गुरुवार, 14 नवंबर 2013

सामयिक
अर्थव्यवस्था पर छाया अंधकार
देविन्दर शर्मा

    भारतीय अर्थव्यवस्था के रसातल मेंजाने की वजह आर्थिक उदारीकरण का अंधानुकरण ही है । उदारीकरण के दो दशकोंने इस नई अर्थव्यवस्था का चरम और पतन दोनों ही देख लिए हैं । खाद्यान्न पर सब्सिडी की मुखालफत करने वाला धनी वर्ग सोने पर दी जा रही छूट को अपना अधिकार समझता है ।
    सितंबर २०११ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि, कुछ वर्ष पूर्व विश्व, वैश्वीकरण एवं वैश्विक पारस्परिक निर्भरता के लाभों को लकर निश्चिंत हो गया था । लेकिन आज हमें उस उन्माद के नकारात्मक प्रभावों से भी तारतम्य बैठाना पड़ेगा । सन् २००८ के आर्थिक संकट के बाद से स्थिति की बहाली की जो उम्मीद जगी थी, उसका पूरा होना अभी बाकी है । अतएव प्रधानमंत्री से यह सवाल पूछने की आवश्यकता है कि यदि उन्हें इस बात का भान था कि क्या कुछ घटित होने वाला है तो उन्होनें भारत को उसी स्वविघ्वंस के रास्ते पर क्यों धकेला ? क्योंकि आज रूपया आैंधे मुंह गिर पड़ा है । चालू खाते का घाटा और आयात और निर्यात के बीच का अंतर सन् १९९१ के पहले के स्तर पर पहुंच चुका है और वित्तीय घाटे में कमी की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है । 
    वैसे प्रधानमंत्री को यह सब ज्यादा अच्छे से मालूम होगा । सन् २००५ एवं २००९ के दौरान जब आर्थिक वृद्धि की दर ८ से ९ प्रतिशत थी और संभवत: अपने चरम पर थी तब भी इस उच्च् आर्थिक वृद्धि की वजह से रोजगार का सृजन नहीं हो रहा था । योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार इसी अवधि में १.४ करोड़ लोग कृषि से बाहर हुए और ५३ लाख लोगों को निर्माण क्षेत्र से रोजगार से हाथ धोना पड़ा । यदि वृद्धि अतिरिक्त रोजगार में परिवर्तित नहीं होती और इसके बजाए इससे बेरोजगारी बढ़ती है, तो समझ लेना चाहिए कहीं पर कुछ गलत हो रहा  है ।
    पिछले ९ वर्षो से जब से मनमोहन सिंह ने देश की बागडोर संभाली, तब से भारत में सस्ते आयातित उत्पादों की बाढ़ सी आ गई है और आयात की सीमा ५० अरब डॉलर (३ लाख करोड़ रूपये) तक पहुंच गई है । इसका करीब ५४ प्रतिशत आयात सिर्फ चीन से ही होता है । आयात होने वाले इन अधिकांश उपभोक्ता उत्पादों को देश में ही निर्मित किया जा सकता है । लेकिन इतना ही काफी नहीं था भारत अब चीन के साथ मुक्त व्यापार अनुबंध पर हस्ताक्षर करना चाहता  है । वैसे भारत अन्य ३४ देशों के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने की जल्दबाजी कर रहा है । इसका परिणाम यह हो रहा है कि भारत में निर्यात के मुकाबले आयात बढ़ता रहा है, जिसका सीधा सा अर्थ है ये व्यापार समझौते देश के लिए लाभदायक नहीं है । प्रधानमंत्री इसका दोष किसी और पर नहीं मढ़ सकते, क्योंकि यह जानते हुए कि आयात आसमान छूते जा रहा हैैं, प्रधानमंत्री स्वयं द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को बढ़ावा दे रहे हैं ।
