ज्ञान विज्ञान
आल्प्स के ग्लेशियर और औघोगिक क्रांति
मौसम वैज्ञानिकों और ग्लेशियर (हिमनद) वैज्ञानिकों के सामने एक पहेली रही है - आलप्स पर्वत के ग्लेशियर उन्नीसवींसदी के मध्य (करीब १८५०) में क्यों तेजी से पिघलना शुरू हो गए थें ? इस उलझन की वजह यह है कि यह वह समय था जब धरती का तापमान कम था और ५०० साल तक चला लघु हिमयुग अभी समाप्त् नहीं हुआ था । इसका मतलब है कि १८५० में आलप्स ग्लेशियर्स के पिघलने में तेजी आना तापमान में आम वृद्धि की वजह से नहीं हुआ होगा । वैसे अन्य स्थानों पर भी ऐसा ही हुआ होगा, मगर रिकॉड्र्स आल्प्स के बारे में ही मिलते हैं ।
आल्प्स के ग्लेशियर और औघोगिक क्रांति
मौसम वैज्ञानिकों और ग्लेशियर (हिमनद) वैज्ञानिकों के सामने एक पहेली रही है - आलप्स पर्वत के ग्लेशियर उन्नीसवींसदी के मध्य (करीब १८५०) में क्यों तेजी से पिघलना शुरू हो गए थें ? इस उलझन की वजह यह है कि यह वह समय था जब धरती का तापमान कम था और ५०० साल तक चला लघु हिमयुग अभी समाप्त् नहीं हुआ था । इसका मतलब है कि १८५० में आलप्स ग्लेशियर्स के पिघलने में तेजी आना तापमान में आम वृद्धि की वजह से नहीं हुआ होगा । वैसे अन्य स्थानों पर भी ऐसा ही हुआ होगा, मगर रिकॉड्र्स आल्प्स के बारे में ही मिलते हैं ।
इस उलझन को सुलझाने के लिए ग्लेशियर वैज्ञानिक यह मानते हुए आए हैं कि किसी वजह से उस इलाके में बर्फबारी में गिरावट आई थी और ग्लेशियर्स सिकुड़ने लगे थे । मगर अब ऑस्ट्रिया के इन्सब्रुक विश्वविघालय के ग्लेशियर विशेषज्ञ जॉर्ज कैसर ने अपने ताजा अध्ययन के आधार पर बताया है कि आल्प्स के ग्लेशियर्स पिघलने का प्रमुख कारण वह कालिख थी जो औघोगिक क्रांति के चलते कारखानों और भाप के इंजिनों सै पैदा होती थी ।
कैसर के मुताबिक यह कालिख (सूट) दरअसल कार्बन के बहुत बारीक करणों से बनी होती है जो हवा में तैरते रहते हैं और धीरे-धीरे किसी भी सतह पर बैठते है । जब कार्बन के ये कण बर्फ पर जमा हो जाते हैं तो बर्फ की सतह ज्यादा मात्रा मेंगर्मी सोखने लगती है । ज्यादा गर्मी मिलेगी तो जाहिर है, बर्फ ज्यादा तेजी से पिघलेगी । प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंप्रकाशित शोध पत्र में उन्होनें अपने अध्ययन का विस्तृत ब्यौरा दिया है ।
कैसर ने थॉमस पेंटर के साथ मिलकर आल्प्स के दो ग्लेशियर्स मेंसे बर्फ के नमूने प्राप्त् किए । इन नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि १८६० के बाद बनी बर्फ में कालिख की मात्रा तेजी से बढ़ने लगी थी । कैसर व पेंटर ने कालिख की इस मात्रा और गर्मी सोखने की बर्फ की क्षमता का आकलन करने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया । इस प्रोग्राम में आल्प्स से प्राप्त् वास्तविक आंकड़े डालने पर साफ हो गया कि दोषी कौन है ।
कैसर का मत है कि आल्प्स के ग्लेशियर्स के पिघलने की व्याख्या करने के लिए कालिख की यह मात्रा पर्याप्त् है, किसी और कारक की जरूरत नहीं है । यदि यह कालिख न होती तो ग्लेशियर्स का पिघलना तब शुरू होता जब बीसवीं सदी में धरती का औसत तापमान बढ़ने लगा था । (जो मूलत: औघोगिक क्रांति की ही देन है) ।
