सिकुड़ रहे हैं ।
इन्हीं वजहों से बाघ यदा-कदा रिहाइशी इलाकों में दाखिल होकर हल्ला बोल देते हैं । खनन और राजमार्ग परियोजना के लिए जितने गांवों और वनवासियों को उजाड़ा गया है, उससे चार गुना ज्यादा नई मानव बसाहटें बाघ व आरक्षित वन क्षेत्रों में बढ़ी हैं । पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग और शिवपुरी में पत्थर खनन तथा राष्ट्रीय राजमार्ग, तडोबा में कोयला खनन और उत्तरप्रदेश, हिमाचल व उत्तराखण्ड के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी व दवा माफिया बाघों के लिए जबरदस्त संकट बने हुए हैं ।
इसके बावजूद खनिज परियोजनाआें के विरूद्ध बुलंदी से न तो राजनीतिज्ञों की ओर से आवाज उठ रही है और न ही वन अमले की तरफ से ? हां, इसके उलट सर्वोच्च् न्यायालय का आदेश जारी होने के बाद पचमढ़ी से जरूर इस आदेश के विरूद्ध आवाज मुखर हुई है, वह भी पर्यटन लॉबी की ओर से ।
दरअसल पचमढ़ी में यदि यह आदेश अमल में लाया जाता है तो २०० होटल तो नेस्तनाबूद होंगे ही, ४२ गांवों को भी विस्थापित किया जाएगा । इसलिए मध्यप्रदेश सरकार की ओर से शीर्षस्थ न्यायालय में अर्जी लगाई है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर रखा जाए । जाहिर है, राज्य सरकारों को बाघ संरक्षण से ज्यादा पर्यटन उद्योग और उससे जुड़े कारोबारियों की चिंता है ।
जंगल में बाघ बचें या पर्यटन
प्रमोद भार्गव
अब तक बाघों व अन्य दुर्लभ वन्य प्राणियों को प्राकृतिक परिवेश परविेश उपलब्ध कराने के बहाने जंगलों में आदिकाल से रहते आ रहे वनवासियों को निर्दयता से उजाझा जाता रहा है और कोई उफ तक नहीं करता । किन्तु जब देश के सर्वोच्च् न्यायालय ने बाघ संरक्षित क्षेत्रों के अंदरूनी इलाकों में पर्यटन पर प्रतिबंध का अंतिरम किन्तु बाध्यकारी आदेश दिया तो पर्यटन से मोटी कमाई में लगे शासन - प्रशासन की भृकुटियांतन गई ।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस फैसले के विरूद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने का ऐलान कर दिया । यही नहीं, उन्होंने दलील दी कि इस रोक से घने जंगलों में नक्सली गतिविधियां बढ़ सकती हैं और जिन आदिवासियों को पर्यटन से रोजगार मिलता है उन्हें आर्थिक संकट से जूझना होगा ।
दरअसल ये आशंकाएं बेबुनियाद हैं । हकीकत यह है कि पर्यटन को लगातार बढ़ावा दिए जाने से ही बाघों की संख्या घटी है । वर्ष २००० में अकेले मध्यप्रदेश में करीब ७०० बाघ थे, जो २०११ में घटकर २५७ रह गए । दरअसल लोगों के बेरोजगार हो जाने या नक्सली समस्या के पनप जाने से बड़ा संकट उन व्यवसायियों को है, जिन्होंने वन्य प्राणी अधिनियम १९७२ की अवहेलना कर बाघ के प्राकृत वास में होटल और रिसॉर्ट स्थापित किए हैं ।
