हमारा भूमण्डल
विकास को निगलता नव उपनिवेशवाद
मेनुअल मोंटेस
बीसवीं शताब्दी के मध्य में यह माना जाने लगा था कि अब विश्व से उपनिवेशवाद का अंत हो गया है । लेकिन वास्तव में यह छल ही था । शताब्दी विकास लक्ष्यों को लेकर किसी तरह की मतभिन्नता नहीं है, लेकिन इसे पूरा करने में ``सामाजिक कल्याण`` बनाम ``विकास`` की यह बहस शुरू होना दिखा रहा है कि विकास का वैश्विक मॉडल ही है, जिसे हम समाप्त हुआ समझ रहे थे ।
विकास को निगलता नव उपनिवेशवाद
मेनुअल मोंटेस
बीसवीं शताब्दी के मध्य में यह माना जाने लगा था कि अब विश्व से उपनिवेशवाद का अंत हो गया है । लेकिन वास्तव में यह छल ही था । शताब्दी विकास लक्ष्यों को लेकर किसी तरह की मतभिन्नता नहीं है, लेकिन इसे पूरा करने में ``सामाजिक कल्याण`` बनाम ``विकास`` की यह बहस शुरू होना दिखा रहा है कि विकास का वैश्विक मॉडल ही है, जिसे हम समाप्त हुआ समझ रहे थे ।
शताब्दी विकास लक्ष्यों को लेकर सबसे आकर्षक बात यह थी कि इन आठ लक्ष्यों में से सात पर कमोवेश सभी की सहमति थी । गरीबी, भूख, लैंगिक असमानता कुपोषण एवं बीमारी को कम करने हेतु राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तर पर संसाधनों और राजनीति का भरपूर एकत्रीकरण हुआ। जबसे इन्हें घोषित किया गया है तभी से इन शताब्दी विकास लक्ष्यों ने विकासात्मक सोच के संपूर्ण कलेवर को अपने आसपास समेट लिया है । इस दौरान राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने इसके संबंध में होने वाले विमर्शों से यह मूलभूत विचार ग्रहण किया है कि विकास का अर्थ है, आर्थिक रूपांतरण ।
इन लक्ष्यों को लेकर चल रहे विमर्शों ने यह भुला दिया है कि वैसे तो विकास गरीबी और वंचना को कम कर सकता है लेकिन यह अनिवार्य नहीं है कि विकास नीतियां इस तरह निर्देशित हो कि वे लोगों को स्थायी रूप से कम उत्पादक रोजगार से अधिक उत्पादक रोजगार की ओर भेज सकें । गरीबी में कमी और आर्थिक रूपांतरण एक ही चीज नहीं है । आर्थिक रूपांतरण के लिए एक नए वैश्विक समझौते के लिए आवश्यक है कि राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था के रूपांतरण हेतु नीतियों को नए सिरे से तैयार करें । यही विकासात्मक वैश्वीकरण की मांग भी है ।
अब स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ही लें । इसे लेकर यह बहस प्रारंभ हो गई है कि क्या सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता एक लक्ष्य होगा ? सबसे पहले हम अमेरिका जैसे कुछ विकसित देशों को ही लेत हैं । वहां पर स्वयं सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता श्रेणी में लाने का लक्ष्य निर्धारित नहीं है । वैश्विक अर्थव्यवस्था के अन्य कई पक्षों की तरह इस तरह के लक्ष्य विकासशील देशों पर तो लागू होते हैं, अतएव इसी तरह की बाध्यता से अमीर देशों को छूट नहीं दी जा सकती । दूसरा सभी को स्वास्थ्य सेवा के दायरे में लाना भले ही मूल मानवाधिकार की श्रेणी में आता हो, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं करता कि अंतत: स्वास्थ्य सेवाओं में किन-किन बातों का निर्धारण होगा । उदाहरणार्थ क्या इसमें वहन कर सकने वाले मूल्य पर दवाईयों तक पहुंच एवं प्रभावशाली घरेलू स्वास्थ्य सेवा प्रणाली भी शामिल हैं ?
