बुधवार, 13 नवंबर 2013

सामाजिक पर्यावरण
समुदाय आधारित समाज का बिखराव
कश्मीर उप्पल

    भारतीय समाज आपसी रिश्तों  की अनलिखी दास्तान रहा है । बुंदेलखंड के, गांवों के किसी घर से यदि शाम को धुआं निकलते नहीं दिखता था तो पूरा गांव चिंतित हो उसकी कुशलक्षेम पूछता था और उसकी समस्या का निवारण करता था । मगर नई विकास नीतियां इस स्वनिर्भर समाज को परजीवी बना रही है ।
    जब हम विकास को बढ़ाने की बात करते हैं तो हमारा मतलब वस्तुओं का विकास है अथवा मनुष्यों का ? और अगर हम मनुष्यों के विकास की बात कहते हैं तो कौन से मनुष्य ? वे कहां   हैं? उन्हें मदद की जरूरत क्यों है ? मनुष्य में दिलचस्पी लेने से एसे असंख्य प्रश्न उठेगे ।  ई.एफ. शुमाकर अपनी पुुस्तक  `स्माल इज ब्युटीफूल` में स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य में दिलचस्पी लेने से असंख्य प्रश्न उठते हैं । शायद इसीलिए हमारे अर्थशास्त्री और नेता राष्ट्रीय उत्पादन, राष्ट्रीय आय, बचत विनियोग, विदेशी मुद्रा भंडार, शेयर सूचकांक और आर्थिक विकास की दर जैसी अमूर्तन शब्दावली में देश को संबोधित करते हैं ।
      लेकिन सरकारी प्रचार से संस्थानों और बुद्धिजीवियों के विचार और तथ्य अनदेखे रह जाते हैं । वैसे सरकारें खुद अपने द्वारा बनवाए गए तथ्यों को ही अपना अंतिम सत्य मान बैठती है । सरकारों के कामकाज के मूल्यांकन के कई आधार होेते हैं । इन आधारों में से किसान आत्महत्या और शिशु मृत्यु दर सबसे सवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। दुनिया के पिछड़े, विकासशील और विकसित देश अपनी भौगोलिक स्थिति से नहीं वरन् अपने नागरिकों के जीवनस्तर से जाने जाते हैं ।
    भारत सरकार की जनगणना रपट २०११ के अनुसार भारत के कई राज्यों में कृषिगत समस्याओं के कारण खेती करने वाले किसानों की संख्या घट रही है । मध्यप्रदेश में ही खेती करने वालों की संख्या ११ प्रतिशत घटकर ९८ लाख केआसपास रह गई है । २००१ की जनगणना तक एक करोड़ १० लाख लोग खेती से जुड़े थे । अब इनमें से कई किसान कृषि मजदूरी करने में लगे हैं । `मालिक से मजदूर बन जाना` कोई सरल वाक्य नहीं है ।
    चेन्नई स्थित पत्रकारिता के एशियन कॉलेज के अर्थशास्त्री प्रोफेसर नागराज द्वारा २००८ में किसान-आत्महत्याओं पर किए गए नवीन अध्ययन के अनुसार भारत में २००१ की जनगणना की तुलना में २०११ की जनगणना में किसान आत्महत्याओं में अधिक वृद्धि हुई है ।
    देश के मध्य में स्थित पांच बड़े राज्य आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में देश में हुई कुल किसान आत्महत्याओं की दो-तिहाई आत्महत्याएं हुई हैं । राज्य सरकारें और पुलिस किसानों के नाम जमीन की रजिस्ट्री होने पर ही किसान आत्महत्या का प्रकरण दर्ज करते हैं । भारत के संयुक्त   परिवारों में परिवार के मुखिया या एक बड़े सदस्य के नाम पर ही जमीन दर्ज होने की परम्परा है । ऐसे में किसान आत्महत्याओं की संख्या न जाने कितनी और अधिक हो सकती है । प्रोफेसर नागराज के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य ने २०११ वर्ष को `जीरो किसान आत्महत्या वर्ष` घोषित किया था, जबकि सच्चई यह है कि २०११ के पूर्व के तीन वर्षों में छत्तीसगढ़ में देश में हुई कुल किसान आत्महत्याओं से ३५० गुना अधिक आत्महत्याएं हुई हैं । इस दौरान यहां ४७०० किसानों की आत्महत्या दर्ज हैं ।
    इसके पहले पंजाब और हरियाणा जैसे विकसित राज्य भी `महिला-किसान आत्महत्या शून्य वर्ष` मना चुके हैं । सच्चई यह है कि अत्यंत कम महिलाओं के नाम किसानी जमीन दर्ज है । जनगणना वर्ष २००१ से वर्ष २०११ में अधिक किसान आत्महत्या होने वाले १० राज्यों में पंजाब और हरियाणा भी शामिल हैं । राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकार्ड के अनुसार १९९५ से २०११ तक २,७०,९४० किसानों ने आत्महत्या की है । इस प्रकार औसतन ४६ किसान प्रतिदिन आत्महत्या करते हैं । इन बड़े पांच राज्यों में महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य किसानों की संख्या में जनगणना २०११ में कमी दर्ज हुई है ।
