पर्यावरण परिक्रमा
आपके खाने में क्या-क्या मिला है ?
बात भारत की नहींबल्कि अमीर देश अमरीका की है । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमरीका में जो तैयारशुदा भोजन मिलता है, उसके बारे में बताया नहीं जा सकता कि उसमें जो कुछ मिलाया गया है, वह सेहत के लिए सुरक्षित है या नहीं ?
एक अनुमान के मुताबिक तैयारशुदा व्यंजनों में लगभग १०,००० अलग-अलग रासायनिक पदार्थो का उपयोग होता है । इनमें से ४३ प्रतिशत को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में रखा गया है । इन्हें किसी भोज्य पदार्थ में मिलाने से पहले खाद्य व औषधि प्रशासन की अनुमति जरूरी नहीं होती । दिक्कत यह है कि आम तौर पर सुरक्षित किस पदार्थ को माना जाए, इसे लेकर कोई स्पष्ट मापदण्ड नहीं है । खुद निर्माता को ही तय करना पड़ता है कि किसी पदार्थ को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में रखे या नहीं । एक बार जब निर्माता यह फैसला कर लेता है, तो उसे इस बात की सूचना खाद्य व औषधि प्रशासन को देनी चाहिए, हालांकि कोई बाध्यता नहीं है । दिक्कत यहीं से शुरू होती है ।
जब २०१० में खाद्य व औषधि प्रशासन ने कैफीनयुक्त अल्कोहल आधारित पेय पदार्थो की जांच की, तो पता चला कि चार में से एक भी निर्माता ने जरूरी जांचे नहीं की थी और बगैर उपयुक्त जांचों के ही कई रसायनों को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में डाल दिया था ।
एक और चिंता का मुद्दा यह सामने आया है कि जहां जांच की भी जाती हैं, वहां इन परीक्षणों की गुणवत्ता का कोई ध्यान नहीं रखा जाता । मसलन, वॉशिंगटन के प्यू चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किए गए एक आंकलन में पता चला है कि आम तौर पर सुरक्षित के ३८ प्रतिशत मामलों में जो जांच की गई वह खाद्य व औषधि प्रशासन की सिफारिशों के मुताबिक नहींथी । जैसे एक शर्त यह है कि ऐसी जांच का काम स्वयं निर्माता नहीं बल्कि कोई स्वतंत्र एजेंसी करें । मगर २२ प्रतिशत मामलों में जांच का काम निर्माता के किसी कर्मचारी द्वारा ही किया गया था ।
यह हाल अमरीका का है । हमारे यहां पता नहीं क्या व्यवस्थाएं हैं जबकि हमारे देश में तैयारशुदा खाद्य पदार्थो का चलन लगातार बढ़ रहा है । अमरीका के खाद्य व औषधि प्रशासन में अब इस बात को लेकर जागरूकता बढ़ी है और जल्दी ही आम तौर पर सुरक्षित श्रेणी के संदर्भ में कुछ दिशा निर्देश जारी होने की उम्मीद है ।
याददाश्त सुधारने वाला पोषक तत्व
हालांकि अभी ये प्रयोग ड्रॉसोफिला नामक मक्खी पर हुए हैं मगर वैज्ञानिकों को लगता है कि इनके परिणाम मनुष्यों में याददाश्त की रक्षा करने में मददगार होंगे । यह बात शायद कम ही लोग जानते होगें कि हमारी तरह ड्रॉसोफिला भी उम्र के साथ स्मृति-भ्रंश का शिकार होती है । ड्रॉसोफिला वह सूक्ष्म मक्खी है जो सड़ते हुए फल-सब्जियों पर मंडराती रहती है ।
ड्रॉसोफिला पर किए गए इन प्रयोगों का ब्यौरा नेचर न्युरोसांइस के पिछले अंक में दिया गया है । ये प्रयोग बर्लिन मुक्त विश्वविघालय के स्टीफन सिग्रिस्ट ने किए हैं । प्रयोगों के दौरान पाया गया कि पोलीअमीन्स समूह के कुछ रसायन ड्रॉसोफिला को उम्रजनित स्मृति-भ्रंश से बचाने में कारगर होते हैं ।
इससे पहले भी वैज्ञानिक यह दर्शा चुके हंै कि ड्रॉसोफिला अथवा कुछ कृमियों को पोलीअमीन्स की खुराक मिले तो उनकी आयु बढ़ती है । ऐसा माना जाता है कि हमारी कोशिकाएं अपने मलबे को साफ करने के लिए ऑटोफेजी नामक क्रिया का सहारा लेती हैं । उम्र के साथ यह क्रिया धीमी पड़ने लगती है । इसकी वजह से मलबा इकट्ठा होता रहता है और कई दिक्कतें पैदा होती हैं । वैज्ञानिकों को लगता है कि पोलीअमीन्स ऑटोफेजी को बढ़ावा देते हैं ।
