गुरुवार, 14 नवंबर 2013

 दीपावली पर विशेष
पर्यावरण सरंक्षण में सहायक घटक
डॉ. कैलाशचन्द्र सैनी

    प्रकृति हमेंवह सब कुछ प्रदान करती है, जिसकी हमेंआमतौर पर आवश्यकता होती है । मनुष्य के मन में प्रारंभ से ही प्रकृति पर विजय प्राप्त् करने की आकांक्षाएँ हिलोरे लेती रही है । आधुनिक विज्ञान मनुष्य की इन आकांक्षाआें को पूरी करने में सहायक सिद्ध हो रहा है । मानव के स्वार्थ और लालसा ने ही हमें विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है । मानवता को बचाने के लिए जरूरी है हम अपने इस गर्व को त्यागकर प्रकृति की नैसर्गिकता को अक्षुण्ण रखने का प्रयास करें । 
     प्रकृति सदा ही मनुष्य को सीखने के लिए प्रेरित करती रही है । प्रकृति की गोद मेंपले जीव-जन्तुआें की नकल से ही नये-नये आविष्कार हुए हैं । वास्तुशिल्पी हो या वैज्ञानिक सभी ने प्रकृति की प्रेरणा से नई दिशा में सोचने और कुछ नया करने का निश्चय किया है । हमें अधिकांश उपलब्धियाँ प्रकृतिकी प्रेरणा से ही हासिल हुई है । प्रकृतिका प्रत्येक घटक मनुष्य को प्रेरणा देने में समर्थ है । पशु-पक्षियों की प्राकृतिक दिनचर्या से प्रेरणा पाकर मनुष्य अपने नीरस जीवन में प्रसन्नता और प्रफुल्लता का संचार कर सकता है ।
    पर्यावरण का स्वस्थ और संतुलित बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी है कि लोग प्रकृति को अपनी सहचरी समझेंऔर उसके साहचर्य में सहअस्तित्व की शिक्षा ग्रहण करें । लोगों को यह समझ में आये कि किस तरह वनस्पतियां और जीव जन्तु पर्यावरण के संरक्षण और मनुष्य के अस्तित्व के लिए जरूरी हैं ।
    यदि प्रकृतिकी स्वाभाविक प्रक्रिया मेंबाधा न डाली जाये तो यह पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काफी हद तक सहायक हो सकती है । पानी, पशु-पक्षी और पेड़ प्रकृतिके प्रमुख घटक हैं जो पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । प्रकृतिकिसी एक की सम्पत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की धरोहर है । गांधीजी द्वारा वर्षो पहले कही हुई यह बात आज जनजीवन के हर क्षेत्र में सही साबित हो रही है कि पृथ्वी प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा कर सकती है लेकिन वह किसी भी एक व्यक्ति के लोभ को संतुष्ट नहीं कर सकती ।
    भारतीय संस्कृतिमें जल को जीवन को आधार माना गया है और इसी दृष्टिकोण से जल को हमेशा सहेजने की परम्परा रही है । सदियों से प्रकृतिका संचालन जल के द्वारा ही होता आया है । अल्प वर्षा से ग्रस्त रहने के कारण ही मरू प्रदेश राजस्थान के लोग जल को अमृत समान समझते रहे हैं । प्रदेश के विभिन्न अंचलोंमें एक शताब्दी के दौरान पड़े अकाल की गाथा को यहां एक लोकोक्ति के रूप मेंबड़े ही मार्मिक ढंग से इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है जिसका आशय है कि सात बार अकाल, तेईस बार अच्छी वर्षा और सड़सठ बार ठीक-ठीक वर्षा लेकिन तीन ऐसे दुर्भिक्ष कि माँ और बेटा वापस मिल ही नहीं पाये । पारम्परिक जल स्त्रोत के रूप में कुएं जैसे जल स्त्रोत तो विश्व में सभी जगह हैं लेकिन कुई, बावड़ी, नाड़ी जैसे स्त्रोत अधिकांशत: राजस्थान में ही हैं ।
    भारतीय संस्कृतिमें प्रारंभ से ही पर्यावरण की शुद्धता का विशेष महत्व रहा है । हमारे यहां पंच भौतिकतत्वों पर काफी कुछ लिखा गया है, उन्हें पवित्र एवं मूल तत्वों के रूप में माना गया है । वेदों और उपनिषदों में पंच तत्वों, वनस्पति तथा पर्यावरण संरक्षण पर विशद् चर्चा की गई है । प्रकृतिमें वायु, जल, मिट्टी, पेड-पौधों, जीव-जन्तुआें एवं मानव का एक संतुलन विद्यमान है जो हमारे अस्तित्व का आधार है । जीवधारी अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति पर निर्भर हैंऔर आधुनिक मानव सभ्यता को प्रकृति द्वारा प्रदान की गई सबसे मूल्यावन निधि पर्यावरण है जिसका संरक्षण हम सभी का दायित्व है ।
