पर्यावरण परिक्रमा
अब बिना पायलट के हवाई सफर
क्या आप पायलट रहित हवाई सफर के लिए तैयार है । हो सकता है कि आने वाले चंद सालों में यात्री विमानों में भी पायलट नहीं हो । चूंकि अब नागरिक विमानों में भी पायलट रहित उड़ान की वही तकनीक इस्तेमाल की जा रही है जो सैन्य विमान ड्रोन में है । इससे निश्चित रूप से हवाई सफर का खर्च कम होगा और उड़ान संबंधी सेवाआें में नई क्रांति आएगी ।
ब्रिटेन सरकार समर्थित (करीब ५५१८ करोड़ रूपये) इस परियोजना का परीक्षण दिसंबर से स्क ॉटलैंड में शुरू होगा । इसलिए भविष्य के पायलट रहित विमानों को सैकड़ों मील दूर नियंत्रण कक्ष में बैठे पायलट रिमोट से ही नियंत्रित कर सकेंगे ।
ड्रोन विमान की नई तकनीक वाले नई पीढ़ी के यात्री विमानों की इस परियोजना से जुड़े लोगों का मानना है कि परीक्षण सफल होने के बाद हवाई यात्रा में नए युग की शुरूआत होगी । इससे हवाई यात्राआें के खर्च में कटौती के अलावा मानवीय त्रुटियों के कारण होने वाले हादसे रूकेंगे । उससे भी अधिक जरूरी पायलटों के रहते कभी भी एक उड़ान आठ घंटे से अधिक की नहीं हो सकती है । लेकिन ऐसा नहीं होने पर ये रूकावट भी दूर हो जाएगी और हवाई यात्रांए बिना किसी अंतराल के एकमुश्त की जा सकेगी । बिना रूके लंबी उड़ानों का चलन भी शुरू होगा । हालांकि उनका यह भी कहना है कि पायलट के बगैर उड़ान खतरनाक हो सकती है ।
पायलट रहित यात्री विमानों में एक नए उपकरण री-टाइमर का इस्तेमाल होगा । इससे यात्री घंटो की उड़ान के बाद भी विमान से उतरने पर खुद को तरोताजा महसूस करेगें । ब्रिटेन से सीधे ऑस्ट्रेलिया तक की दूरी तय करने के बावजूद वह थकान महसूस नहीं करेगे । री-टाइमर की तकनीक ईजाद करने वाले प्रोफेसर लीयोन लैक का कहना है कि उड़ान के दौरान खास चश्मे पहनने होगे जिससे अनिद्रा से पीड़ित लोगों को भी ये राहत देंगे ।
दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की फिल्नडर्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताआें ने बताया कि २५ घंटे के बॉडी क्लॉक को भी दिमाग पर चश्मे से पहुंचने वाली तरंगे प्रभावित करेगी और थकान नहीं होगी । छोटे चरणों में शरीर को नए टाइम जोन के लिए तैयार किया जाएगा ।
पायलट रहित इस विमान की एक और तकनीक में ऑस्ट्रिया जेट स्ट्रीम से वीडियो कैमरा मे दर्ज फोटो को पहचनान कर उसके अनुरूप फैसले लेने का भी दमखम होगा । छवि पहचानने वाले इस सॉफ्टवेयर का परीक्षण पहले से ऑयरलैंड के समुद्र के ऊपर उड़ान भर के किया जा चुका है । आयरलैंड के समुद्र के ऊपर कुछ अन्य परीक्षण अभी किए जाने बाकी है । अभी मानवरहित विमान को किसी वस्तु या अन्य उड़ती हुई चीज से टकराने के हालात उत्पन्न करके परीक्षण करना बाकी है । हालांकि परीक्षणों में अब तक के नतीजे बताते है कि मशीनें भी त्वरित गति से कठिन और सही फैसलेले सकती है ।
चंद कंपनियोंके हाथ में४० प्रतिशत अर्थव्यवस्था