पक्षी स्पीड लिमिट का ख्याल रखते हैं
पक्षी सड़क पर लगे गति सीमा के बोर्ड पढ़ तो नहीं सकते मगर ऐसा लगता है कि वे इस बात को पहचानते हैं कि किसी रास्ते पर गति सीमा कितनी निर्धारित की गई है ।
कैसर के मुताबिक यह कालिख (सूट) दरअसल कार्बन के बहुत बारीक करणों से बनी होती है जो हवा में तैरते रहते हैं और धीरे-धीरे किसी भी सतह पर बैठते है । जब कार्बन के ये कण बर्फ पर जमा हो जाते हैं तो बर्फ की सतह ज्यादा मात्रा मेंगर्मी सोखने लगती है । ज्यादा गर्मी मिलेगी तो जाहिर है, बर्फ ज्यादा तेजी से पिघलेगी । प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंप्रकाशित शोध पत्र में उन्होनें अपने अध्ययन का विस्तृत ब्यौरा दिया है ।
कैसर ने थॉमस पेंटर के साथ मिलकर आल्प्स के दो ग्लेशियर्स मेंसे बर्फ के नमूने प्राप्त् किए । इन नमूनों के विश्लेषण से पता चला कि १८६० के बाद बनी बर्फ में कालिख की मात्रा तेजी से बढ़ने लगी थी । कैसर व पेंटर ने कालिख की इस मात्रा और गर्मी सोखने की बर्फ की क्षमता का आकलन करने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया । इस प्रोग्राम में आल्प्स से प्राप्त् वास्तविक आंकड़े डालने पर साफ हो गया कि दोषी कौन है ।
कैसर का मत है कि आल्प्स के ग्लेशियर्स के पिघलने की व्याख्या करने के लिए कालिख की यह मात्रा पर्याप्त् है, किसी और कारक की जरूरत नहीं है । यदि यह कालिख न होती तो ग्लेशियर्स का पिघलना तब शुरू होता जब बीसवीं सदी में धरती का औसत तापमान बढ़ने लगा था । (जो मूलत: औघोगिक क्रांति की ही देन है) ।
पक्षी स्पीड लिमिट का ख्याल रखते हैं
पक्षी सड़क पर लगे गति सीमा के बोर्ड पढ़ तो नहीं सकते मगर ऐसा लगता है कि वे इस बात को पहचानते हैं कि किसी रास्ते पर गति सीमा कितनी निर्धारित की गई है ।
क्यूबेक विश्वविघालय के पियरे लेगानो और मॉन्ट्रियाल के मैकगिल विश्वविघालय के सिमोन डुकाटेज ने प्रयोगशाला से घर जाते हुए पक्षियों का एक अजीब अध्ययन शुरू किया था । उन्होंने पाया कि जिस सड़क पर गति सीमा ५० किलोमीटर प्रति घंटा होती है, वहां सड़क पर बैठे पक्षी तब उड़ते हैं जब कार उनसे मात्र १५ मीटर दूर रह जाती है । दूसरी ओर, यदि उस सड़क पर गति सीमा ११० किलोमीटर प्रति घंटा है, तो वे कार के ७५ मीटर दूर रहते ही उड़ जाते हैं । और तो और, अवलोकनों से यह भी समझ में आया कि ये पक्षी कार की गति को देखकर तय नहीं करते कि उन्हें कब उड़ना हैं । यदि धीमी गति सीमा वाली सड़क पर कोई कार तेजी से आ रही हो, तब भी वे १५ मीटर की दूरी का ही ख्याल रखते हैं । इसी प्रकार से यदि तेज सड़क पर धीमी कार हो तो भी वे ७५ मीटर का फासला रह जाने पर उड़ जाते हैं । यानी पक्षी आती हुई कार की गति का नहीं बल्कि उस सड़क पर निर्धारित गति सीमा के अनुसार व्यवहार करते हैं । आखिर कैसे ?