    आज हमने प्राकृतिक विरासत रूपी नदियोंको दिव्य देन के रूप में देखने समझने के बजाय तरह-तरह के स्वार्थ, प्रदूषण और विवादोंमें परिवर्तित कर दिया है । यह प्रकृति के प्रति हमारे बदलते दृष्टिकोण का ही परिणाम है जिसके कारण मानव ऐसा दानव बन गया है जो समस्त सृष्टि को अपने नियंत्रण में करके उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाना चाहता है । लेकिन अब इस इच्छा के दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं ।
    भारत में हर साल चार-पांच महीनों में करीब ४००० अरब घन लीटर वर्षा होती है लेकिन इसमें से हम सिर्फ १२ प्रतिशत का ही उपयोग कर पाते हैं । बांध बनाने में काफी समय लगता है फिर भी यहां के बांध भारत की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं । सिंचाई के लिए लगभग ८० प्रतिशत भूजल का प्रयोग होता है और इसी के कारण भूजल का स्तर तेजी से घट रहा है जो एक चिन्ता की बात है । यदि यही स्थिति लम्बे समय तक रही तो जल्दी ही यह पानी भी खत्म हो जाएगा क्योंकि जिस अनुपात में भूजल का दोहन हो रहा है उस अनुपात से जल संरक्षण का काम नहीं हो पा रहा है ।
    जीवन रक्षा के लिए स्वच्छ प्राणदायक तत्व वायु के बाद इंसान के लिए पानी ही सबसे महत्वपूर्ण पदार्थ है, जिसे प्रकृति ने हर जगह उपलब्ध करवाने की पहल की है । मानव शरीर को जटिल जल प्रणाली का संवाहक कहें तो गलत नहीं  होगा । भिन्न-भिन्न तरह के तरल पदार्थ छोटी बड़ी नलियों के जरिये ही पूरे शरीर में दौड़ते रहते हैं । हमारे लिए पानी का रासायनिक महत्व भी कम नहीं है । इसलिए हमें पानी की सुरक्षा के लिए भी सदैव तत्पर रहना   चाहिए । हमें प्रकृति की इस अनुपम देन का दुरूपयोग नहीं होने देना चाहिए ।
    हमें पानी के पारम्परिक स्त्रोतों पर भी ध्यान देना होगा जैसे कि नदियों और तालाबों में काफी समय से जमा गाद को निकाल जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि उनमें एकत्र पानी साफ रहे । औद्योगिक कचरा उनमें न जा पाये । भारत में पानी की कमी नहीं है, यहां काफी पानी है, आवश्यकता है इसके उचित प्रबंधन की । यह काम युद्ध स्तर पर किया जाना चाहिए । स्थानीय स्तर पर जल संरक्षण का काम होना चाहिए, हर गाँव को अपने जल के संरक्षण के लिए सतत् प्रयास करना होगा । इससे गाँवों के उन कुआेंमें तो पानी वापस भर ही जाएगा जो सूख रहे थे, उन स्त्रोतों में भी पानी लौटेगा जो खत्म हो रहे थे । वर्षा जल के अधिकाधिक संग्रहण और उसके उचित उपयोग से ही हम जीवनदायी जल को बच सकेंगे ।
    पक्षियों को हमारे पर्यावरण का थर्मामीटर कहा गया है । उनकी सेहत एवं उनकी प्रफुल्लता से यह परिलक्षित होता है कि हम जिस वातावरण में रह रहे हैं, वह कैसाहै ? प्रदूषित हवा से होनेवाली अम्लीय वर्षा का असर हमारी जिन्दगी में देर से होता है, लेकिन इसके प्रतिकूल प्रभाव से चिड़ियों के अंडे पतले पड़ने लगते हैं और उनकी आबादी घटने लगती  है । मोबाइल फोन से निकलने वाली तरंगों का इंसान पर कितना हानिकारक प्रभाव पड़ता है, इस पर तो अभी शोध ही चल रहा है लेकिन गौरेया, श्यामा और अबाबील जैसी छोटी चिड़ियों को इनसे होने वाले नुकसान के बारे में वैज्ञानिक अपना निष्कर्ष बता चुके हैं ।