यह आदेश न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और इब्राहिम खली उल्लाह की खण्डपीठ ने प्रयत्न संस्था की जनहित याचिका पर वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम १९७२ की धारा ३८ के अन्तर्गत दिया है । याचिका में दलील दी गई थी कि अंदरूनी क्षेत्रों में पर्यटन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि मानवीय हलचल से बाघ के स्वाभाविक जीवन पर विपरीत असर पड़ता है और उनका प्रजजन प्रभावित होता है । यही वजह है कि देश के सभी बाघ अभ्यारण्यों में बाघों की संख्या घट रही है । मूल रूप से यह याचिका पन्ना और मध्यप्रदेश के सभी बाघ संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटन पर रोक लगवाने की दृष्टि से जबलपुर उच्च् न्यायालय में लगाई गई थी, लेकिन पर्यटन से प्रदेश के लाभ को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया था ।
इसी याचिका की सुनवाई में सर्वोच्च् न्यायालय ने निर्देश दिया है कि तीन सप्तह के भीतर बाघ संरक्षित क्षेत्रों में कोर और बफर क्षेत्र सुनिश्चित किए जांए, वरना यह न्यायालय की अवमानना मानी जाएगी । दरअसल इसी न्यायालय ने अप्रैल २०१२ में भी उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, तमिलनाडु और कर्नाटक को कोर व बफर क्षेत्र तय करने के आदेश दिए थे, लेकिन राजस्थान के अलावा अन्य किसी राज्य सरकार ने ऐसा नहींकिया था । इसलिए न्यायालय ने इस बार कड़ा कदम उठाते हुए बाध्यकारी आदेश दिया ।
शीषर्स्थ न्यायालय से आदेश जारी होने के साथ ही विरोध के स्वर भी मुखर होना शुरू हो गए हैं । मध्यप्रदेश का विश्व प्रसिद्ध हिल स्टेशन पचमढ़ी एक दिन के लिए बंद रहा है और लोगोंने न्यायालयीन आदेश के विरूद्ध रैली भी निकाली । स्थानीय लोगों का मानना है कि इस प्रतिबंध से पचमढ़ी में बेरोजगारी बढ़ेगी । विरोध के स्वरोंको बल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उस बयान से मिला है जो उन्होनेंपर्यटन पर प्रतिबंध को लोगों की आजीविका से जोड़कर दिया था । उन्होंने इस तथ्य पर भी सवाल उठाया कि केवलप्रतिबंध से ही राष्ट्रीय पशु बाघ को नहीं बचाया जा सकता, उल्टे वह संकट से घिर जाएगा । पर्यटन नहीं होगा तो लोगों का बाघ के प्रति रूझान बदल जाएगा । यदि बाघ ग्रामीणों के मवेशियों को खाएंगे तो लोग बाघ से छुटकारे के लिए पानी में जहर मिलाकर उसे मारने की कोशिश करेंगे ।
मुख्यमंत्री इस बयान के जरिए उस पर्यटन उद्योग को बचाना चाहते हैं, जिससे मध्यप्रदेश शासन को सालाना ४०० करोड़ की आमदनी होने लगी है । हैरानी इस बात पर है कि अब तक करीब चार करोड़ आदिवासियों को अभयारण्यों, बांधों, राजमार्गो और औद्योगिक स्थापनाआें के लिए उजाड़ा गया है, लेकिन अपवादस्वरूप ऐसा एकाध ही मामला हो सकता है जिसमें किसी आदिवासी ने बाघ या तेंदुए को जहर देकर मारा हो । जबकि अपने मूल निवास स्थलों से उजड़ने के बाद इनकी आमदनी बेतहाशा घटी है ।
सतपुड़ा बाघ अभयारण्य से विस्थापितों के जीवन स्तर के आकलन में पाया गया कि इनकी आमदनी में ५० से ९० प्रतिशत तक की कमी आई है । कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर अभयारण्य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को दो दिन में एक ही मर्तबा बमुश्किल भोजन नसीब हो पा रहा है । इसके बावजूद यह कहीं देखने में नहीं आया कि इन लाचार लोगों ने बाघ की जिन्दगी को जोखिम में डालकर अपनी रोजी-रोटी के हित साधे हो ।