दवाइयों की उपलब्धता और लागत दोनों ही बड़े अनुपात में विकसित देशों से ही आती हैं और यह व्यवस्था लंबे समय से विकासशील देशों के लिए नासूर बनी हुई है । इतना ही नहीं शोध एवं चिकित्सकीय उत्पादन का बीमारियों एवं उपचार के संबंध में अत्यधिक मात्रा में (पीड़ित जनसंख्या के अनुपात में) झुकाव विकसित देशों की ओर है । क्या वैश्विक लक्ष्यों का निर्धारण ``ठ ीक`` प्रकार की औषधियों और उनके वहन कर पाने वाले मूल्यों के हिसाब से होगा ? कौन सा पक्ष इन लक्ष्यों को अपनी बाध्यता समझकर स्वीकार करेगा ?
विकासशील देशों में औषधि निर्माण हेतु क्षमता निर्माण के वास्ते वास्तविक रूपांतरण यानि श्रम के कम उत्पादक से अधिक उत्पादक रोजगार की ओर प्रवृत्त होने की आवश्यकता है । लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि विकसित देश वहन कर पाने वाली दर पर विकासशील देशों को न सिर्फ तकनीक उपलब्ध कराएं, बल्कि आवश्यकता इस बात की भी है कि वे उस तकनीक पर लागू एकाधिकारी अधिकारों को भी नरम करें जो कि अभी सिर्फ उसके अविष्कारकर्ता को दे दिए जाते हैं ।
प्रभावशाली घरेलू आंतरिक स्वास्थ्य प्रणाली निर्मित करने के लिए आवश्यक है कि भवन निर्माण, नियमन एवं स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय प्रबंधन हेतु स्थानीय मानव संसाधनों एवं सरकारी क्षमताओं में वृद्धि की जाए । ऐतिहासिक रूप से इन नई क्षमताओं में ही आर्थिक रूपांतरण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष सम्मिलित हैं । अन्यथा ये स्वास्थ्य प्रणालियां हमेशा ही विदेशी दानदाताओं एवं निजी फाउंडेशनों की दया पर निर्भर बनी रहेगी । अब ऐसा समय आ गया है कि एक वास्तविक विकासात्मक सोच को स्थापित किया जाए और विश्व समुदाय के लिए यह आवश्यक है कि वह इस अवसर को हाथ से जाने न दे ।
सच तो यह है कि औपनि-वेशिक काल से ही यह विचार प्रचलित है कि विकसित देश अन्य देशों की गरीबी और कल्याण के बारे में तो चिंतित रहते हैं, लेकिन उनके विकास की लगातार अनदेखी करते हैं । सौभाग्यवश सन् १९३० के दशक में १९ वीं शताब्दी में जिस तरह से उपनिवेशों को लेकर छीना-झपटी हो रही थी उस पर विराम लग गया । औपनिवेशिक शक्तियां इस बाहरी नियंत्रण को न्यायोचित बताने के लिए अपनी जिम्मेदारी को ``मूल निवासियों के कल्याण`` जैसे नए विशेषणों से सुशोभित करने लगीं थीं । जिसे सन् १९८७ में अर्थशास्त्री एंड्रेट ने आर्थिक उन्नति या विकास से बहुत अलग चीज निरूपित किया था । उदाहरणार्थ सन् १९३९ में ब्रिटिश सरकार ने उपनिवेश विकास एवं कल्याण अधिनियम लागू करते हुए अपने कब्जे वाले इलाकों एवं न्यासी (ट्रस्टीशिप) वाले क्षेत्रों में पोषण स्वास्थ्य एवं शिक्षा हेतु न्यूनतम अर्हताएं तय कर दी थीं ।
अपने इसी विश्लेषण में एंड्र्ंट ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन द्वारा जमैका की योजना की आलोचना करने वाले डब्ल्यू आर्थर लेविस को उद्धृत करते हुए कहा है कि यह योजना उपनिवेश में जीवनस्तर को ऊपर उठाने हेतु ``सामाजिक कल्याण`` एवं ``आर्थिक विकास`` के मध्य अंतर कर पाने में असफल रही थी ।