    किसानों के जीवन में पक्षियों का विशेष महत्व है । घर से थोड़ा दूर रहने वाले मोर, कठफोड़वा, बुलबुल, नीलकंठ व बया आदि पक्षियों का गुजारा खेतों और पेड़ों पर होता है जबकि वनमुर्गी, बतख, बगुला और किंगफिशर का गुजर-बसर ताल-तलैया और पोखरों पर निर्भर करता है । टिहरी रहती तो पोखरों के करीब है लेकिन अंडे सूखी जमीन पर ही देती है । अब आँगन में बेखौफ चहकती गौरेया, घरों मे बने उसके घोसलों में चीं-चीं करते चूजे और घर के आसपास पेड़-पौधों पर उड़ती रंग-बिरंगी तितलियों के संग खेलने के दिन लद गए हैं । अब तो कौआ, तोता, मैना जैसी चिड़ियों के साथ-साथ गिद्धों के सामने भी अस्तित्व का संकट गहराने लगा है और यह सब हुआ है मनुष्य की नासमझी के कारण ।
    पर्यावरण विशेषज्ञोंके अनुसार पक्षियों का प्राकृतिक आवासों में होना मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है । ये मानव जीवन के लिए खतरनाक कीट-पतंगोंको अपना भोजन बनाकर हमारी रक्षा करते हैं । पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पक्षियों का मानव जीवन में बहुत बड़ा महत्व है । आकाश में उड़ते ये पंखवाले परोपकारी जीव पर्यावरण की सफाई के बहुत बड़ा योगदान करते है । गिद्ध, कौआ, चील ऐसे पक्षी है जो मृत जानवरों के अवशिष्ट का सफाया करके धरती को साफ-सथुरा रखने में मदद करते हैं । दु:ख की बात है कि विलुप्त् होते परिन्दों को बचाने के लिए पर्याप्त् प्रयास नहीं हुए है, परिणामस्वरूप रंग-बिरंगे विभिन्न किस्म के पक्षियों के अलावा हर घर में चहकने वाली गोरैया भी अब दुर्लभ पक्षियों की श्रेणी में आ चुकी है ।
    पर्यावरण संरक्षण के लिए यह जरूरी हो गया है कि हम पक्षियों को बचाने की दिशा में जागरूक हो  जायें । पक्षियों की संख्या यदि इसी तरह कम होती गई तो पर्यावरण में जो असंतुलन पैदा होगा उसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियों को भोगना होगा । हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए धन-दौलत, सम्पन्नता और सुविधाएँ विरासत के रूप में छोड़कर इस दुनिया से प्रयाण कर जाएंगे, किन्तु जब पर्यावरण असंतुलन होगा तब हमारी आने वाली पीढ़ी जिस कठिनाई में जीवन व्यतीत करेगी उसका अंदाजा लगाना आज संभव नहीं हैं । हमें हर हाल में पक्षियों के जीने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना होगा ।
    हमारे घर के आसपास और बाग-बगीचोंमें चहकते फुदकते परिन्दे अब यहां से भी पलायन कर चुके हैं । अत्यधिक शोर-शराबा व घनी आबादी के बीच पक्षी अपने आपको असहज महसूस करते हैं, इसी कारण ये अब ग्रामीण क्षेत्रों में ही विचारण करते नजर आते हैं जहां आबादी एवं शोर-शराबा कम है । बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण पक्षियों ने शहरों से पलायन करके यह संकेत दे दिया है कि छोटे शहर अब बड़े महानगरों के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं ।
    एक समय था जब चिड़ियाँ हमारे सामाजिक जीवन का अंग हुआ करती थी, लेकिन आज वे हमसे काफी दूर चली गई हैं । उनसे दोबारा रिश्ता कायम करना हमारी पर्यावरण चेतना का अहम हिस्सा होना   चाहिए । पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि चिड़ियों को दूर से ही देख लेना और आनंद का अनुभव करना काफी नहीं है । अगर हम उन्हें पहचानें, उनको उनके नाम को जाने  और चहचहाहट सुनकर पहचान सकें, तो हमारा आनंद और बढ़ जायेगा ।
