गुरुवार, 14 नवंबर 2013

 विज्ञान, हमारे आसपास
सहारा रेगिस्तान में कभी नदियां बहती थीं
संध्या रायचौधरी

    सहारा रेगिस्तान का नाम जेहन में आते ही ख्याल आता है कि रेत के टीलों और एक ऐसी जगह का जहां एक बूंद पानी तक के लिए कोई तरस जाए । सहारा रेगिस्तान ५१०० किलोमीटर लंबी व २२०० किलोमीटर चौड़ी एक रेतीली पट्टी के रूप में उत्तरी अफ्रीका में फैला है । अपने मेंअफ्रीकी महाद्वीप का करीब सवा करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल समेटे यह करीब-करीब पूरे युरोप के बराबर है । उत्तर में एटलस पर्वत श्रृंखला से लेकर दक्षिण में सूडान व पश्चिम में अटलांटिक महासागर से लगकर नील की पहाड़ी तक एक नन्हीं सी नदी तक यहां नजर नहीं आती । 
     प्राचीन इतिहासकारों ने भी अपने लेखों व यात्रा वृतांतों में इस रेगिस्तान का वर्णन किया है । इन लेखों को पढ़कर पता चलता है कि आज से ३००० साल पहले भी यह रेगिस्तान ऊंची, पथरीली चट्टानों, बालू के टीलों व नमक की पहाड़ियों से भरा था । आज के सहारा का करीब ४० प्रतिशत तो सूखी रेत से ही पटा है । बाकी हिस्से से ऊंची चट्टानें है जिनकी ऊंचाई १०००० फुट से भी अधिक है । मजे की बात है कि कई बार सर्दी के मौसम में इन पर बर्फ भी जम जाती है । सहारा का काफी बड़ा भाग समुद्र में १५०० फुट नीचे स्थित है । इसके तटीय क्षेत्रों में, जहां बारिश होती रहती है, छोटे मरूस्थलीय पौधे, झाड़ व खजूर के पेड़ भी दिख जाते हैं । यही वह स्थान है जहां कुछ लोगों का अत्यधिक कठिन परिस्थितियों में रहते देखा जा सकता है ।
    सोचकर आश्चर्य होता है कि आज बूंद-बूंद पानी को तरसते सहारा रेगिस्तान में कभी पेड़-पौधे व जीव-जन्तु भरे पड़े थे । ऐसे कई प्रमाण मिले हैं जो यह दर्शाते है कि यह क्षेत्र हरियाली से भरा था और यहां तमाम अफ्रीकी लोग रहते थे । इस बात के प्रमाण तब इकट्ठा होने शुरू हुए जब उन्नसवीं शताब्दी के प्रारंभ में फ्रांस निवासी रैन फैली ने १८२८ में इस रेगिस्तान को अकेले पैदल पार   किया । वे टिम्बकटू से लेकर मोरक्को तक गए थे । इस फ्रांसीसी की इस अद्भुत यात्रा के बारे में जब युरोप के लोगों को पता चला तो तमाम लोग इस रेगिस्तान की खोजबीन करने के लिए तैयार हो गए । यहां पर हफ कलैप्टर्न, वाल्टर आदि ने आकर पत्थरों पर खुदे चित्रों में तमाम ऐसे जानवार खोजे जो अब वहां पाए ही नहीं जाते । इन लोगों ने ही यह निष्कर्ष निकाला कि ये चित्र यहां बसी आबादी के ही कुछ लोगों ने बनाए होंगे ।
    सहारा के अतीत को जानने में प्रमुख मोड़ १८५५ में आया जब जर्मनी निवासी हेनरिच बार्थ ने पांच साल में कई महत्वपूर्ण स्थानों जैसे कडआर, फैज्जान, चाड़, टिम्बकटू आदि का भ्रमण करने के बाद सहारा का पूरा मानचित्र बनाया । उन्होनें पता लगाया कि यहां पर कहीं भी ऊंट का चित्र नहीं मिलता है । यानी एक समय यहां पर ऊंट का अस्तित्व था ही नहीं । हेनरिच ने सहारा के पूरे इतिहास को दो भागों में बांटा - १. ऊंट पूर्व काल और २. ऊंट काल ।
    सहारा में मिलने वाली गुफाआें का अध्ययन का जब फ्रांस  के पुराविद मोनोड ने किया तो उन्होनें उन चित्रों में ऐसे जानवर भी खोजे जो पानी में ही रहते हैं । यहां दरियाई घोड़ों के चित्र भी मिले । उन्होनें पाया कि इनके ऊपर ही घोड़े के चित्र भी बने हैं जो कई हजार साल बाद बनाए गए होंगे । उस समय तक दरियाई घोड़े खत्म हो गए थे । ऊंट काल की शुरूआत आज से करीब सवा दो हजार साल पहले हुई थी । इसके बाद जैसे-जैसे सहारा रेगिस्तान रेगिस्तान बढ़ता गया, वैसे-वैसे ऊंट पूरे रेगिस्तान में फैलने लगे । इन चित्रों में युद्ध, जानवरों के शिकार, दैनिक क्रियाकलाप आदि के साथ पेड़-पौधों के चित्र थे ।
    यही नहीं, यहां की चट्टानों पर भी बहते पानी के तमाम निशान मिले हैं । यानी कभी यहां पर काफी पानी बहा करता था । यह हरा-भरा क्षेत्र मरूस्थल में इसलिए बदल गया क्योंकि धु्रवीय क्षेत्रों में आने वाली ठंडी हवाएं यहां नहीं पहुंचने लगीं । यहीं वे हवाएं थी जिनकी वजह से यहां पर जमकर बारिश होती थी । वैज्ञानिकों के अनुसार, आज से करीब १०-११ हजार साल पहले उत्तरी युरोप पर छाई रहने वाली बर्फ की चादर सिकुडने लगी । बर्फ के सिकुड़ते ही वायुमंडलीय दाब में भी परिवर्तन शुरू हो गए और इसी दाब ने बादलों पर भी प्रभाव डाला ।
    नतीजतन, ठंडी हवाआें की जगह सहारा के ऊपर गर्म हवाएं बहने लगीं । धीरे-धीरे यहां पानी की कमी होने लगी और पानी के भीतर रहने वाले जीव कम होते गए । जमीन पर रहने वाले जीव अन्य जगहों पर चले गए और इंसान भी दूसरे आश्रय की खोज में निकल पड़े ।
    यह प्रक्रिया काफी धीमी गति से मगर कई हजार साल तक चलती रही । आज से करीब ३००० साल पहले सभी पेड़ पौधे लुप्त् हो गए और सहारा रेगिस्तान बन गया । दिन का तापमान ४९ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता और रात बर्फीली ठंडी   होती । ताप के इतने उतार-चढ़ाव से ही चट्टानों की ऊपरी सतह में फैलाव  और सिकुड़न होने लगी जिससे चट्टानें टूटने लगीं । इन टूटी चट्टानों से हवाएं टकराती व चट्टानों घिसती रहती और बालू व बजरी से क्षेत्र भरते    रहते ।
    रेत के इधर-उधर बिखरने से नदियों के बहाव पर भी प्रभाव पड़ा और उनका बहाव कम होता गया । कई दशकों तक बारिश न होने की वजह से नदियों दलदल में बदल    गई । इसी के साथ यहां तेजी से बहने वाली हवाआें ने रेत को चारों और फैला दिया और कमी हरियाली से भरा सहारा सूखे रेगिस्तान में बदल गया ।

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