ज्ञान विज्ञान
दिमाग की सफाई की व्यवस्था
यह आश्चर्य की बात ही है कि आज तक दिमाग की सफाई व्यवस्था नही पहचानी गई गई । दिमाग जैसे महत्वपूर्ण अंग में ऐसा कोई तंत्र न होना समझ से परे था जबकि पूरे शरीर में से अपशिष्ट पदार्थो को निकालने के लिए लसिका तंत्र होता है । मगर अब स्थिति बदल गई है । न्यूयॉर्क के रोचेस्टर मेडिकल सेंटर के जेफ्री इलिफ और उनके साथियों ने कम से कम चूहों में इस व्यवस्था को देख लिया है और लगता है कि इसका अध्ययन अल्जाइमर रोग के उपचार में सहायक हो सकता है ।
श्री इलिफ ने भी जब चूहे के मस्तिष्क का विच्छेदन किया तो उन्हें भी यह देखकर अचंभा हुआ कि दिमाग जैसे अहम अंग की सफाई के लिए कोई नालियां वगैरहा नहीं हैं । मगर जब इन्हीं शोधकर्ताआें ने जीवित चूहे के सेरेब्रोस्पाइनल द्रव (मस्तिष्क व मेरूरज्जू में भरा तरल पदार्थ) में कुछ ऐसे पदार्थ डाले जो चमकते थे और जिनमें रेडियोसक्रिय गुण था तो पूरी बात खुलकर सामने आ गई ।
दिमाग की सफाई की व्यवस्था
यह आश्चर्य की बात ही है कि आज तक दिमाग की सफाई व्यवस्था नही पहचानी गई गई । दिमाग जैसे महत्वपूर्ण अंग में ऐसा कोई तंत्र न होना समझ से परे था जबकि पूरे शरीर में से अपशिष्ट पदार्थो को निकालने के लिए लसिका तंत्र होता है । मगर अब स्थिति बदल गई है । न्यूयॉर्क के रोचेस्टर मेडिकल सेंटर के जेफ्री इलिफ और उनके साथियों ने कम से कम चूहों में इस व्यवस्था को देख लिया है और लगता है कि इसका अध्ययन अल्जाइमर रोग के उपचार में सहायक हो सकता है ।
श्री इलिफ ने भी जब चूहे के मस्तिष्क का विच्छेदन किया तो उन्हें भी यह देखकर अचंभा हुआ कि दिमाग जैसे अहम अंग की सफाई के लिए कोई नालियां वगैरहा नहीं हैं । मगर जब इन्हीं शोधकर्ताआें ने जीवित चूहे के सेरेब्रोस्पाइनल द्रव (मस्तिष्क व मेरूरज्जू में भरा तरल पदार्थ) में कुछ ऐसे पदार्थ डाले जो चमकते थे और जिनमें रेडियोसक्रिय गुण था तो पूरी बात खुलकर सामने आ गई ।
उक्त चमकीले पदार्थ चूहे के मस्तिष्क में फैल गए । शोधकर्ताआें ने इन पदार्थो की गति को देखने के लिए एक विशेष तकनीक का उपयोग किया जिसे टू-फोटॉन सूक्ष्मदर्शी कहते हैं । इस तकनीक की मदद से इलिफ व उनके साथी देख पाए कि पूरे मस्तिष्क में तरल पदार्थ ऐसी नलिकाआें में बहता है जो रक्त नलिकाआें के ईद-गिर्द लिपटी होती हैं । यह लगभग लसिका तंत्र जैसी व्यवस्था है । दिमाग का विच्छेदन करने पर यह तंत्र तहस-नहस हो जाता है और यही कारण रहा है कि मृत प्राणियों में इसे नहीं देखा जा सका था ।
इस प्रक्रिया का आगे अध्ययन करने पर पता चला कि यह लसिका तंत्र एक अन्य तंत्र के साथ मिलकर काम करता है । इस दूसरे तंत्र को निष्क्रिय करने पर लसिका तंत्र भी ठप हो जाता है । इस खोज से यह भी स्पष्ट हुआ कि इस तंत्र के कामकाज में ग्लियल कोशिकाआें की महत्वपूर्ण भूमिका है । ग्लियल कोशिकाएं अपने आप में कम रोचक नहीं है । पहले माना जाता था कि इन कोशिकाआें की कोई खास भूमिका नहीं है मगर आगे चलकर पता चला था कि तंत्रिका कोशिकाआें को सहारा देने और उनकी रक्षा करने में ग्लियल कोशिकाएं भूमिका निभाती हैं । अब इलिफ व साथियों के शोध कार्य से स्पष्ट हुआ है कि ग्लियल कोशिकाएं दिमाग की कचरा निपटान प्रणाली में शामिल हैं । शोधकर्ताआें ने इस व्यवस्था को ग्लिम्फेटिक तंत्र नाम दिया है ।