उपरोक्त शोधकर्ताआें का विचार है कि पक्षी इन कारों को शिकारी समझते हैं और यह समझ लेते हैं कि कुछ पर्यावरणों में शिकारी अपनी तेज गति के कारण ज्यादा खतरनाक होते हैं । शोधकर्ताआें ने यह भी देखा कि मौसम का असर भी इस बात पर पड़ता है कि पक्षी कार के कितने पास आने पर उड़ जाएंगे । आम तौर वसंत के मौसम में वे कार को ज्यादा नजदीक आने देते हैं जबकि शरद ऋतु में वे ज्यादा सावधानी बरतते हैं ।
शोधकर्ताआें के मुताबिक इसके दो कारण हो सकते हैं । पहला तो यह हो सकता है कि वसंत ऋतु में पक्षी वैसे ही अधिक फुर्तीले होते हैं और कार के पास आने तक बैठकर इन्तजार कर सकते हैं । दूसरा यह भी हो सकता है कि वसंत में सड़कों पर बैठे ज्यादातर पक्षी हाल ही में उड़ना सीखे शिशु होते हैं, जो सड़क के नियम सीख ही रहे हैं । जैसे भी हो मगर एक बात स्पष्ट है पक्षी अपने पर्यावरण में खतरे का स्तर भांपकर अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालने में सक्षम होते हैं ।
क्यों ठंडी हुई थी धरती १२ हजार साल पहले
यह तो सभी मानते हैं कि लगभग १२००० साल पहले धरती एकदम ठंडी हो गई थी मगर इस बात को लेकर तल्ख विवाद है कि ऐसा क्यों हुआ था । अब कुछ नए प्रमाण मिलने के साथ बहस फिर छिड़ गई है ।
लगभग ११६०० से १२९०० साल पहले पृथ्वी की जलवायु में अचानक परिवर्तन आया था । उत्तरी इलाकों का तापमान तो इस एक सदी के दौरान कई डिग्री कम हो गया था । इस अचानक आए जाड़े को यंगर ड्रायस नाम दिया गया है । इस संदर्भ में एक परिकल्पना यह है कि उत्तरी अमरीका के खिसकते ग्लेशियर्स (हिमनदों) के कारण पिघलता बर्फ पानी बनकर आक्र्टिक महासागर मेंपहुंचा । इसकी वजह से समुद्र में पानी की धाराएं धीमी पड़ गई थी और उत्तरी गोलार्ध ठंड से ठिठुरने लगा था ।
उपरोक्त शोधकर्ताआें का विचार है कि पक्षी इन कारों को शिकारी समझते हैं और यह समझ लेते हैं कि कुछ पर्यावरणों में शिकारी अपनी तेज गति के कारण ज्यादा खतरनाक होते हैं । शोधकर्ताआें ने यह भी देखा कि मौसम का असर भी इस बात पर पड़ता है कि पक्षी कार के कितने पास आने पर उड़ जाएंगे । आम तौर वसंत के मौसम में वे कार को ज्यादा नजदीक आने देते हैं जबकि शरद ऋतु में वे ज्यादा सावधानी बरतते हैं ।
शोधकर्ताआें के मुताबिक इसके दो कारण हो सकते हैं । पहला तो यह हो सकता है कि वसंत ऋतु में पक्षी वैसे ही अधिक फुर्तीले होते हैं और कार के पास आने तक बैठकर इन्तजार कर सकते हैं । दूसरा यह भी हो सकता है कि वसंत में सड़कों पर बैठे ज्यादातर पक्षी हाल ही में उड़ना सीखे शिशु होते हैं, जो सड़क के नियम सीख ही रहे हैं । जैसे भी हो मगर एक बात स्पष्ट है पक्षी अपने पर्यावरण में खतरे का स्तर भांपकर अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालने में सक्षम होते हैं ।
क्यों ठंडी हुई थी धरती १२ हजार साल पहले
यह तो सभी मानते हैं कि लगभग १२००० साल पहले धरती एकदम ठंडी हो गई थी मगर इस बात को लेकर तल्ख विवाद है कि ऐसा क्यों हुआ था । अब कुछ नए प्रमाण मिलने के साथ बहस फिर छिड़ गई है ।
लगभग ११६०० से १२९०० साल पहले पृथ्वी की जलवायु में अचानक परिवर्तन आया था । उत्तरी इलाकों का तापमान तो इस एक सदी के दौरान कई डिग्री कम हो गया था । इस अचानक आए जाड़े को यंगर ड्रायस नाम दिया गया है । इस संदर्भ में एक परिकल्पना यह है कि उत्तरी अमरीका के खिसकते ग्लेशियर्स (हिमनदों) के कारण पिघलता बर्फ पानी बनकर आक्र्टिक महासागर मेंपहुंचा । इसकी वजह से समुद्र में पानी की धाराएं धीमी पड़ गई थी और उत्तरी गोलार्ध ठंड से ठिठुरने लगा था ।