आमतौर पर माना जाता है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को चलाने में रसूखदार और शक्तिशाली देशों का हाथ रहता है । लेकिन आपको यकीन नहीं होगा कि ४० फीसदी अर्थव्यवस्था को शक्तिशाली देश नहीं बल्कि कुछ कंपनियां चला रही है । एक नए शोध में इस बात का खुलासा किया गया है कि १४७ कंपनियों के हाथ में दुनिया की ४० फीसदी अर्थव्यवस्था है ।
यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख के एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है जिसमें कहा गया है विश्व की कुल अर्थव्यवस्था में से ४० फीसदी की कमान महज १४७ कंपनियों के हाथ में है । खास बात ये है कि १४७ में अधिकतर वित्तीय संस्थाएं यानी की बैंक और फाइनेंस कंपनियां है । शोध में कहा गया है कि १४७ कंपनियों में से २० कंपनियां वित्तीय सेक्टर से ताल्लुक रखती है । इनमें जिनमें गोल्डमैन सैक्स और बार्कले जैसी कंपनियां प्रमुख है । यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख ने अपने अध्ययन में ४३,०६० कंपनियों को शामिल किया । इनमें १३१८ उद्योगों को सबसे ज्यादा ताकतवर माना गया है । जबकि २० सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाएं (बैंक) शामिल है । इस सूची के अनुसार ४० फीसदी अर्थव्यवस्था १४७ कंपनियों के निमंत्रण में संचालित हो रही है । ये १४७ कंपनियां भी एक गठजोड़ की तरह काम कर रही है और ४० फीसदी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रही है । हालांकि ये गठजोड़ अब खत्म होने के कगार पर आ गया है लेकिन फिर भी ये काफी प्रभावी है ।
कैंसर मनुष्यों को ही क्यों ?
टेक्सास साउथवेस्टर्न विश्वविद्यालय मेडिकल सेंटर के जेनेविएक कोनोप्का और उनके साथियों ने मनुष्यों और चिपैंजियों के डीएनए का विश्लेषण करके एक अनोखी बात का पता लगाया है । उन्होनें यह समझने का प्रयास किया है कि जब इंसान और चिपैंजियों के अधिकांश जीन्स एक से हैं, तो कैंसर जैसी कुछ बीमारियां मनुष्यों को ही क्यों ज्यादा प्रभावित करती है ।
कोनोप्का व साथियों का मत है कि इन दो प्रजातियों के बीच मुख्य फर्क जिनेटिक संरचना का नहीं बल्कि उस जिनेटिक संरचना में हुए कुछ अतिरिक्त परिवर्तनों का है । इन्हें एपि-जिनेटिक परिवर्तन कहते हैं और ये पर्यावरण के कारण होते हैं ।
इस तरह के एक परिवर्तन में मिथाइल समूह डीएनए से जुड़ जाते हैं । इसे डीएनए-मिथाइलेशन कहते हैं । जिस जीन का मिथाइलेशन हो जाता है उसके अभिव्यक्त होने की संभावना कम हो जाती है । अर्थात वह जीन डीएनए में मौजूद तो होता है मगर अपना काम यानी संबंधित प्रोटीन का निर्माण नहीं कर पाता ।
कोनोप्का के दल ने मानव और चिपैंजियों के दिमाग के एक हिस्से प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स - में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का आकलन करने पर पाया कि मनुष्यों का यह भाग अपेक्षाकृत कम मिथाइलेटेड होता है । थोड़ा और बारीकी से देखने पर पता चला कि मनुष्यों और चिपैंजियों के जिन जीन्स के मिथाइलेशन में अंतर है, वे ऐसे जीन्स हैं जिनका संबंध संज्ञान संबंधी गड़बड़ियों और कतिपय कैंसर से है ।