पता चला है कि ग्लिम्फेटिक तंत्र दिमाग को साफ रखने का काम करता है और इसके द्वारा हटाए जाने वाले पदार्थो में बड़ी मात्रा एमिलॉइड प्रोटीन की होती है । गौरतलब है कि अल्जाइमर रोगियों के दिमाग में एमिलॉइड प्रोटीन जमा होने लगता है । लिहाजा शोधकर्ताआें का विचार है कि अल्जाइमर से निपटने में ग्लिम्फेटिक तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
सौर मण्डल को नापने की नई इकाई
अन्तर्राष्ट्रीय खगोल इकाई (यानी इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल युनिट, एयू) थोडी सी बदलने को है । एयू का मतलब होता है सूरज से पृथ्वी की औसत दूरी । १९७६ से पहले इस इकाई को १,४९,५९,७८,७०,६९१ मीटर माना जाता था और अब यह बदलकर १,४९,५९,७८,७०,७०० मीटर हो गई है । हम देख सकते है कि अंतर महज ९ मीटर का यह अंतर शायद मामूली लगे मगर इसे लागू करने में कई साल लगे हैं । हाल ही में बीजिंग में आयोजित इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन की बैठक में यह नया आंकड़ा स्वीकार किया गया ।
इस प्रक्रिया का आगे अध्ययन करने पर पता चला कि यह लसिका तंत्र एक अन्य तंत्र के साथ मिलकर काम करता है । इस दूसरे तंत्र को निष्क्रिय करने पर लसिका तंत्र भी ठप हो जाता है । इस खोज से यह भी स्पष्ट हुआ कि इस तंत्र के कामकाज में ग्लियल कोशिकाआें की महत्वपूर्ण भूमिका है । ग्लियल कोशिकाएं अपने आप में कम रोचक नहीं है । पहले माना जाता था कि इन कोशिकाआें की कोई खास भूमिका नहीं है मगर आगे चलकर पता चला था कि तंत्रिका कोशिकाआें को सहारा देने और उनकी रक्षा करने में ग्लियल कोशिकाएं भूमिका निभाती हैं । अब इलिफ व साथियों के शोध कार्य से स्पष्ट हुआ है कि ग्लियल कोशिकाएं दिमाग की कचरा निपटान प्रणाली में शामिल हैं । शोधकर्ताआें ने इस व्यवस्था को ग्लिम्फेटिक तंत्र नाम दिया है ।
पता चला है कि ग्लिम्फेटिक तंत्र दिमाग को साफ रखने का काम करता है और इसके द्वारा हटाए जाने वाले पदार्थो में बड़ी मात्रा एमिलॉइड प्रोटीन की होती है । गौरतलब है कि अल्जाइमर रोगियों के दिमाग में एमिलॉइड प्रोटीन जमा होने लगता है । लिहाजा शोधकर्ताआें का विचार है कि अल्जाइमर से निपटने में ग्लिम्फेटिक तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
सौर मण्डल को नापने की नई इकाई
अन्तर्राष्ट्रीय खगोल इकाई (यानी इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल युनिट, एयू) थोडी सी बदलने को है । एयू का मतलब होता है सूरज से पृथ्वी की औसत दूरी । १९७६ से पहले इस इकाई को १,४९,५९,७८,७०,६९१ मीटर माना जाता था और अब यह बदलकर १,४९,५९,७८,७०,७०० मीटर हो गई है । हम देख सकते है कि अंतर महज ९ मीटर का यह अंतर शायद मामूली लगे मगर इसे लागू करने में कई साल लगे हैं । हाल ही में बीजिंग में आयोजित इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन की बैठक में यह नया आंकड़ा स्वीकार किया गया ।
