प्रदर्श चर्चा
पं. बंगाल : भू-जल मेंघुलता आर्सेनिक
नित्या जेकब
पश्चिम बंगाल में भूजल विषैले रसायन आर्सेनिक से बुरी तरह प्रदूषित है । इससे निपटने के लिये सरकार ने कुछ कदम उठाये हैं । इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने आर्सेनिक के जहर से निपटने के लिए छोटे-छोटे प्रयोग किये हैं ।
भू-जल में आर्सेनिक की विषाक्तता दुनिया भर में एक बड़ी चिन्ता का विषय है । भारत के कई राज्यों - उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल एवं असम में यह अत्यधिक विषैला रसायन अपने प्राकृतिक रूप में मौजूद है । इसके प्रभाव से त्वचा का बदरंग होना, मस्से उभरना और यहां तक की मौत भी हो सकती है ।
सरकार इस समस्या से निजात पाने में कमजोर रही है । वर्तमान में सिर्फ पश्चिम बंगाल ही एक ऐसा राज्य है जहां भू-जल को पीने योग्य बनाने के लिये एक योजना चलाई गई है । राज्य सरकार का लक्ष्य है कि सन् २०१३ तक हर रहवासी इलाकों में कम से कम एक आर्सेनिक मुक्त जल स्त्रोत अवश्य उपलब्ध करायेंगे ।
वर्ष २००५ में बंगाल सरकार ने अपनी आर्सेनिक निष्कासन योजनाआें के क्रियान्वयन के लिये एक टॉस्क फोर्स का गठन किया था । लेकिन दुर्भाग्य से ये योजनाएं असफल रही । शायद इसलिये क्योंकि राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयों के रोजमर्रा के काम और जल वितरण की जिम्मेदारियां लोगों पर डाल दी जो इसके लिये तैयार नहीं थे । बाद में राज्य सरकार ने इस काम के लिए उन कम्पनियों से जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जिन्होनें आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगाये थे । लेकिन कम्पनियों को काम के बदले मिलने वाला मेहनताना बहुत ही कम लगा और उन्होनें भी इस काम से हाथ खींच लिए ।
वर्ष २००९ में राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाइयों के निर्माण, संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग पर डाली । विभाग ने गांवों में जल वितरण का काम संभालने के लिये पंचायतों को कहा ।
योजना के मुताबिक, भू-जल को साफ करने के लिये राज्य सरकार ३३८ आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित करेगी । योजना के लिये २१०० करोड़ रूपयों की राशि आवंटित की गई है । जिसमें से ९७४ करोड़ रूपये सिर्फ आर्सेनिक निष्कासन ईकाई स्थापित करने में खर्च किये जायेंगे । सतही जल या नदियों के जल के लिये परम्परागत तरीके ही इस्तेमाल किये जायेंगे । आमतौर पर नदियों के पानी में आर्सेनिक नहीं होता और इसे तलछट जमाव एवं क्लोरीनीकरण जैसे परम्परागत तरीकों से साफ किया जा सकता है ।
सफाई के विकल्प
भू-जल में आर्सेनिक और लौह विषाक्तता के स्तर के आधार पर आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित है । प्राय: ऐसा पानी जिसमें ५० पार्ट्स प्रति बिलियन से कम आर्सेनिक एवं एक मिलिग्राम प्रति लीटर से कम लौह तत्व हो, उसे पीने योग्य माना जाता है और उसे बिना उपचारित किये वितरित किया जा सकता है । अगर इन तत्वों की मात्रा इस सीमा से अधिक है तो पानी को उपचारित किया जाता है ।
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग नलकूपोंमें आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगायेगा, जो ५००० परिवारों को आपूर्ति कर सकता है । यह उपकरण फिटकरी अथवा ब्लीचिंग पाउडर के द्वारा पानी की प्रारंभिक सफाई करता है और फिर यह पानी एक लौह अयस्क हेमेटाइट की परत से गुजारा जाता है । इसके बाद पानी एक दूसरी टंकी में जाता है, जहां तलछट जमाव विधि द्वारा आर्सेनिक को अलग किया जाता है । तीसरी टंकी में रेत की मोटी परत के माध्यम से बचा हुआ आर्सेनिक भी छन जाता है । इस तरह पानी इस्तेमाल के लिये तैयार होता है ।