टीम का मत है कि अपेक्षाकृत अधिक मिथाइलेशन होने की वजह से चिपैंजियों में ये जीन अभिव्यक्त नहीं होते या कम अभिव्यक्त होते हैं जबकि इंसानों में इनकी अभिव्यक्ति अधिक होती है । जब ये जीन्स अभिव्यक्ति होते हैं तो कैंसर जैसी स्थितियां उभरने की संभावना बढ़ती है ।
कोनोप्का व उनके साथियों की राय है कि उनके इस अनुसंधान से यह समझने में मदद मिलती है कि मनुष्यों के दिमाग के विकास में मिथाइलेशन की एक प्रमुख भूमिका रही है ।
जुगनू क्यों चमकते है
रात के समय पेड-पौधों के झरमुट के आसपास चमकते हुए जुगनुआें को तो आपने देखा ही होगा । जुगनू के बारे मेंतो आप सब जानते ही होंगे । जुगनुआें के चमकने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अपने साथी को आकषित करना, अपने लिए भोजन तलाशना होता है । ये जुगनू आजकल शहरों में कम ही दिखते हैं । इन्हें ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में देखा जा सकता है ।
वर्ष १९६७ में इस चमकने वाले कीट की खोज वैज्ञानिक रॉबर्ट बायल ने की थी । पहले यह माना जाता था कि जुगनुआें के शरीर में फास्फोरस होता है, जिसकी वजह से यह चमकते हैं, परन्तु इटली के वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि जुगनू की चमक फास्फोरस से नहीं, बल्कि ल्युसिफेरेस नामक प्रोटीनों के कारण होता है । जुगनू की चमक का रंग हरा, पीला, लाल तरह का होता है । ये अधिकांश रात में ही चमकते हैं । दिखने में यह एकदम पतले और दो पंख वाले होते हैं । ये जंगलों में पेड़ों की छाल में अपने अंडे देते हैं । जुगनू की तरह ही चमकने वाले ऐसे कई जीव हैं । जुगनू की तरह ही रोशनी देने वाले जीवों की एक हजार प्रजातियों की खोज की जा चुकी है जिनमें से कुछ प्रजांतियां पृथ्वी के ऊपर व कुछ समुद्र की गहराईयों में भी पाई जाती है ।
अब बिना पायलट के हवाई सफर
क्या आप पायलट रहित हवाई सफर के लिए तैयार है । हो सकता है कि आने वाले चंद सालों में यात्री विमानों में भी पायलट नहीं हो । चूंकि अब नागरिक विमानों में भी पायलट रहित उड़ान की वही तकनीक इस्तेमाल की जा रही है जो सैन्य विमान ड्रोन में है । इससे निश्चित रूप से हवाई सफर का खर्च कम होगा और उड़ान संबंधी सेवाआें में नई क्रांति आएगी ।
ब्रिटेन सरकार समर्थित (करीब ५५१८ करोड़ रूपये) इस परियोजना का परीक्षण दिसंबर से स्क ॉटलैंड में शुरू होगा । इसलिए भविष्य के पायलट रहित विमानों को सैकड़ों मील दूर नियंत्रण कक्ष में बैठे पायलट रिमोट से ही नियंत्रित कर सकेंगे ।
ड्रोन विमान की नई तकनीक वाले नई पीढ़ी के यात्री विमानों की इस परियोजना से जुड़े लोगों का मानना है कि परीक्षण सफल होने के बाद हवाई यात्रा में नए युग की शुरूआत होगी । इससे हवाई यात्राआें के खर्च में कटौती के अलावा मानवीय त्रुटियों के कारण होने वाले हादसे रूकेंगे । उससे भी अधिक जरूरी पायलटों के रहते कभी भी एक उड़ान आठ घंटे से अधिक की नहीं हो सकती है । लेकिन ऐसा नहीं होने पर ये रूकावट भी दूर हो जाएगी और हवाई यात्रांए बिना किसी अंतराल के एकमुश्त की जा सकेगी । बिना रूके लंबी उड़ानों का चलन भी शुरू होगा । हालांकि उनका यह भी कहना है कि पायलट के बगैर उड़ान खतरनाक हो सकती है ।
