गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कविता
मरूस्थल और नदी
डॉ. शिवमगलसिंह सुमन
















 

मैं मरूथल हॅू इसलिए नदी का आकर्षण,
मैं सहज मुक्त माँगता तरलता का बंधन ।
मुझमें उभरे है ढूह, बबूलों की छाया,
तेरी छवि का संकोच दुकूलों ने पाया ।
मेरे कण-कण को प्यास सदा सहलाती है,
मुझमें उड़ती है धूल कि तू लहराती है ।
आँधियों बगूलों की मनुहार लपेटे हॅंू,
तुझको भर लूँ इतना विस्तार समेटे हॅूं ।
मुझमें अंकित बेडौल पगों की कर्मठता,
मुझमें शंकित मन की शफरी-सी चंचलता ।
हर झोंके में उड़ती रहती मन की  पर्तेंा,
मैंने ही गरि को दी थी सागर की शर्ते ।
मेरे सूखे अधरों में एक कहानी है,
मैं रीझ गया इसलिए कि तुझमें पानी है ।
तू बहती रहती है इसलिए जवानी है,
तेरे अन्तर की लहर-लहर लासानी है ।
जो कुछ प्रवाह में सुलझ गया वह तेरा है,
जो कुछ बाहों में उलझ गया वह मेरा है ।
जो कुछ अन्तर में भटक गया वह तेरा है,
जो कुछ अधरों में अटक गया वह मेरा है ।
मैं गीला हो जाता हॅूं भीग नहीं पाता,
इसलिए युगों से है मेरा-तेरा नाता ।
जिस दिन मेरी तापित तृष्णा बुझ जाएगी,
मनुहारों की आधार-शिला ढह जाएगी ।
गिरि-सागर की दूरी कितनी बढ़ जाएगी,
अपनी धड़कन का अर्थ न तू पढ़ पाएगी ।
तेरी साँसों का सूनापन बढ़ जाएगा,
बीती बातों का मोल बहुत चढ़ जाएगा ।
तेरे-मेरे सपनों को कौन सजाएगा ?
अंबर धरती से नाहक सिर टकराएगा ।

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