हमारा भूण्डल
वन विनाश और वैश्विक मानसिकता
सुश्री मोनिका हेल्लस्टर्न
प्रति वर्ष विश्वभर में तकरीबन १.३ करोड़ हेक्टेयर वन नष्ट कर दिए जाते हैं । इसका जलवायु एवं मनुष्य दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । यदि वर्तमान स्थिति में वनों का विनाश रोका गया तब भी इन्हें पुन: पल्लिवित होने में कम से कम आगामी ३०० वर्ष लगेंगे । वैसे पुर्नवनीकरण ने जोर तो पकड़ा है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि जंगल नहीं बगीचे लगाए जाते हैं ।
पृथ्वी पर मौजूद भूमि का एक तिहाई यानि चार अरब हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र वर्तमान में वनों से आच्छादित है । सिर्फ ८००० वर्ष पूर्व वनों का क्षेत्रफल इससे ३५ प्रतिशत ज्यादा था । वन पीने के पानी के जलाशयों की तरह कार्य करते हैं और भूक्षरण एवं भूस्खलन तथा बाढ़ से बचाव भी करते हैं। इसके अलावा जल आपूर्ति का नियमन, जैव विविधता के लिए स्थान उपलब्ध कराकर एवं कार्बन भंडारण के माध्यम से जलवायु का संरक्षण कर पर्यावरण को भी स्थिर रखते हैं । वन लकड़ी और औषधीय पौधे जैसे वन उत्पाद भी उपलब्ध कराते हैं ।
वन विनाश और वैश्विक मानसिकता
सुश्री मोनिका हेल्लस्टर्न
प्रति वर्ष विश्वभर में तकरीबन १.३ करोड़ हेक्टेयर वन नष्ट कर दिए जाते हैं । इसका जलवायु एवं मनुष्य दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । यदि वर्तमान स्थिति में वनों का विनाश रोका गया तब भी इन्हें पुन: पल्लिवित होने में कम से कम आगामी ३०० वर्ष लगेंगे । वैसे पुर्नवनीकरण ने जोर तो पकड़ा है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि जंगल नहीं बगीचे लगाए जाते हैं ।
पृथ्वी पर मौजूद भूमि का एक तिहाई यानि चार अरब हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र वर्तमान में वनों से आच्छादित है । सिर्फ ८००० वर्ष पूर्व वनों का क्षेत्रफल इससे ३५ प्रतिशत ज्यादा था । वन पीने के पानी के जलाशयों की तरह कार्य करते हैं और भूक्षरण एवं भूस्खलन तथा बाढ़ से बचाव भी करते हैं। इसके अलावा जल आपूर्ति का नियमन, जैव विविधता के लिए स्थान उपलब्ध कराकर एवं कार्बन भंडारण के माध्यम से जलवायु का संरक्षण कर पर्यावरण को भी स्थिर रखते हैं । वन लकड़ी और औषधीय पौधे जैसे वन उत्पाद भी उपलब्ध कराते हैं ।
वनों के सिकुड़ने की शुरुआत तब हुई जबकि मानव प्रजाति के बड़े हिस्से ने एक स्थान पर बसना और कृषि का विकास प्रारंभ किया । पिछली शताब्दियों में जहाजों के बेड़ों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने एवं नाटकीय ढंग से यूरोप व एशिया ने वन विनाश का सामना किया है । साथ ही खेती के लिए बड़ी मात्रा में पेड़ों की कटाई की गई । आज तो अफ्रीका, उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका से भी वन विलुप्त होते जा रहे हैं । अब तो आदिम वनों से मात्र एक तिहाई ही अनुछुए बचे हैं ।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) प्रत्येक पांच वर्ष में वैश्विक वन संसाधन आंकलन (एफआरए) प्रकाशित करता है । सन् २०१० के अंक में बताया गया है कि सन् २००० से अब तक उष्णकटिबंधीय वनों में चार करोड़ हेक्टेयर की कमी आई है तथा बड़ी मात्रा में हो रहे वनविनाश के गंभीर परिणाम सामने आएंगे । वनों के माध्यम से ही जटिल ईको सिस्टम टिकाऊ होता है, जिससे कि पौधों एवं पशु प्रजातियों की विविधता बनी रहती है । मनुष्य के अधिक हस्तक्षेप से यह नाजुक संतुलन बिगड़ जाता है । थोड़े परिवर्तन से ही जैव विविधता को हानि पहुंचने लगती है । पूरे क्षेत्र की सफाई न कर मात्र किसी एक क्षेत्र में चयन कर सीमित मात्रा में कटान से भी ऐसी ही परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं । यदि औषधीय पौधोंके संदर्भ में बात करें तो जैव विविधता अनमोल है ।