सवाल यह उठता है कि इतने मामूली से अंतर को क्यों तूल दिया जा रहा है । पहले यह देख लें कि एयू का पुराना मान कैसे पता किया गया था । पारंपरिक रूप से एयू की गणना सूरज और पृथ्वी के बीच औसत दूरी (१,४९,५९,७८,७०,६९१ मीटर) के आधार पर की जाती थी । फिर ३६ साल पहले (१९७६ में) एयू के मान की गणना गॅसियन गुरूत्वाकर्षण स्थिरां के आधार पर की गई । दिक्कत यह थी कि गुरूत्वाकर्षण स्थिरांक का मान सूर्य के द्रव्यमान पर निर्भर करता है । ऐसा करने पर एयू का मान सूर्य के द्रव्यमान से जुड़ गया । यह तो जानी-मानी बात है कि सूर्य का द्रव्यमान निरन्तर कम होता रहता है । लिहाजा पृथ्वी से सूर्य की दूरी का आंकड़ा भी बदलता रहेगा ।
मगर गुरूत्वाकर्षण आधारित यह परिभाषा तब तक ज्यादा उपयुक्त थी जब तक हम सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी को बहुत सटीकता से नहीं नाप पाते थे । अब परिस्थितियां बदल गई है ।
ड्रेसडेन तकनीकी विश्वविद्यालय के सर्जाई क्लिओनर सन २००५ से ही यह आग्रह करते आ रहे हैं कि एयू की उक्त परिभाषा सटीक नहीं है और इसे नए ढंग से परिभाषित करना चाहिए । मगर कई खगोलविदों को लगता था कि जैसा है, वैसा ही ठीक है। मगर बीजिंग बैठक में खगोलविदों ने मतदान के आधार पर एयू को एक निश्चित मान दे दिया है जिसके चलते ब्रह्मांड की बाकी दूरियों को भी ज्यादा सटीकता से व्यक्त किया जा सकेगा ।
आखिर कितने सूक्ष्मजीव हैं दुनिया में ?
एक ताजा गणना के मुताबिक समुद्र के पेंदे में सूक्ष्मजीवों की संख्या अरबों खरबों नहीं बल्कि २.९ १०२९
है । शब्दों में कहंें तो इस संख्या का मतलब है कि समुद्रों के पेंदो में धरती के हर मनुष्य के लिए १० करोड़ खरब सूक्ष्मजीव मौजूद हैं । बहुत विशाल आंकड़ा है ना ? मगर यह आकड़ा पूर्व में लगाए गए एक अनुमान (३५.५ १०२९) की तुलना में मात्र ८ प्रतिशत है ।
सूक्ष्मजीवों की कुल संख्या का यह नवीन अनुमान जर्मनी के पॉट्सडैम विश्वविद्यालय के भू-सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जेन्स कालमेयर और उनके साथियोंने प्रासीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंहाल ही में प्रकाशित किया है ।
१५ वर्ष पूर्व एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के विलियम व्हिटमैन ने पृथ्वी पर उपस्थित सूक्ष्मजीवों की संख्या का जो अनुमान लगाया था, उसे लेकर सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों के बीच अविश्वास का भाव था । अब कालमेयर ओर उनके साथियों ने कई नए क्षेत्रों में समुद्र के पेंदे में सुराख करके वहां की तलछट में सूक्ष्मजीवों की गिनती करके नया आंकड़ा पेश किया है ।
मगर गुरूत्वाकर्षण आधारित यह परिभाषा तब तक ज्यादा उपयुक्त थी जब तक हम सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी को बहुत सटीकता से नहीं नाप पाते थे । अब परिस्थितियां बदल गई है ।
ड्रेसडेन तकनीकी विश्वविद्यालय के सर्जाई क्लिओनर सन २००५ से ही यह आग्रह करते आ रहे हैं कि एयू की उक्त परिभाषा सटीक नहीं है और इसे नए ढंग से परिभाषित करना चाहिए । मगर कई खगोलविदों को लगता था कि जैसा है, वैसा ही ठीक है। मगर बीजिंग बैठक में खगोलविदों ने मतदान के आधार पर एयू को एक निश्चित मान दे दिया है जिसके चलते ब्रह्मांड की बाकी दूरियों को भी ज्यादा सटीकता से व्यक्त किया जा सकेगा ।
आखिर कितने सूक्ष्मजीव हैं दुनिया में ?