    पेड़-पौधे पर्यावरण को संतुलित रखने में विशेष भूमिका निभाते हैं । संसार में सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण करके भोजन के निर्माण का कार्य केवल हरे पौधे ही कर सकते हैं । इसलिए पौधों को उत्पादक कहा जाता है । पौधों द्वारा उत्पन्न किए गए भोजन को ग्रहण करने वाले जन्तु शाकाहारी होते हैं और उन्हें प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहते हैं । जैसे - गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हाथी, ऊँट, खरगोश, बंदर ये सभी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते है । प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताआें को भोजन के रूप में खाने वाले जन्तु मांसाहारी होते हैं और वे द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं । इसी प्रकार द्वितीय श्रेणी के  उपभोक्ताआें को खाने वाले जन्तु तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं ।
    इस तरह हम देखते हैं कि ऊर्जा का प्रवाह सूर्य से हरे पौधों में, हरे पौधों से प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताआें में और प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताआें  से द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताआें में और फिर उनसे तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताआें की ओर होता  है । सभी पौधे और जन्तु वे चाहे किसी भी श्रेणी के हो, मरते अवश्य हैं । मरे हुए पौधों व जन्तुआें को सड़ा-गलाकर नष्ट करने का कार्य जीवाणु और कवक करते हैं । ऊर्जा के प्रवाह को जब हम एक पंक्ति के क्रम में रखते हैं तो खाद्य श्रृंखला बन जाती है । जैसे हरे पौधे-कीड़े-मकोड़े-सर्प-मोर । इसी प्रकार की बहुत सी खाद्य श्रृंखलाएं विभिन्न परितंत्रों में पायी जाती है ।
    प्रकृति के सारे कार्य एक सुनिश्चित व्यवस्था के अन्तर्गत होते रहते हैं । यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों का अनुसरण करता रहे तो उसके लिए पृथ्वी पर जीवनयापन की मूलभूत आवश्यकताआें में कोई कमी नहीं आयेगी । यह मनुष्य का दुश्चिंतन ही है जिसके चलते वह प्रकृति का अति शोषण करता है परिणामस्वरूप प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा जाता है ।
    यदि किसी खाद्य श्रृंखला को तोड़ दिया जाए, तो उसका नुकसान अन्तत: मनुष्य को ही उठाना पड़ता है । उदाहरण के लिए एक वन में शेर भी रहते हैं और हिरण भी । खाद्य श्रृंखला के अनुसार  हिरण प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता है और शेर द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता । शेर हिरण को खाता रहता है । यदि शेरों का शिकार कर दिया जाए तो हिरण वन में बहुत अधिक संख्या में हो जायेंगे और उनके लिए वन की घास कम पड़ेगी और वे फसलों को हानि पहुंचाकर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ देंगे ।
    बहुत से जीव-जन्तु हमें बिल्कुल अनुपयोगी और हानिकारक प्रतीत होते हैं, लेकिन वे खाद्य श्रृंखला की प्रमुख कड़ी होते हैं और उनका पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होता है । जेसे कीड़े-मकोड़े पौधों के तनों और पत्तियों को खाकर फसलों को बहुत हानि पहुँचाते हैं । ये पक्षियों का भोजन बनकर पक्षियों से फसल को सुरक्षित रखते हैं और पक्षी इन कीडों को खाकर कीड़ों से फसल  की रक्षा करते हैं । इन कीड़ों के अभाव में पक्षी फसलों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुँचा सकते हैं ।
    इसी प्रकार साँप मनुष्य को बड़ा हानिकारक और खतरनाक दिखाई देता है, लेकिन यह खाद्य श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण अंग होने के कारण मानव जाति के लिए बड़ा उपयोगी है, किसानों का मित्र भी    है । चूहा किसानों का शत्रु है, जो बहुत बड़ी मात्रा में अन्न को खाकर बर्बाद कर देता है । साँप चूहों को खाकर उनकी संख्या को नियंत्रित रखता है । यदि खेतों में साँप न हो तो चूहों की संख्या इतनी अधिक हो जायेगी कि ये सारी फसल को चट कर जायेंगे । घास के मैदान मेंफुदकने वाला मेढ़क व्यर्थ का जन्तु प्रतीत होता है, लेकिन मक्खी-मच्छरों को खाकर पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देता है । इस प्रकार खाद्य श्रृंखला को तोड़ने पर पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है ।