एक आर्सेनिक निष्पादन इकाई लगाने का खर्च कोई ७० लाख रूपये तक आता है । हालांकि एक बार लग जाने के बाद इसका चालू खर्च सिर्फ १० रूपये प्रति किलोलीटर है । पश्चिम बंगाल आर्सेनिक टॉस्क फोर्स की सदस्या अरूनाभा मजूमदार के अनुसार आर्सेनिक निष्पादन इकाई टिकाउ एवं कारगर है । इस तरह से उपचारित पानी में १० पार्ट्स प्रति बिलियन से भी कम मात्रा में आर्सेनिक होता है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार पीने योग्य एवं सुरक्षित है । भारतीय मानक ब्यूरो ५० पार्ट्स प्रति बिलियन तक सुरक्षित मानता है ।
पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने अपने घरों में छोटी और सस्ती आर्सेनिक निष्कासन ईकाई लगवाई है । यह एक घरेलू फिल्टर है जिसमंें आसानी से उपलब्ध होने वाले फिटकरी और ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल होता है । इस प्रक्रिया में ब्लीचिंग पाउडर, आर्सेनिक को ऑक्सीकृत करता है और फिटकरी थक्का जमाने का काम करता है । इसके बाद पानी रेत के फिल्टर से गुजारा जाता है जहां बचा हुआ सारा आर्सेनिक सोख लिया जाता है । इस फिल्टर को हर तीन साल में बदलने की जरूरत पड़ती है । कुछ के अनुसार इस तरह के फिल्टरों को यदि इनकी कार्यक्षमता अवधि समाप्त् होने से पहले बदल दिया जाये तो ये हर तरह से कारगर हैं ।
आर्सेनिक की सफाई का एक दूसरा विकल्प है - एकल चरण फिल्टर । इसे कोलकाता स्थित अखिल भारत जन स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संस्थान के सेनेटरी इंजीनियरिंग विभाग द्वारा विकसित किया गया है । इसमें फिटकरी को पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी में मौजूद लौह तत्व और आर्सेनिक अलग हो जाते हैं । फिर इसे निथरने के लिये छोड़ दिया जाता है इस तरह से फिल्टर किया गया पानी, इस्तेमाल के योग्य होता है । पानी को फिल्टर करने का एक और तरीका है । इसमें ब्लीचिंग पाउडर, एल्यूमीनियर सल्फेट और क्रियाशील एल्यूमिना का इस्तेमाल किया जाता है । इस प्रक्रिया में बची हुई आर्सेनिक युक्त गंदगी को बार-बार हटाना पड़ता है ।
ये छोटी-छोटी तकनीकें प्रदेश भर में इस्तेमाल की जा रही हैं, लेकिन सरकार के लिये इनमें से हर एक की
समय-समय पर निगरानी करना कठिन है । इसलिये सरकार की योजना है कि इन मौजूद विधियों की तकनीकों को बेहतर किया जाये ।
पश्चिम बंगाल ने तो आर्सेनिक नियंत्रण की दिशा में छोटा पर सही कदम तो उठाया है पर दूसरे राज्य इस पर कुछ भी चितिंत नहीं दिखते । बिहार ने भी एक कोरी कागजी योजना बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया । बिहार सरकार में ग्रामीण जल एवं स्वच्छता के सलाहकार प्रकाश कुमार स्वीकार करते हैं कि इस दिशा में अब तक कुछ भी ठोस काम नहीं हुआ है । राज्य सरकार ने यूनिसेफ के साथ मिलकर कुछ आर्सेनिक निष्कासन इकाई लगवाई और भू-जल में आर्सेनिक की मात्रा को हल्का करने के लिये बारिश के पानी को जमीन मेंउतारना शुरू किया है । लेकिन इसमें भी बहुत ही कम सफलता हासिल हुई है । पटना स्थित अनुग्रह नारायण कॉलेज के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख अशोक घोष के अनुसार इन असफलताआें के लिये जन भागीदारी की कमी है ।
पटना से २० किलोमीटर दूर रामनगर गांव में यूनिसेफ ने आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिये बहुत से कुआेंमें सौर ऊर्जा चलित पंप लगाये थे । पटना विश्वविद्यालय में आर्सेनिक विषय पर शोध करने वाले छात्र प्रकाश कुमार का कहना है कि पंप कुछ ही महीनोंके भीतर टूट गये क्योंकि इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर प्रशिक्षित नहीं थे । ये चोरी भी कर लिये गये ।
श्री प्रकाश कुमार कहते हैं कि आर्सेनिक निष्कासन इकाई के संचालन, रखरखाव, कचरे के सुरक्षित निपटान एवं अशुद्ध व उपचारित पानी के नियमित परीक्षण के मानक तौर तरीके बनाकर इन इकाईयों को कारगर किया जा सकता है । इसके लिये पंचायत और समुदाय को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिये । ये प्रयास बताते है कि भू-जल में आर्सेनिक विषाक्तता को गंभीरता से लिया जा रहा है । दूसरे राज्य भी इस काम में आगे आ रहे हैं । अब ऐसे में आर्सेनिक से निजात पाने के लिये इसके नियोजन और रखरखाव में जनता की भागीदारी महत्वपूर्ण है ।
पं. बंगाल : भू-जल मेंघुलता आर्सेनिक