एक ताजा गणना के मुताबिक समुद्र के पेंदे में सूक्ष्मजीवों की संख्या अरबों खरबों नहीं बल्कि २.९ १०२९
है । शब्दों में कहंें तो इस संख्या का मतलब है कि समुद्रों के पेंदो में धरती के हर मनुष्य के लिए १० करोड़ खरब सूक्ष्मजीव मौजूद हैं । बहुत विशाल आंकड़ा है ना ? मगर यह आकड़ा पूर्व में लगाए गए एक अनुमान (३५.५ १०२९) की तुलना में मात्र ८ प्रतिशत है ।
सूक्ष्मजीवों की कुल संख्या का यह नवीन अनुमान जर्मनी के पॉट्सडैम विश्वविद्यालय के भू-सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जेन्स कालमेयर और उनके साथियोंने प्रासीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंहाल ही में प्रकाशित किया है ।
१५ वर्ष पूर्व एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के विलियम व्हिटमैन ने पृथ्वी पर उपस्थित सूक्ष्मजीवों की संख्या का जो अनुमान लगाया था, उसे लेकर सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों के बीच अविश्वास का भाव था । अब कालमेयर ओर उनके साथियों ने कई नए क्षेत्रों में समुद्र के पेंदे में सुराख करके वहां की तलछट में सूक्ष्मजीवों की गिनती करके नया आंकड़ा पेश किया है ।
श्री व्हिटमैन ओर कालमेयर के अध्ययनों में प्रमुख अंतर यह है कि जहां व्हिटमैन ने अधिकांशत: समुद्र के पोषण-समृद्ध क्षेत्रों को शामिल किया था वहीं कालमेयर ने समुद्री मरूस्थनों का सर्वेक्षण किया है । ये वे क्षेत्र हैं जो पोषक तत्वों के लिहाज से काफी विपन्न हैं । कालमेयर के मुताबिक पूरी धरती पर सूक्ष्मजीवोंकी तादाद ९.२ १०२९ से ३१.७१०२९ के बीच आती है । यह अनुमान पहले के आंकड़े से आधा है । फिर भी धरती पर सूक्ष्मजीवोंे की संख्या विशाल है ।
सूक्ष्मजीवों की इस विशाल संख्या से ही स्पष्ट है कि ये प्रकृति के चक्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और तो और नई-नई खोजें होने के साथ यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि सूक्ष्मजीव निहायत इन्तहाई परिस्थितियों में जीवित रहते हैं । कई बार तो ये इतनी विकट परिस्थिति में रहते है कि महज जीवित रहने के अलावा कुछ और कर ही नहीं पाते । ऐसी परिस्थितियों में ये सैकड़ों-हजारों सालों तक वैसे ही पड़े रहते हैं ।
सूक्ष्मजीवों की इस विशाल संख्या से ही स्पष्ट है कि ये प्रकृति के चक्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और तो और नई-नई खोजें होने के साथ यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि सूक्ष्मजीव निहायत इन्तहाई परिस्थितियों में जीवित रहते हैं । कई बार तो ये इतनी विकट परिस्थिति में रहते है कि महज जीवित रहने के अलावा कुछ और कर ही नहीं पाते । ऐसी परिस्थितियों में ये सैकड़ों-हजारों सालों तक वैसे ही पड़े रहते हैं ।
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