    जीव जीवस्य भोजनम् के अनुसार कोई जीव किसी का भक्षण करता है तो कोई दूसरा जीव उसका भक्षण कर जाता है । सभी समुचित संख्या में पृथ्वी पर उत्पन्न होकर जीवनयापन करते रहें, ताकि खाद्य श्रृंखलाएं सुचारू रूप से चलती रहे, इसके लिए समस्त जीवों का संरक्षण करना मनुष्य का कर्त्तव्य है लेकिन मनुष्य स्वार्थवा पृथ्वी पर उपलब्ध जल, अनाज, पशु-पक्षी, पेड पौधे तथा ऊर्जा के स्त्रोतों का असंतुलित ढंग से उपयोग कर रहा है । पृथ्वी में जीवन को बनाए रखने की अपार क्षमता है लेकिन यह तब तक ही है जब तक पर्यावरणीय सम्पदा का समुचित संरक्षण किया जाये ।
    पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने मे वृक्ष अहम योगदान देते हैं । शोधकर्ताआें ने बताया कि वृक्ष पहले किये गये शोध से निकले परिणाम से तीन गुना अधिक पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखते हैं । वृक्ष वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों को अवशोषित कर उन्हें वायुमण्डल में जाने से रोकते  हैं । शहरों में सामान्य और खतरनाक वायु प्रदूषक अवयवों को वृक्ष आसानी से अवशोषित कर लेते हैं । इसलिए पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के लिए आज अधिक से अधिक वृक्ष लगाने की जरूरत है ।
    पर्यावरण सम्पदा का संरक्षण आज के समय की मांग है । हमें वन्य जीवन संरक्षण तथा राष्ट्र की स्वच्छता एवं हरित क्षेत्र को बढ़ाने के लिए प्रयास करना चाहिए । राजस्थान में इस दिशा में हरित राजस्थान कार्यक्रम के रूप में जो पहल की गयी है उसके तहत आम आदमी पेड़ों की हमारी पुरानी संस्कृति से जुड़ा  है । आज स्थिति यह हो गयी है कि सरकारी और निजी नर्सरियों से पेड़ ले जाने वाले लोगों की भीड़ दिखाई देने लगी है । आने वाले वर्षो मेें ये पेड़ बड़े वृक्षों के रूप में लहलहाते हुए शुद्ध हवा देने के साथ-साथ पर्यावरण को स्वच्छ  रखेंगे ।
    प्राकृतिक संतुलन में अनावश्यक व्यवधान डालना स्वयं को विनाश की ओर ले जाना है । वृक्ष हमें फूल व छाया दोनों देते है । इन छोटे वृक्षों में भी पक्षी अपना घोंसला बना सकते हैं । अत: वृक्ष ऐसे लगाए जाने चाहिए, जिनमें पक्षी अपना घोंसला बना सकें । बागवानी का अर्थ केवल रंग-बिरंगे फूलों वाले सुन्दर पौधों से बाग को सजाना ही नहीं है, बल्कि अपने वातावरण व पर्यावरण के प्रति सजग रहना भी  है । पेड़ लगाना ही पर्याप्त् नहीं है बल्कि उसका पोषण भी किया जाना चाहिए । जिस प्रकार हम संतान की सुरक्षा करते है वैसे ही पेड़-पौधों का भी संरक्षण करना चाहिए ।
    आजकल आश्रय खत्म होने के कारण ही पक्षियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है । जामुन के पेड़ों पर ही पक्षियों का संरक्षण सबसे ज्यादा सुरक्षित है । ये पेड़ लम्बी उम्र के होने के साथ-साथ छायादार भी होते हैं । इनसे पक्षियों को छाया, आश्रय और खाने के लिए फल मिल जाते है । इस तरह की जरूरतें पूरी होने पर पक्षी इसे स्थायी ठिकाना बनाकर रहते हैं । वन विभाग को जामुन के पौधों के सहारे पक्षियों का अस्तित्व बनाए रखने की पहल करनी चाहिए । वन विभाग का यह प्रयास लोगों को साथ जोड़ने का भी काम करेगा, क्योंकि इनसे मिलने वाले लाभ के कारण लोग खुद इनकी देखभाल में भी रूचि लेंगे ।
    हमने अपने संकीर्ण स्वार्थो के लिए प्रकृति का अतिदोहन किया है जिसके कारण प्रकृति का संतुलन डगमगाया है ।

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