नित्या जेकब
पश्चिम बंगाल में भूजल विषैले रसायन आर्सेनिक से बुरी तरह प्रदूषित है । इससे निपटने के लिये सरकार ने कुछ कदम उठाये हैं । इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने आर्सेनिक के जहर से निपटने के लिए छोटे-छोटे प्रयोग किये हैं ।
भू-जल में आर्सेनिक की विषाक्तता दुनिया भर में एक बड़ी चिन्ता का विषय है । भारत के कई राज्यों - उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल एवं असम में यह अत्यधिक विषैला रसायन अपने प्राकृतिक रूप में मौजूद है । इसके प्रभाव से त्वचा का बदरंग होना, मस्से उभरना और यहां तक की मौत भी हो सकती है ।
सरकार इस समस्या से निजात पाने में कमजोर रही है । वर्तमान में सिर्फ पश्चिम बंगाल ही एक ऐसा राज्य है जहां भू-जल को पीने योग्य बनाने के लिये एक योजना चलाई गई है । राज्य सरकार का लक्ष्य है कि सन् २०१३ तक हर रहवासी इलाकों में कम से कम एक आर्सेनिक मुक्त जल स्त्रोत अवश्य उपलब्ध करायेंगे ।
वर्ष २००५ में बंगाल सरकार ने अपनी आर्सेनिक निष्कासन योजनाआें के क्रियान्वयन के लिये एक टॉस्क फोर्स का गठन किया था । लेकिन दुर्भाग्य से ये योजनाएं असफल रही । शायद इसलिये क्योंकि राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयों के रोजमर्रा के काम और जल वितरण की जिम्मेदारियां लोगों पर डाल दी जो इसके लिये तैयार नहीं थे । बाद में राज्य सरकार ने इस काम के लिए उन कम्पनियों से जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जिन्होनें आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगाये थे । लेकिन कम्पनियों को काम के बदले मिलने वाला मेहनताना बहुत ही कम लगा और उन्होनें भी इस काम से हाथ खींच लिए ।
वर्ष २००९ में राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाइयों के निर्माण, संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग पर डाली । विभाग ने गांवों में जल वितरण का काम संभालने के लिये पंचायतों को कहा ।
योजना के मुताबिक, भू-जल को साफ करने के लिये राज्य सरकार ३३८ आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित करेगी । योजना के लिये २१०० करोड़ रूपयों की राशि आवंटित की गई है । जिसमें से ९७४ करोड़ रूपये सिर्फ आर्सेनिक निष्कासन ईकाई स्थापित करने में खर्च किये जायेंगे । सतही जल या नदियों के जल के लिये परम्परागत तरीके ही इस्तेमाल किये जायेंगे । आमतौर पर नदियों के पानी में आर्सेनिक नहीं होता और इसे तलछट जमाव एवं क्लोरीनीकरण जैसे परम्परागत तरीकों से साफ किया जा सकता है ।
सफाई के विकल्प
भू-जल में आर्सेनिक और लौह विषाक्तता के स्तर के आधार पर आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित है । प्राय: ऐसा पानी जिसमें ५० पार्ट्स प्रति बिलियन से कम आर्सेनिक एवं एक मिलिग्राम प्रति लीटर से कम लौह तत्व हो, उसे पीने योग्य माना जाता है और उसे बिना उपचारित किये वितरित किया जा सकता है । अगर इन तत्वों की मात्रा इस सीमा से अधिक है तो पानी को उपचारित किया जाता है ।
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग नलकूपोंमें आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगायेगा, जो ५००० परिवारों को आपूर्ति कर सकता है । यह उपकरण फिटकरी अथवा ब्लीचिंग पाउडर के द्वारा पानी की प्रारंभिक सफाई करता है और फिर यह पानी एक लौह अयस्क हेमेटाइट की परत से गुजारा जाता है । इसके बाद पानी एक दूसरी टंकी में जाता है, जहां तलछट जमाव विधि द्वारा आर्सेनिक को अलग किया जाता है । तीसरी टंकी में रेत की मोटी परत के माध्यम से बचा हुआ आर्सेनिक भी छन जाता है । इस तरह पानी इस्तेमाल के लिये तैयार होता है ।
एक आर्सेनिक निष्पादन इकाई लगाने का खर्च कोई ७० लाख रूपये तक आता है । हालांकि एक बार लग जाने के बाद इसका चालू खर्च सिर्फ १० रूपये प्रति किलोलीटर है । पश्चिम बंगाल आर्सेनिक टॉस्क फोर्स की सदस्या अरूनाभा मजूमदार के अनुसार आर्सेनिक निष्पादन इकाई टिकाउ एवं कारगर है । इस तरह से उपचारित पानी में १० पार्ट्स प्रति बिलियन से भी कम मात्रा में आर्सेनिक होता है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार पीने योग्य एवं सुरक्षित है । भारतीय मानक ब्यूरो ५० पार्ट्स प्रति बिलियन तक सुरक्षित मानता है ।
पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने अपने घरों में छोटी और सस्ती आर्सेनिक निष्कासन ईकाई लगवाई है । यह एक घरेलू फिल्टर है जिसमंें आसानी से उपलब्ध होने वाले फिटकरी और ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल होता है । इस प्रक्रिया में ब्लीचिंग पाउडर, आर्सेनिक को ऑक्सीकृत करता है और फिटकरी थक्का जमाने का काम करता है । इसके बाद पानी रेत के फिल्टर से गुजारा जाता है जहां बचा हुआ सारा आर्सेनिक सोख लिया जाता है । इस फिल्टर को हर तीन साल में बदलने की जरूरत पड़ती है । कुछ के अनुसार इस तरह के फिल्टरों को यदि इनकी कार्यक्षमता अवधि समाप्त् होने से पहले बदल दिया जाये तो ये हर तरह से कारगर हैं ।
आर्सेनिक की सफाई का एक दूसरा विकल्प है - एकल चरण फिल्टर । इसे कोलकाता स्थित अखिल भारत जन स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संस्थान के सेनेटरी इंजीनियरिंग विभाग द्वारा विकसित किया गया है । इसमें फिटकरी को पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी में मौजूद लौह तत्व और आर्सेनिक अलग हो जाते हैं । फिर इसे निथरने के लिये छोड़ दिया जाता है इस तरह से फिल्टर किया गया पानी, इस्तेमाल के योग्य होता है । पानी को फिल्टर करने का एक और तरीका है । इसमें ब्लीचिंग पाउडर, एल्यूमीनियर सल्फेट और क्रियाशील एल्यूमिना का इस्तेमाल किया जाता है । इस प्रक्रिया में बची हुई आर्सेनिक युक्त गंदगी को बार-बार हटाना पड़ता है ।
ये छोटी-छोटी तकनीकें प्रदेश भर में इस्तेमाल की जा रही हैं, लेकिन सरकार के लिये इनमें से हर एक की
समय-समय पर निगरानी करना कठिन है । इसलिये सरकार की योजना है कि इन मौजूद विधियों की तकनीकों को बेहतर किया जाये ।
पश्चिम बंगाल ने तो आर्सेनिक नियंत्रण की दिशा में छोटा पर सही कदम तो उठाया है पर दूसरे राज्य इस पर कुछ भी चितिंत नहीं दिखते । बिहार ने भी एक कोरी कागजी योजना बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया । बिहार सरकार में ग्रामीण जल एवं स्वच्छता के सलाहकार प्रकाश कुमार स्वीकार करते हैं कि इस दिशा में अब तक कुछ भी ठोस काम नहीं हुआ है । राज्य सरकार ने यूनिसेफ के साथ मिलकर कुछ आर्सेनिक निष्कासन इकाई लगवाई और भू-जल में आर्सेनिक की मात्रा को हल्का करने के लिये बारिश के पानी को जमीन मेंउतारना शुरू किया है । लेकिन इसमें भी बहुत ही कम सफलता हासिल हुई है । पटना स्थित अनुग्रह नारायण कॉलेज के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख अशोक घोष के अनुसार इन असफलताआें के लिये जन भागीदारी की कमी है ।
पटना से २० किलोमीटर दूर रामनगर गांव में यूनिसेफ ने आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिये बहुत से कुआेंमें सौर ऊर्जा चलित पंप लगाये थे । पटना विश्वविद्यालय में आर्सेनिक विषय पर शोध करने वाले छात्र प्रकाश कुमार का कहना है कि पंप कुछ ही महीनोंके भीतर टूट गये क्योंकि इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर प्रशिक्षित नहीं थे । ये चोरी भी कर लिये गये ।
श्री प्रकाश कुमार कहते हैं कि आर्सेनिक निष्कासन इकाई के संचालन, रखरखाव, कचरे के सुरक्षित निपटान एवं अशुद्ध व उपचारित पानी के नियमित परीक्षण के मानक तौर तरीके बनाकर इन इकाईयों को कारगर किया जा सकता है । इसके लिये पंचायत और समुदाय को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिये । ये प्रयास बताते है कि भू-जल में आर्सेनिक विषाक्तता को गंभीरता से लिया जा रहा है । दूसरे राज्य भी इस काम में आगे आ रहे हैं । अब ऐसे में आर्सेनिक से निजात पाने के लिये इसके नियोजन और रखरखाव में जनता की भागीदारी महत्वपूर्ण है ।
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