पायलट रहित यात्री विमानों में एक नए उपकरण री-टाइमर का इस्तेमाल होगा । इससे यात्री घंटो की उड़ान के बाद भी विमान से उतरने पर खुद को तरोताजा महसूस करेगें । ब्रिटेन से सीधे ऑस्ट्रेलिया तक की दूरी तय करने के बावजूद वह थकान महसूस नहीं करेगे । री-टाइमर की तकनीक ईजाद करने वाले प्रोफेसर लीयोन लैक का कहना है कि उड़ान के दौरान खास चश्मे पहनने होगे जिससे अनिद्रा से पीड़ित लोगों को भी ये राहत देंगे ।
दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की फिल्नडर्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताआें ने बताया कि २५ घंटे के बॉडी क्लॉक को भी दिमाग पर चश्मे से पहुंचने वाली तरंगे प्रभावित करेगी और थकान नहीं होगी । छोटे चरणों में शरीर को नए टाइम जोन के लिए तैयार किया जाएगा ।
पायलट रहित इस विमान की एक और तकनीक में ऑस्ट्रिया जेट स्ट्रीम से वीडियो कैमरा मे दर्ज फोटो को पहचनान कर उसके अनुरूप फैसले लेने का भी दमखम होगा । छवि पहचानने वाले इस सॉफ्टवेयर का परीक्षण पहले से ऑयरलैंड के समुद्र के ऊपर उड़ान भर के किया जा चुका है । आयरलैंड के समुद्र के ऊपर कुछ अन्य परीक्षण अभी किए जाने बाकी है । अभी मानवरहित विमान को किसी वस्तु या अन्य उड़ती हुई चीज से टकराने के हालात उत्पन्न करके परीक्षण करना बाकी है । हालांकि परीक्षणों में अब तक के नतीजे बताते है कि मशीनें भी त्वरित गति से कठिन और सही फैसलेले सकती है ।
चंद कंपनियोंके हाथ में४० प्रतिशत अर्थव्यवस्था
आमतौर पर माना जाता है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को चलाने में रसूखदार और शक्तिशाली देशों का हाथ रहता है । लेकिन आपको यकीन नहीं होगा कि ४० फीसदी अर्थव्यवस्था को शक्तिशाली देश नहीं बल्कि कुछ कंपनियां चला रही है । एक नए शोध में इस बात का खुलासा किया गया है कि १४७ कंपनियों के हाथ में दुनिया की ४० फीसदी अर्थव्यवस्था है ।
यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख के एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है जिसमें कहा गया है विश्व की कुल अर्थव्यवस्था में से ४० फीसदी की कमान महज १४७ कंपनियों के हाथ में है । खास बात ये है कि १४७ में अधिकतर वित्तीय संस्थाएं यानी की बैंक और फाइनेंस कंपनियां है । शोध में कहा गया है कि १४७ कंपनियों में से २० कंपनियां वित्तीय सेक्टर से ताल्लुक रखती है । इनमें जिनमें गोल्डमैन सैक्स और बार्कले जैसी कंपनियां प्रमुख है । यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख ने अपने अध्ययन में ४३,०६० कंपनियों को शामिल किया । इनमें १३१८ उद्योगों को सबसे ज्यादा ताकतवर माना गया है । जबकि २० सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाएं (बैंक) शामिल है । इस सूची के अनुसार ४० फीसदी अर्थव्यवस्था १४७ कंपनियों के निमंत्रण में संचालित हो रही है । ये १४७ कंपनियां भी एक गठजोड़ की तरह काम कर रही है और ४० फीसदी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रही है । हालांकि ये गठजोड़ अब खत्म होने के कगार पर आ गया है लेकिन फिर भी ये काफी प्रभावी है ।
कैंसर मनुष्यों को ही क्यों ?