    भारत एवं यूरोपियन यूनियन व्यापार के लंबित समझौते के मामलों को लें । यूरोपियन यूनियन इस बात का जोर डाल रहा है कि भारत शराब एवं स्प्रिट पर आयात शुल्क कमीं करके इसका बाजार खोले और दूध के आयात पर शुल्क में भारी कम करें और इसे वर्तमान स्तर ६० प्रतिशत से कम करके १० प्रतिशत पर ले आए । इससे आयातित दूध की बाढ़ आ जाएगी । जबकि त्रासदी यह है कि भारत विश्व में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश है । सस्ते एवं अत्यन्त अधिक सब्सिडी प्राप्त् कृषि उत्पादों के साथ ही साथ निर्मित सामग्री के आयात का अर्थ है बेरोजगारी का आयात । उदाहरणार्थ खाद्य तेलों के आयात शुल्क को ३०० प्रतिशत से घटाकर शून्य प्रतिशत पर लाने से देश अब प्रतिवर्ष ६०००० करोड़ रूपये का खाद्य तेल आयात कर रहा है ।
    अर्थशास्त्री खाद्य सुरक्षा अधिनियम हेतु १.२५ लाख करोड़ रूपये के प्रावधान को लेकर हाय तौबा मचा रहे हैं । उनका कहना है इतना सार्वजनिक खर्च वित्तीय घाटे में और बढोत्तरी करेगा । लेकिन वे इस तथ्य से आंख मूंद लेते है कि सन् २००५-०६ से अब तक उद्योग को कर छूट के रूप में ३० लाख करोड़ रूपये दिए जा चुके हैं । मई २०१३ से निर्यात ऋणात्मक १.६ प्रतिशत तक सिकुड़ गया है और निर्माण क्षेत्र तो कमोवेश नष्ट हो चुका है । तो क्या यह सिद्ध नहीं हो जाता कि दी गई कर छूट एक बेफालतू का खर्च था ? यदि इसकी वसूली हो जाती है तो देश का सारा वित्तीय घाटा अपने आप समाप्त् हो जाएगा ।
    भारतीय उद्योगपतियों को मिली व्यापक कर छूट जिसे राजस्व माफी (रेवेन्यु फारगॉन) की श्रेणी में डाल दिया गया, का यदि देश के भीतर ही निवेश किया गया होता, तो इससे लाखों-लाख रोजगार निर्मित हो सकते थे । एक और औघोगिक उत्पादन में गिरावट जारी है, लेकिन इसी के साथ चौकांने वाली बात यह है कि निजी क्षेत्र नकदी के भंडार पर बैठा हुआ है । मार्च २०१२ में भारतीय उद्योगपति समूह १० लाख करोड़ के नकद भंडार पर बैठा है । अतएव भारत को घुटने पर बैठकर प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने की जरूरत नहीं है, जबकि उसके अपने कारपोरेट नकदी के पहाड़ पर विराजमान है । इसे बाहर निकालने से निवेशकों के विश्वास एवं व्यापार के माहौल होने में ऊर्जा का संचार होगा ।
    इस सबसे ऊपर क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट बता रही है कि भारत के दस सबसे बड़े निगमों (कारपोरेट्स) ने बाहरी व्यावसायिक ऋण लेने में ६ गुना वृद्धि की है और यह आंकड़ा भयभीत कर देने वाली संख्या ६,३०,००० करोड़ रूपये के स्तर पर पहुंच गया है । परन्तु इस विशाल ऋण से ठीक-ठाक आमदनी न होने से बाहरी ऋण बढ़ते ही जा रहे हैं । अत: इस बात की जांच की जाना आवश्यक है, अत्यधिक बाहरी ऋण और नकद भण्डारण के रहते किस वजह से सरकार साल दर साल करों में छूट देती जा रही है ? पिछले दो वर्षो में ही सरकार ११ लाख करोड़ खैरात में बांट चुकी हैं ।
    दु:खद यह है कि प्रधानमंत्री ने यह सब जानते हुए इस बात की अनुमति दी है कि मुक्त बाजार नीतियां एवं विनियमन ही इस आर्थिक संकट के पीछे हैं । लेकिन यथोचित सुधारवादी कदम उठाने के उन्होनें भारतीय अर्थव्यवस्था को डगमगाने और नीचे गिरने की अनुमति दी, यहीं उनसे चूक हो    गई । वास्तविकता यह है कि बीमार अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाने का प्रस्तावित रास्ता भी वही है, जिससे अर्थव्यवस्था में गिरावट की बीमारी आई थी । इतना ही नहीं, यह समस्या को और बढ़ाएगा ।

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