यदि सन् २०१५ के बाद तयशुदा वैश्विक लक्ष्यों को वास्तव में विकासात्मक होना है तो शताब्दी विकास लक्ष्यों का औपनिवेशवाद मुक्त होना अनिवार्य है । विकास संचालित इस वैश्वीकरण में अफ्रीका एक मात्र ऐसा महाद्वीप नहीं है जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ध्यान केेंद्रित करने की आवश्यकता है । इस कतार में और भी देश हैं और आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें स्वयं के विकास के लिए अपने मानव व प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल की पूरी छूट हो । विविधता आंचलिक सहयोग के द्वार खोलती है । वस्तुओं (कच्च्े माल) के निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था काफी अस्थिर होती है । इसलिए आवश्यक है कि उत्पादक रोजगार सृजन हेतु घरेलू उद्योग स्थापित किए जाएं ।
इन लक्ष्यों को लेकर चल रहे विमर्शों ने यह भुला दिया है कि वैसे तो विकास गरीबी और वंचना को कम कर सकता है लेकिन यह अनिवार्य नहीं है कि विकास नीतियां इस तरह निर्देशित हो कि वे लोगों को स्थायी रूप से कम उत्पादक रोजगार से अधिक उत्पादक रोजगार की ओर भेज सकें । गरीबी में कमी और आर्थिक रूपांतरण एक ही चीज नहीं है । आर्थिक रूपांतरण के लिए एक नए वैश्विक समझौते के लिए आवश्यक है कि राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था के रूपांतरण हेतु नीतियों को नए सिरे से तैयार करें । यही विकासात्मक वैश्वीकरण की मांग भी है ।
अब स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ही लें । इसे लेकर यह बहस प्रारंभ हो गई है कि क्या सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता एक लक्ष्य होगा ? सबसे पहले हम अमेरिका जैसे कुछ विकसित देशों को ही लेत हैं । वहां पर स्वयं सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता श्रेणी में लाने का लक्ष्य निर्धारित नहीं है । वैश्विक अर्थव्यवस्था के अन्य कई पक्षों की तरह इस तरह के लक्ष्य विकासशील देशों पर तो लागू होते हैं, अतएव इसी तरह की बाध्यता से अमीर देशों को छूट नहीं दी जा सकती । दूसरा सभी को स्वास्थ्य सेवा के दायरे में लाना भले ही मूल मानवाधिकार की श्रेणी में आता हो, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं करता कि अंतत: स्वास्थ्य सेवाओं में किन-किन बातों का निर्धारण होगा । उदाहरणार्थ क्या इसमें वहन कर सकने वाले मूल्य पर दवाईयों तक पहुंच एवं प्रभावशाली घरेलू स्वास्थ्य सेवा प्रणाली भी शामिल हैं ?
दवाइयों की उपलब्धता और लागत दोनों ही बड़े अनुपात में विकसित देशों से ही आती हैं और यह व्यवस्था लंबे समय से विकासशील देशों के लिए नासूर बनी हुई है । इतना ही नहीं शोध एवं चिकित्सकीय उत्पादन का बीमारियों एवं उपचार के संबंध में अत्यधिक मात्रा में (पीड़ित जनसंख्या के अनुपात में) झुकाव विकसित देशों की ओर है । क्या वैश्विक लक्ष्यों का निर्धारण ``ठ ीक`` प्रकार की औषधियों और उनके वहन कर पाने वाले मूल्यों के हिसाब से होगा ? कौन सा पक्ष इन लक्ष्यों को अपनी बाध्यता समझकर स्वीकार करेगा ?