इसके उलट मध्यप्रदेश के ही पन्ना और उच्च्ेहरा में बाघ के शिकार के साथ शिकारी भी पकड़ा गया था । किन्तु वह भाग निकला अथवा भगा दिया गया । इसके बाद समाचार माध्यमोंके जरिए जो जानकारियां सामने आई उनसे पता चला कि आला वनाधिकारियों की मिलिभगत से कुख्यात डकैत ठोकिया ने अन्तर्राष्ट्रीय वन्य प्राणी तस्कर संसारचंद और शब्बीर के लिए बाघोंकी हत्या की है । मामला उछला तो शासन ने एक समीति से जांच भी कराई । जांच में शिकारियों के साथ पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के संचालकों की मिलीभगत और भोपाल में शिकार की जानकारी मिलने के बावजूद तमाशाबीन बने बैठे रहे वनाधिकारियों को भी दोषी ठहराया गया । १६० पृष्ठीय इस जांच प्रतिवेदन के आधार पर वनमंत्री सरताजसिंह ने इस मामले की जांच सीबीआई से कराने का फैसला लिया और राज्य सरकार के पास कार्यवाही को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव भेज दिया, लेकिन राज्य सरकार इस प्रस्ताव पर दो साल से कुंडली मारकर बैठी हुई है ।
यदि जांच शुरू होती तो वनाधिकारियों के चेहरों से नकाब उतरते और शिकारी, तस्कर व वनाधिकारियों के गठजोड़ के हौसले पस्त होते । सर्वोच्च् न्यायालय के इस आदेश के बाद यह उम्मीद जगी है कि यदि देश के उद्यानों व अभयारण्यों में कोर क्षेत्रों का सीमांकन कर दिया जाए, तो बाघ और तेंदुए जैसे दुर्लभ प्राणियों की संख्या में वृद्धि होगी । दरअसल बाघ संरक्षित क्षेत्रों के दायरे में आने वाला यह कोर वनखण्ड वह क्षेत्र होता है, जहां बाघ चहल-कदमी करता है, आहार के लिए शिकार करता है, जोड़ा बनाता है और फिर इसी प्रांत की किसी सुरक्षित खोह में आराम फरमाता है । यह क्षेत्र १० वर्ग किलोमीटर तक हो सकता है । न्यायालय ने इसे ही बाघों का अंदरूनी इलाका मानते हुए, इसे अधिसूचित करने के साथ, इसे पर्यटन के लिए प्रतिबंधित किया है ।
दरअसल अभी तक हमारे यहां उद्यानों और अभयारण्यों को लेकर विरोधाभासी व पक्षपाती रवैया अपनाया जाता रहा है । वनवासियों को तो वन या वन्य प्राणियों के संरक्षण के बहाने लगातार विस्थापित किया जाता रहा है, जिनके जीवन का आधार ही जंगल है । किन्तु पर्यटन को बढ़ावा देने तथा उसे नवधनाढयों के लिए सुविधा सम्पन्न बनाने की दृष्टि से राज्य सरकारें होटल, रिसॉर्ट और मनोरंजन पार्क बनाने की खुली छूट देती रहीं । यदि उद्यानों में तालाब हैं तो उनमें नौका विहार की खुली छुट दी गई है । इस छूट के चलते जिन बाघ संरक्षित क्षेत्रोंसे गांवों और वनवासियों को बेदखल किया गया था, उन क्षेत्रों में देखते-देखते पर्यटन सुविधाआें के जंगल उगा दिए गए ।
अकेले मध्यप्रदेश की ही बात करें तो बाघ दर्शन के प्रेमी सैलानियोंसे ही सालान ४०० करोड़ रूपए का पर्यटन उद्योग संचालित है । वन विभाग के आंकड़ो के मुताबिक २०१०-११ में केवल छह बाघ संरक्षित उद्यानों में १२ लाख देशी और एक लाख विदेशी सैलानी घूमने गए । इनमें भोपाल का वन विहार भी शामिल है जहां दुर्लभ सफेद शेर को देखने सैलानी आते हैं । इस उद्योग से राज्य सरकार को शुद्ध मुनाफा १५.४१ करोड़ का हुआ ।