दूसरी परिकल्पना यह है कि उत्तरी अमरीका पर कोई उल्का या धूमकेत गिरा या ठीक ऊपर आकर फट गया । इसके चलते भयानक आग लगी । इस आग के चलते खूब धुंआ और धूल वातावरण में फैले और हिमनद का बंटाढार हो गया । बाद में इस धूल भरे वातावरण के कारण पृथ्वी ठंडी हुई ।
अब इन दोनों में से कौन सी परिकल्पना सही है ? अब तक उल्का के गिरने या फटने का कोई सबूत नहीं था । इसलिए ग्लेशियर खिसकने के सिद्धांत को ही स्वीकार किया जाता था । मगर अब ऐसे विस्फोट या टक्कर के कुछ प्रमाण मिले हैं । जैसे १२,००० साल पहले अस्तित्व में रही मानव बसाहटों के अवशेषों के अध्ययन से लगता है कि कोई चीज टकराई तो थी । मगर यदि ऐसा हुआ होता तो इस घटना का असर उत्तरी अमरीका के बड़े भूभाग पर होना चाहिए, जिसके प्रमाण नहीं मिलते । हाल ही में ५० शोधकर्ताआें ने खोज की है कि यंगर ड्रायस के समय के ग्रीनलैण्ड के बर्फ में उल्काजनित प्लेटिनम मिलता है ।
दरअसल, यीवोन मेलिनो-व्स्की ने इस प्रागैतिहासिक जाड़े के बारे में एक वृत्तचित्र देखा और पेनसिल्वेनिया की अपनी जमीन से पत्थर के कुछ टुकड़े शोधकर्ताआें को भेजे । इन पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि ये क्यूबेक (कनाड़ा) से आए हैं । हेनोवर के डार्टमाउथ कॉलेज के भूवैज्ञानिक मुकुल शर्मा का मत है कि ये चट्टाने जरूर किसी चीज के पृथ्वी के टकरा जाने के कारण उछली होगी और यहां-वहां बिखरी होगी । मगर आलोचकों के मुताबिक सिर्फ कुछ पत्थरों का पाया जाना उल्का-टक्कर का सबूत नहीं माना जा सकता । बहरहाल मुकुल शर्मा का यह शोध पत्र प्रकाशित होने जा रहा है क्योंकि शोध पत्रिका का कहना है कि मामला इतना विवादास्पद और खुला है कि हर विचार को सामने आने का मौका मिलना चाहिए ।
अब इन दोनों में से कौन सी परिकल्पना सही है ? अब तक उल्का के गिरने या फटने का कोई सबूत नहीं था । इसलिए ग्लेशियर खिसकने के सिद्धांत को ही स्वीकार किया जाता था । मगर अब ऐसे विस्फोट या टक्कर के कुछ प्रमाण मिले हैं । जैसे १२,००० साल पहले अस्तित्व में रही मानव बसाहटों के अवशेषों के अध्ययन से लगता है कि कोई चीज टकराई तो थी । मगर यदि ऐसा हुआ होता तो इस घटना का असर उत्तरी अमरीका के बड़े भूभाग पर होना चाहिए, जिसके प्रमाण नहीं मिलते । हाल ही में ५० शोधकर्ताआें ने खोज की है कि यंगर ड्रायस के समय के ग्रीनलैण्ड के बर्फ में उल्काजनित प्लेटिनम मिलता है ।
दरअसल, यीवोन मेलिनो-व्स्की ने इस प्रागैतिहासिक जाड़े के बारे में एक वृत्तचित्र देखा और पेनसिल्वेनिया की अपनी जमीन से पत्थर के कुछ टुकड़े शोधकर्ताआें को भेजे । इन पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि ये क्यूबेक (कनाड़ा) से आए हैं । हेनोवर के डार्टमाउथ कॉलेज के भूवैज्ञानिक मुकुल शर्मा का मत है कि ये चट्टाने जरूर किसी चीज के पृथ्वी के टकरा जाने के कारण उछली होगी और यहां-वहां बिखरी होगी । मगर आलोचकों के मुताबिक सिर्फ कुछ पत्थरों का पाया जाना उल्का-टक्कर का सबूत नहीं माना जा सकता । बहरहाल मुकुल शर्मा का यह शोध पत्र प्रकाशित होने जा रहा है क्योंकि शोध पत्रिका का कहना है कि मामला इतना विवादास्पद और खुला है कि हर विचार को सामने आने का मौका मिलना चाहिए ।
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