    किसान आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि में ही शिशु मृत्यु दर के आंकड़ों को समझना जरूरी है । किसानों की नई कृषि और ग्रामीण व्यवस्था में हिम्मत टूट रही है तो गर्भवती स्त्रियों और नवजात शिशुओं के पांव  परती-भूमि पर कैसे टिक सकते हैं । इस वर्ष `सेव द चिल्ड्रन` की रपट हमारे देश की व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न खड़ा करती है । इसका इस वर्ष का विषय `विश्व की माताओं की स्थिति` पर केन्द्रित है । इस रपट के अनुसार प्रथम दिवस शिशु मृत्यु में इस बार भी भारत `प्रथम` स्थान पर ही रहा है । भारत में जन्म के पहले दिन ही ३,०९,३०० नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है । यह पूरे विश्व की प्रथम-दिवस शिशु मृत्यु का २९ प्रतिशत है ।
    विश्व में तंजानिया, अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, बांग्ला-देश, इथोपियो, कांगो, चीन, पाकिस्तान और नाईजीरिया में यह मृत्यु दर ९ प्रतिशत से भी कम है । चीन को छोड़कर शेष देशों की जनसंख्या भारत से कम है, परन्तु अन्य दूसरे देश आतंकवाद, गृहयुद्ध और अकाल से पीड़ित भी हैं । इन देशों में प्रशासकीय अव्यवस्था के बीच कम से कम एकसामाजिक व्यवस्था तो बनी हुई है ।
    `सेव द चिल्ड्रन` की रपट का दूसरा भाग और भी अधिक भयावह तथ्यों को उजागर करने वाला है । भारत के चयनित राज्यों में प्रति १००० जीवित जन्म देने वाले बच्चें में से जन्म के ७ दिनों के अंदर मर जाने वाले बच्चें की मृत्यु दर विशेषकर `बीमारु` राज्यों में सार्वाधिक है । इस रपट के अनुसार इस श्रेणी के बच्चें की संख्या में मध्यप्रदेश का प्रथम स्थान है । मध्यप्रदेश में प्रति एक हजार जीवित जन्में बच्चें में से ३२ की मृत्यु हो जाती है । इसके बाद क्रमश: उत्तरप्रदेश ३०, ओडिसा ३०, राजस्थान २९, जम्मू और कश्मीर २६ और झारखंड, बिहार, असम और छत्तीसगढ़ में २५ बच्चे आते हैं ।
    हमारे देश के ही एक राज्य केरल में यह मृत्युदर सबसे कम ०५ है । इसके कम होने को स्वास्थ्य के साथ केरल की शिक्षा से भी जोड़कर देखना जरूरी है । इस समय गुजरात राज्य के विकास मॉडल की अधिक चर्चा है । गुजरात में एक हजार जीवित जन्में बच्चें में से ७ दिन के अंदर मर जाने वाले बच्चें की संख्या २२ है । किसान आत्महत्या और शिशु मृत्यु दर का सहसंबंध सरकार और समाज की अराजकता का प्रतीक है । केन्द्र सरकार का एक विज्ञापन कहता है कि कुपाोषण भारत छोड़ो पर यह नहीं बताता आखिर यह कुपोषण आता कहां से है ? कुपोषण केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की नीतियों में ही कहीं छुपा रहता है ।
    कार्ल मार्क्स ने अपने ग्रंथ `पूंजी` में लिखा है कि `एशिया के राज्य लगातार बिगड़ते और बनते तथा हुकुमत करने वाले राजवंश लगातार बदलते रहते हैं। लेकिन उसके विपरीत, ये ग्रामीण समाज सदा ज्यों के त्यों बने रहते हैं । `न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून` में `हिंदुस्तान में ब्रिटिश शासन` नामक आलेख में मार्क्स लिखते हैं कि हिंदुस्तानियों की पुरानी दुनिया का इस तरह बिछुड़ जाना और नई का कहीं पता न लगने से हिंदुस्तानियों के  वर्तमान दु:खों पर एक विशेष प्रकार की उदासी की परत चढ़ जाती है ।
    इससे हमें गांधीजी के  चंपारण में नील की खेती के विरुद्ध उनके प्रथम भारतीय किसान आंदोलन की याद आती है । आज भारत के सभी गांव चंपारण की त्रासदी भोग रहे हैं और शेष चंपारण बनने के भय में हैं, लेकिन हमने तो अंग्रेजी बाघ सभ्यता को ही अपना लिया है । इसके फलस्वरूप समाज आधारित समाज से हम सरकार-आधारित समाज बन गए हैं । अब सरकारों के विभिन्न विभाग समाज को बताते हैं कि कब,  कहां और कैसे क्या-क्या करना है ।
    कोई भी सरकार इतनी बड़ी जनसंख्या का `राशनवाला` नहीं बन सकती है । समाज आधारित समाज के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है ।

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