पोलीअमीन्स की भूमिका को समझने के लिए सिग्रिस्ट और उनके साथियों ने पहले तो कुछ ड्रॉसोफिला मक्खियों को प्रशिक्षण दिया कि वे एक खास गंध का संबंध बिजली के झटके से जोड़ लें । देखा गया कि युवा मक्खियां इस बात को जल्दी सीख लेती हैं और देर तक याद रखती हैंे । इसके विपरीत बूढ़ी मक्खियां धीमी गति से सीखती हैं और जल्दी ही भूल भी जाती हैं ।
प्रयोग के अलग चरण में बूढ़ी मक्खियों को पोलीअमीन्स की अच्छी खुराक पर रखा गया । इसके बाद देखा गया कि उनमें और युवा मक्खियों के सीखने व याद रखने में कोई अंतर न रहा । इस प्रयोग के परिणामों की पुष्टि के लिए इसे कई बार किया गया और अलग-अलग शोधकर्ताआें से करवाया गया । वैज्ञानिकों ने इसी प्रयोग के एक संस्करण में कुछ बूढ़ी मक्खियों को पोलीअमीन्स खिलाने की बजाय उनके शरीर में ऐसे एंजाइम्स को सक्रिय किया जो पोलीअमीन्स का उत्पादन करने में सहायक होते हैं । इस प्रयोग में वही देखने को मिला - इन बूढ़ी मक्खियों की याददाश्त पहले से काफी बेहतर रही ।
वैसे कई वैज्ञानिक पहले से कहते आए हैं कि पोलीअमीन्स स्वास्थ्य के लिए अच्छे होते हैं । गेहूं के अंकुर वाले हिस्से में या अंकुरित सोयाबीन में इनकी पर्याप्त् मात्रा पाई जाती है और कई वैज्ञानिक ऐसे खाद्य पदार्थो की अनुशंसा करते आए हैं । अब सिग्रिस्ट पोलीअमीन्स का असर इंसानों में देखने को उत्सुक हैं । शाद जल्दी ही हमारे सामने एक और उत्पादन होगा जो याददाश्त बढ़ाने का वायदा करेगा और हर बच्च्े की जरूरत बन कर विज्ञापनों में छा जाएगा ।
भूखे पेट सोने वालों में एक चौथाई भारतीय
दुनिया को भूख मुक्त बनाने में तमाम अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बावजूद विश्व में ८४ करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोने को मजबूर है जिनमें से एक चौथाई अकेले भारत में हैं । विश्व खाद्य दिवस की पूर्व संध्या पर ब्लोबल हंगर इंडेक्स की कुल यहां जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०११-१३ के दौरान भूखे लोगों की संख्या ८४ करोड़ २० लाख है जिनमें से २१ करोड़ भारतवासी है । हालांकि २०१०-१२ के ८७ करोड़ की तुलना में भूखे लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम हो गई है । लेकिन रिपोर्ट का दावा है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन ने कुपोषण को मापने के पैमाने में बदलाव कर दिया है ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान कीमून ने विश्व खाद्य दिवस पर अपने संदेश में रोज ८४ करोड़ लोगों के भूखे सोने पर गंभीर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि लोगों को बेहतर पोषण उपलब्ध कराना विश्व समुदाय के समक्ष बड़ी चुनौती है । उन्होने कहा कि इसके लिए कारगर नीति बनानी होगी जिसमें व्यक्तियों पर्यावरण संस्थाआें को शामिल किए जाने के साथ ही कृषि पैदावर और प्रसंस्करण बढ़ाकर इसकी उपभोक्ताआें तक आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी । श्री मून ने इस बात पर भी चिंता जाहिर की कि विश्व के दो अरब लोग कुपोषण का अभिशाप झेलने को मजबूर है । उन्होनें बताया कि खराब पोषण के कारण १.४ अरब लोगों का वजन सामान्य से ज्यादा है तथा इनमें से एक चौथाई मोटापे की समस्या से पीड़ित है जिनके दिल की बीमारी, मधुमेह और अन्य बीमारियों से ग्रसित होने का खतरा है ।