विकासशील देशों में औषधि निर्माण हेतु क्षमता निर्माण के वास्ते वास्तविक रूपांतरण यानि श्रम के कम उत्पादक से अधिक उत्पादक रोजगार की ओर प्रवृत्त होने की आवश्यकता है । लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि विकसित देश वहन कर पाने वाली दर पर विकासशील देशों को न सिर्फ तकनीक उपलब्ध कराएं, बल्कि आवश्यकता इस बात की भी है कि वे उस तकनीक पर लागू एकाधिकारी अधिकारों को भी नरम करें जो कि अभी सिर्फ उसके अविष्कारकर्ता को दे दिए जाते हैं ।
प्रभावशाली घरेलू आंतरिक स्वास्थ्य प्रणाली निर्मित करने के लिए आवश्यक है कि भवन निर्माण, नियमन एवं स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय प्रबंधन हेतु स्थानीय मानव संसाधनों एवं सरकारी क्षमताओं में वृद्धि की जाए । ऐतिहासिक रूप से इन नई क्षमताओं में ही आर्थिक रूपांतरण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष सम्मिलित हैं । अन्यथा ये स्वास्थ्य प्रणालियां हमेशा ही विदेशी दानदाताओं एवं निजी फाउंडेशनों की दया पर निर्भर बनी रहेगी । अब ऐसा समय आ गया है कि एक वास्तविक विकासात्मक सोच को स्थापित किया जाए और विश्व समुदाय के लिए यह आवश्यक है कि वह इस अवसर को हाथ से जाने न दे ।
सच तो यह है कि औपनि-वेशिक काल से ही यह विचार प्रचलित है कि विकसित देश अन्य देशों की गरीबी और कल्याण के बारे में तो चिंतित रहते हैं, लेकिन उनके विकास की लगातार अनदेखी करते हैं । सौभाग्यवश सन् १९३० के दशक में १९ वीं शताब्दी में जिस तरह से उपनिवेशों को लेकर छीना-झपटी हो रही थी उस पर विराम लग गया । औपनिवेशिक शक्तियां इस बाहरी नियंत्रण को न्यायोचित बताने के लिए अपनी जिम्मेदारी को ``मूल निवासियों के कल्याण`` जैसे नए विशेषणों से सुशोभित करने लगीं थीं । जिसे सन् १९८७ में अर्थशास्त्री एंड्रेट ने आर्थिक उन्नति या विकास से बहुत अलग चीज निरूपित किया था । उदाहरणार्थ सन् १९३९ में ब्रिटिश सरकार ने उपनिवेश विकास एवं कल्याण अधिनियम लागू करते हुए अपने कब्जे वाले इलाकों एवं न्यासी (ट्रस्टीशिप) वाले क्षेत्रों में पोषण स्वास्थ्य एवं शिक्षा हेतु न्यूनतम अर्हताएं तय कर दी थीं ।
अपने इसी विश्लेषण में एंड्र्ंट ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन द्वारा जमैका की योजना की आलोचना करने वाले डब्ल्यू आर्थर लेविस को उद्धृत करते हुए कहा है कि यह योजना उपनिवेश में जीवनस्तर को ऊपर उठाने हेतु ``सामाजिक कल्याण`` एवं ``आर्थिक विकास`` के मध्य अंतर कर पाने में असफल रही थी ।
यदि सन् २०१५ के बाद तयशुदा वैश्विक लक्ष्यों को वास्तव में विकासात्मक होना है तो शताब्दी विकास लक्ष्यों का औपनिवेशवाद मुक्त होना अनिवार्य है । विकास संचालित इस वैश्वीकरण में अफ्रीका एक मात्र ऐसा महाद्वीप नहीं है जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ध्यान केेंद्रित करने की आवश्यकता है । इस कतार में और भी देश हैं और आवश्यकता इस बात की है कि उन्हें स्वयं के विकास के लिए अपने मानव व प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल की पूरी छूट हो । विविधता आंचलिक सहयोग के द्वार खोलती है । वस्तुओं (कच्च्े माल) के निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था काफी अस्थिर होती है । इसलिए आवश्यक है कि उत्पादक रोजगार सृजन हेतु घरेलू उद्योग स्थापित किए जाएं ।
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