इन बाघ अभयारण्यों में आदिवासियों को उजाड़कर किस तरह होटल व लॉजों की श्रृंखला खड़ी की गई है, इसकी फेहरिस्त गौरतलब है । कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में ६० होटल, रिसॉर्ट व लॉज है, बांधवगढ़ में ४०, पन्ना में ४, पेंच में ३०, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान पचमढ़ी में २०० रिसॉर्ट और लगभग ५० होटल हैं । अकेला संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान ऐसा अपवाद है, जिसमें पर्यटकों के ठहरने की कोई सुविधा नहीं है । शिवपुरी में मध्यप्रदेश पर्यटन निगम का होटल पर्यटन ग्राम और वन विभाग का सैलिंग क्लब है ।
वन क्षेत्रों में व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के विरूद्ध कानून हैं । इनके बावजूद पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से पर्यटन कारोबारियों को लगातार प्रोत्साहित किया जाता रहा है । यही नहीं, राज्य सरकारें अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से भू-उपयोग संंबंधी नियमों को बदलकर खनन और कारोबार की इजाजत देती रही है । जाहिर है, सरकारों को बाघ और विस्थापित वनवासियों की बजाए पर्यटन और उससे होने वाली आय की चिंता ज्यादा रहती है । ऐसी ही गतिविधियों की ओट में शिकारी अपना जाल जंगल के अंदरूनी इलाकों में फैलालेते हैं और वन्य जीवों का शिकार सहजता से कर लेते हैं । रणथंभौर, सरिस्का, कान्हा, बांधवगढ़ और पन्ना में ऐसे ही हालातों के चलते बाघ का शिकार आसान हुआ और इनकी संख्या घटी ।
हालांकि बाघों की संख्या घटने के लिए केवल पर्यटन उद्योग को दोषी ठहराना गलत है । खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाएं भी बाघों की संख्या पर अंकुश लगाने का कारण बनी हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघों के प्राकृतवास भी सिकुड़ रहे हैं ।
इन्हीं वजहों से बाघ यदा-कदा रिहाइशी इलाकों में दाखिल होकर हल्ला बोल देते हैं । खनन और राजमार्ग परियोजना के लिए जितने गांवों और वनवासियों को उजाड़ा गया है, उससे चार गुना ज्यादा नई मानव बसाहटें बाघ व आरक्षित वन क्षेत्रों में बढ़ी हैं । पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग और शिवपुरी में पत्थर खनन तथा राष्ट्रीय राजमार्ग, तडोबा में कोयला खनन और उत्तरप्रदेश, हिमाचल व उत्तराखण्ड के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी व दवा माफिया बाघों के लिए जबरदस्त संकट बने हुए हैं ।
इसके बावजूद खनिज परियोजनाआें के विरूद्ध बुलंदी से न तो राजनीतिज्ञों की ओर से आवाज उठ रही है और न ही वन अमले की तरफ से ? हां, इसके उलट सर्वोच्च् न्यायालय का आदेश जारी होने के बाद पचमढ़ी से जरूर इस आदेश के विरूद्ध आवाज मुखर हुई है, वह भी पर्यटन लॉबी की ओर से ।
दरअसल पचमढ़ी में यदि यह आदेश अमल में लाया जाता है तो २०० होटल तो नेस्तनाबूद होंगे ही, ४२ गांवों को भी विस्थापित किया जाएगा । इसलिए मध्यप्रदेश सरकार की ओर से शीर्षस्थ न्यायालय में अर्जी लगाई है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर रखा जाए । जाहिर है, राज्य सरकारों को बाघ संरक्षण से ज्यादा पर्यटन उद्योग और उससे जुड़े कारोबारियों की चिंता है ।
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