इंडेक्स के अनुसार भूख के मामले में भारत इथोपिया, सूडान, कांगो, चाड़, नाइजर और अन्य अप्रीकी देशों के साथ खतरनाक २० देशों की श्रेणी में शामिल है । ये अप्रीकी देश युद्ध और अत्यन्त निर्धनता से त्रस्त है । हालांकि भारत में कुपोषित लोगों का प्रतिशत २१ से कम होकर १७.५ पर आ गया । कम वजन वाले बच्चें की तादाद भी ४३.५ प्रतिशत से मामूली घटकर ४० प्रतिशत हो गई और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चें की मृत्यु दर ७.५ के मुकाबले छह प्रतिशत पर आ गई । इस तरह से भूख के मामले में भारत की स्थिति में सुधार आया है । भूखे देशों की सूची में भारत वर्ष २००३-०७ के मुकाबले २००८-१२ में २४ वें स्थान से २१ वें पर आ गया है ।
मच्छरों से बचाव करेगा हरी चाय का पौधा
काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के द्रव्य गुण विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. के.एन. द्विवेदी ने मच्छरों से बचाव के लिए हरी चाय के पौधे के रूप में हर्बल और बेहद सस्ता उपाय खोज निकाला है । हरि चाय का पौधा जानलेवा मच्छरों का दुश्मन है । इस पौधो की खुशबू से मच्छर दूर भाग जाएंगे । प्रो. द्विवेदी ने बताया कि इस पौधे का अस्तित्व सदियों से है और ये गांवों में बड़ी ही आसानी से पाए जाते है, लेकिन लोगों को इसके गुण और प्रयोग करने का तरीका पता हीं नहीं है । यह एक ऐसा कारगर पौधा है, जो आपके घर से मच्छरों को भगा देगा । इस पौधे को आयुर्वेद की भाषा में कृत्रण कहते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम सिम्बोपोगां स्कुलथाश है । हरी चाय के पौधे की खुशबू बिल्कुल नीबू की तरह होती है । ये पौधे मच्छर और मक्खियों के दुश्मन है । हरी चाय हर्बल होने के साथ ही मच्छरों को मारने के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली तमाम दवाइयों से बहुत ही सस्ती है ।
आपके खाने में क्या-क्या मिला है ?
बात भारत की नहींबल्कि अमीर देश अमरीका की है । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अमरीका में जो तैयारशुदा भोजन मिलता है, उसके बारे में बताया नहीं जा सकता कि उसमें जो कुछ मिलाया गया है, वह सेहत के लिए सुरक्षित है या नहीं ?
एक अनुमान के मुताबिक तैयारशुदा व्यंजनों में लगभग १०,००० अलग-अलग रासायनिक पदार्थो का उपयोग होता है । इनमें से ४३ प्रतिशत को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में रखा गया है । इन्हें किसी भोज्य पदार्थ में मिलाने से पहले खाद्य व औषधि प्रशासन की अनुमति जरूरी नहीं होती । दिक्कत यह है कि आम तौर पर सुरक्षित किस पदार्थ को माना जाए, इसे लेकर कोई स्पष्ट मापदण्ड नहीं है । खुद निर्माता को ही तय करना पड़ता है कि किसी पदार्थ को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में रखे या नहीं । एक बार जब निर्माता यह फैसला कर लेता है, तो उसे इस बात की सूचना खाद्य व औषधि प्रशासन को देनी चाहिए, हालांकि कोई बाध्यता नहीं है । दिक्कत यहीं से शुरू होती है ।
जब २०१० में खाद्य व औषधि प्रशासन ने कैफीनयुक्त अल्कोहल आधारित पेय पदार्थो की जांच की, तो पता चला कि चार में से एक भी निर्माता ने जरूरी जांचे नहीं की थी और बगैर उपयुक्त जांचों के ही कई रसायनों को आम तौर पर सुरक्षित की श्रेणी में डाल दिया था ।
एक और चिंता का मुद्दा यह सामने आया है कि जहां जांच की भी जाती हैं, वहां इन परीक्षणों की गुणवत्ता का कोई ध्यान नहीं रखा जाता । मसलन, वॉशिंगटन के प्यू चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किए गए एक आंकलन में पता चला है कि आम तौर पर सुरक्षित के ३८ प्रतिशत मामलों में जो जांच की गई वह खाद्य व औषधि प्रशासन की सिफारिशों के मुताबिक नहींथी । जैसे एक शर्त यह है कि ऐसी जांच का काम स्वयं निर्माता नहीं बल्कि कोई स्वतंत्र एजेंसी करें । मगर २२ प्रतिशत मामलों में जांच का काम निर्माता के किसी कर्मचारी द्वारा ही किया गया था ।