टेक्सास साउथवेस्टर्न विश्वविद्यालय मेडिकल सेंटर के जेनेविएक कोनोप्का और उनके साथियों ने मनुष्यों और चिपैंजियों के डीएनए का विश्लेषण करके एक अनोखी बात का पता लगाया है । उन्होनें यह समझने का प्रयास किया है कि जब इंसान और चिपैंजियों के अधिकांश जीन्स एक से हैं, तो कैंसर जैसी कुछ बीमारियां मनुष्यों को ही क्यों ज्यादा प्रभावित करती है ।
कोनोप्का व साथियों का मत है कि इन दो प्रजातियों के बीच मुख्य फर्क जिनेटिक संरचना का नहीं बल्कि उस जिनेटिक संरचना में हुए कुछ अतिरिक्त परिवर्तनों का है । इन्हें एपि-जिनेटिक परिवर्तन कहते हैं और ये पर्यावरण के कारण होते हैं ।
इस तरह के एक परिवर्तन में मिथाइल समूह डीएनए से जुड़ जाते हैं । इसे डीएनए-मिथाइलेशन कहते हैं । जिस जीन का मिथाइलेशन हो जाता है उसके अभिव्यक्त होने की संभावना कम हो जाती है । अर्थात वह जीन डीएनए में मौजूद तो होता है मगर अपना काम यानी संबंधित प्रोटीन का निर्माण नहीं कर पाता ।
कोनोप्का के दल ने मानव और चिपैंजियों के दिमाग के एक हिस्से प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स - में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का आकलन करने पर पाया कि मनुष्यों का यह भाग अपेक्षाकृत कम मिथाइलेटेड होता है । थोड़ा और बारीकी से देखने पर पता चला कि मनुष्यों और चिपैंजियों के जिन जीन्स के मिथाइलेशन में अंतर है, वे ऐसे जीन्स हैं जिनका संबंध संज्ञान संबंधी गड़बड़ियों और कतिपय कैंसर से है ।
टीम का मत है कि अपेक्षाकृत अधिक मिथाइलेशन होने की वजह से चिपैंजियों में ये जीन अभिव्यक्त नहीं होते या कम अभिव्यक्त होते हैं जबकि इंसानों में इनकी अभिव्यक्ति अधिक होती है । जब ये जीन्स अभिव्यक्ति होते हैं तो कैंसर जैसी स्थितियां उभरने की संभावना बढ़ती है ।
कोनोप्का व उनके साथियों की राय है कि उनके इस अनुसंधान से यह समझने में मदद मिलती है कि मनुष्यों के दिमाग के विकास में मिथाइलेशन की एक प्रमुख भूमिका रही है ।
जुगनू क्यों चमकते है
रात के समय पेड-पौधों के झरमुट के आसपास चमकते हुए जुगनुआें को तो आपने देखा ही होगा । जुगनू के बारे मेंतो आप सब जानते ही होंगे । जुगनुआें के चमकने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अपने साथी को आकषित करना, अपने लिए भोजन तलाशना होता है । ये जुगनू आजकल शहरों में कम ही दिखते हैं । इन्हें ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में देखा जा सकता है ।
वर्ष १९६७ में इस चमकने वाले कीट की खोज वैज्ञानिक रॉबर्ट बायल ने की थी । पहले यह माना जाता था कि जुगनुआें के शरीर में फास्फोरस होता है, जिसकी वजह से यह चमकते हैं, परन्तु इटली के वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि जुगनू की चमक फास्फोरस से नहीं, बल्कि ल्युसिफेरेस नामक प्रोटीनों के कारण होता है । जुगनू की चमक का रंग हरा, पीला, लाल तरह का होता है । ये अधिकांश रात में ही चमकते हैं । दिखने में यह एकदम पतले और दो पंख वाले होते हैं । ये जंगलों में पेड़ों की छाल में अपने अंडे देते हैं । जुगनू की तरह ही चमकने वाले ऐसे कई जीव हैं । जुगनू की तरह ही रोशनी देने वाले जीवों की एक हजार प्रजातियों की खोज की जा चुकी है जिनमें से कुछ प्रजांतियां पृथ्वी के ऊपर व कुछ समुद्र की गहराईयों में भी पाई जाती है ।
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