यह हाल अमरीका का है । हमारे यहां पता नहीं क्या व्यवस्थाएं हैं जबकि हमारे देश में तैयारशुदा खाद्य पदार्थो का चलन लगातार बढ़ रहा है । अमरीका के खाद्य व औषधि प्रशासन में अब इस बात को लेकर जागरूकता बढ़ी है और जल्दी ही आम तौर पर सुरक्षित श्रेणी के संदर्भ में कुछ दिशा निर्देश जारी होने की उम्मीद है ।
याददाश्त सुधारने वाला पोषक तत्व
हालांकि अभी ये प्रयोग ड्रॉसोफिला नामक मक्खी पर हुए हैं मगर वैज्ञानिकों को लगता है कि इनके परिणाम मनुष्यों में याददाश्त की रक्षा करने में मददगार होंगे । यह बात शायद कम ही लोग जानते होगें कि हमारी तरह ड्रॉसोफिला भी उम्र के साथ स्मृति-भ्रंश का शिकार होती है । ड्रॉसोफिला वह सूक्ष्म मक्खी है जो सड़ते हुए फल-सब्जियों पर मंडराती रहती है ।
ड्रॉसोफिला पर किए गए इन प्रयोगों का ब्यौरा नेचर न्युरोसांइस के पिछले अंक में दिया गया है । ये प्रयोग बर्लिन मुक्त विश्वविघालय के स्टीफन सिग्रिस्ट ने किए हैं । प्रयोगों के दौरान पाया गया कि पोलीअमीन्स समूह के कुछ रसायन ड्रॉसोफिला को उम्रजनित स्मृति-भ्रंश से बचाने में कारगर होते हैं ।
इससे पहले भी वैज्ञानिक यह दर्शा चुके हंै कि ड्रॉसोफिला अथवा कुछ कृमियों को पोलीअमीन्स की खुराक मिले तो उनकी आयु बढ़ती है । ऐसा माना जाता है कि हमारी कोशिकाएं अपने मलबे को साफ करने के लिए ऑटोफेजी नामक क्रिया का सहारा लेती हैं । उम्र के साथ यह क्रिया धीमी पड़ने लगती है । इसकी वजह से मलबा इकट्ठा होता रहता है और कई दिक्कतें पैदा होती हैं । वैज्ञानिकों को लगता है कि पोलीअमीन्स ऑटोफेजी को बढ़ावा देते हैं ।
पोलीअमीन्स की भूमिका को समझने के लिए सिग्रिस्ट और उनके साथियों ने पहले तो कुछ ड्रॉसोफिला मक्खियों को प्रशिक्षण दिया कि वे एक खास गंध का संबंध बिजली के झटके से जोड़ लें । देखा गया कि युवा मक्खियां इस बात को जल्दी सीख लेती हैं और देर तक याद रखती हैंे । इसके विपरीत बूढ़ी मक्खियां धीमी गति से सीखती हैं और जल्दी ही भूल भी जाती हैं ।
प्रयोग के अलग चरण में बूढ़ी मक्खियों को पोलीअमीन्स की अच्छी खुराक पर रखा गया । इसके बाद देखा गया कि उनमें और युवा मक्खियों के सीखने व याद रखने में कोई अंतर न रहा । इस प्रयोग के परिणामों की पुष्टि के लिए इसे कई बार किया गया और अलग-अलग शोधकर्ताआें से करवाया गया । वैज्ञानिकों ने इसी प्रयोग के एक संस्करण में कुछ बूढ़ी मक्खियों को पोलीअमीन्स खिलाने की बजाय उनके शरीर में ऐसे एंजाइम्स को सक्रिय किया जो पोलीअमीन्स का उत्पादन करने में सहायक होते हैं । इस प्रयोग में वही देखने को मिला - इन बूढ़ी मक्खियों की याददाश्त पहले से काफी बेहतर रही ।
वैसे कई वैज्ञानिक पहले से कहते आए हैं कि पोलीअमीन्स स्वास्थ्य के लिए अच्छे होते हैं । गेहूं के अंकुर वाले हिस्से में या अंकुरित सोयाबीन में इनकी पर्याप्त् मात्रा पाई जाती है और कई वैज्ञानिक ऐसे खाद्य पदार्थो की अनुशंसा करते आए हैं । अब सिग्रिस्ट पोलीअमीन्स का असर इंसानों में देखने को उत्सुक हैं । शाद जल्दी ही हमारे सामने एक और उत्पादन होगा जो याददाश्त बढ़ाने का वायदा करेगा और हर बच्च्े की जरूरत बन कर विज्ञापनों में छा जाएगा ।
भूखे पेट सोने वालों में एक चौथाई भारतीय
दुनिया को भूख मुक्त बनाने में तमाम अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बावजूद विश्व में ८४ करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोने को मजबूर है जिनमें से एक चौथाई अकेले भारत में हैं । विश्व खाद्य दिवस की पूर्व संध्या पर ब्लोबल हंगर इंडेक्स की कुल यहां जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २०११-१३ के दौरान भूखे लोगों की संख्या ८४ करोड़ २० लाख है जिनमें से २१ करोड़ भारतवासी है । हालांकि २०१०-१२ के ८७ करोड़ की तुलना में भूखे लोगों की संख्या अपेक्षाकृत कम हो गई है । लेकिन रिपोर्ट का दावा है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन ने कुपोषण को मापने के पैमाने में बदलाव कर दिया है ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान कीमून ने विश्व खाद्य दिवस पर अपने संदेश में रोज ८४ करोड़ लोगों के भूखे सोने पर गंभीर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि लोगों को बेहतर पोषण उपलब्ध कराना विश्व समुदाय के समक्ष बड़ी चुनौती है । उन्होने कहा कि इसके लिए कारगर नीति बनानी होगी जिसमें व्यक्तियों पर्यावरण संस्थाआें को शामिल किए जाने के साथ ही कृषि पैदावर और प्रसंस्करण बढ़ाकर इसकी उपभोक्ताआें तक आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी । श्री मून ने इस बात पर भी चिंता जाहिर की कि विश्व के दो अरब लोग कुपोषण का अभिशाप झेलने को मजबूर है । उन्होनें बताया कि खराब पोषण के कारण १.४ अरब लोगों का वजन सामान्य से ज्यादा है तथा इनमें से एक चौथाई मोटापे की समस्या से पीड़ित है जिनके दिल की बीमारी, मधुमेह और अन्य बीमारियों से ग्रसित होने का खतरा है ।
इंडेक्स के अनुसार भूख के मामले में भारत इथोपिया, सूडान, कांगो, चाड़, नाइजर और अन्य अप्रीकी देशों के साथ खतरनाक २० देशों की श्रेणी में शामिल है । ये अप्रीकी देश युद्ध और अत्यन्त निर्धनता से त्रस्त है । हालांकि भारत में कुपोषित लोगों का प्रतिशत २१ से कम होकर १७.५ पर आ गया । कम वजन वाले बच्चें की तादाद भी ४३.५ प्रतिशत से मामूली घटकर ४० प्रतिशत हो गई और पांच वर्ष से कम आयु के बच्चें की मृत्यु दर ७.५ के मुकाबले छह प्रतिशत पर आ गई । इस तरह से भूख के मामले में भारत की स्थिति में सुधार आया है । भूखे देशों की सूची में भारत वर्ष २००३-०७ के मुकाबले २००८-१२ में २४ वें स्थान से २१ वें पर आ गया है ।
मच्छरों से बचाव करेगा हरी चाय का पौधा
काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के द्रव्य गुण विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. के.एन. द्विवेदी ने मच्छरों से बचाव के लिए हरी चाय के पौधे के रूप में हर्बल और बेहद सस्ता उपाय खोज निकाला है । हरि चाय का पौधा जानलेवा मच्छरों का दुश्मन है । इस पौधो की खुशबू से मच्छर दूर भाग जाएंगे । प्रो. द्विवेदी ने बताया कि इस पौधे का अस्तित्व सदियों से है और ये गांवों में बड़ी ही आसानी से पाए जाते है, लेकिन लोगों को इसके गुण और प्रयोग करने का तरीका पता हीं नहीं है । यह एक ऐसा कारगर पौधा है, जो आपके घर से मच्छरों को भगा देगा । इस पौधे को आयुर्वेद की भाषा में कृत्रण कहते हैं और इसका वैज्ञानिक नाम सिम्बोपोगां स्कुलथाश है । हरी चाय के पौधे की खुशबू बिल्कुल नीबू की तरह होती है । ये पौधे मच्छर और मक्खियों के दुश्मन है । हरी चाय हर्बल होने के साथ ही मच्छरों को मारने के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली तमाम दवाइयों से बहुत ही सस्ती है ।
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