वर्तमान में कटाई और वन सफाई की वजह से दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी अमेरिका और मध्य अफ्रीका के वर्षा वन खतरे में हैं । सरकारें दरियादिली बरतते हुए इनके शोषण की अनुमति दे रही हैं । स्थितियां इसलिए और बद्तर हो जाती हैं क्योंकि कंपनियां अक्सर तयशुदा कानूनी मानकों पालन नहीं करतीं । अधिकांश जंगलों में कोई कानून लागू ही नहीं होता । लकड़ी का एक उत्पादन की तरह निर्यात किया जाता है । इसके परिणामस्वरूप जब इस संसाधन का निर्माण या भवन निर्माण के उद्देश्य से प्रयोग होता है तो, इसके उद्गम वाला देश उसमें कुछ भी योगदान नहीं कर पाता । कुछ कंपनियां सोया या पाम तेल की या अन्य फसलें लेने या पशुओं को चराने के लिए वनों की सफाई करती हैं । भूमि तक जल्दी पहुंच बनाने हेतु कुछ कंपनियां ``काटो और जलाओ`` का रास्ता अपनाती हैं । इस तरह के भू उपयोग परिवर्तनों का स्थानीय लोगों को सामान्यतया कोई लाभ नहीं होता ।
वैश्विक तौर पर पुनर्वनीकरण की रणनीति अपनाई जा रही है । वर्तमान में विश्व के कुल वन क्षेत्र का करीब सात प्रतिशत इन्हीं सहायक वनों का है। यूरोप, एशिया और उत्तरी अमेरिका में इसके विस्तार से सहायक वनों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है । अपने उत्तरी अंचल को रेगिस्तानीकरण से बचाने के लिए चीन बड़ी मात्रा में वनरोपण कर रहा है । चीन की ``हरी दीवार`` मानवता के इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी पुनर्वनीकरण परियोजना है ।
सन् १९८० एवं १९९० के दशक से प्रारंभ हुए पुनर्वनीकरण के प्रयासों के परिणामस्वरूप वैश्विक वन हानि की रफ्तार में कमी आई है । सन् २०१० की एफआरए रिपोर्ट के अनुसार सन् २००० से २०१० के मध्य वन क्षेत्र में वार्षिक कमी १.३ करोड़ हेक्टेयर रही । जो कि इसके पिछले दशक में ३० लाख हेक्टेयर अधिक थी । सच्चई तो यह है कि वन विनाश १.३ करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है ।
पुनर्वनीकरण नष्ट हुए आदिम वनों का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि नए वन सामान्यतया एकल अर्थात मोनो कल्चर वाले होते हैं । वैसे भी सहायक वन प्राथमिक वनों के वास्तविक स्थानापन्न नहीं हो सकते । लेकिन इससे इमारती लकड़ी के व्यापार की वजह से वर्षा वनों पर पड़ रहे दबाव में कमी आती है । अंतत: यह अनुछुए वनों की बहुमूल्य लकड़ियों जैसे महागनी (शीशम, टीक) की चयनित कटाई के खिलाफ बहुत कम संरक्षण प्रदान कर पाते हैं । जलवायु परिवर्तन व वनविनाश का नजदीकी रिश्ता है । विश्व वन्य जीव कोष के विशेषज्ञों का अनुमान है कि मानव प्रजाति द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाऊस गैसों का १५ प्रतिशत वन विनाश का ही परिणाम है ।
उदाहरण के लिए उत्तरी अमेरिका में बढ़ती शुष्कता वनों में आग की आवृत्ति बढ़ाने के साथ उनकी विकरालता भी बढ़ा रही है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो केवल चार प्रतिशत वन ही आग में बिजली गिरने या अन्य प्राकृतिक कारणों से लगती है । अधिकांश मामलों में मनुष्य ही आग का कारण होते हैं फिर वह किसी उद्देश्य से लगाई गई हो या दुर्घटनावश लगी हो । उदाहरणार्थ दक्षिण पूर्व एशिया में काटो और जलाओ की पद्धति प्रत्येक मौसम में आम हो गई है । खासकर इण्डोनेशिया में इस तरह से विशाल वन क्षेत्र नष्ट किया जाता है ।
बेहतर संरक्षण
वनों के पक्ष में मजबूत पैरोकारी किए जाने की आवश्यकता है । अंतरराष्ट्रीय समझौते जैसे संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन या जंगली वनस्पतियों की विलुप्तप्राय प्रजातियों के व्यापार पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (सीआईटीईएस) को और अधिक प्रतिबद्धता से लागू किया जाना चाहिए । अभी की स्थिति यह है कि राष्ट्रीय कानूनों में वनों और प्रजातियों के संरक्षण संबंधी प्रावधानों को सख्ती से लागू नहीं किया जाता । विश्व वनों का केवल १३ प्रतिशत राष्ट्रीय वनों या प्रकृति संरक्षण के रूप में संरक्षित है । विश्व वन्यजीव कोष का कहना है कि इन प्रावधानों की गुणवत्ता और क्रियान्वयन की स्थिति को लेकर राष्ट्रों में अंतर है । कई जगह तो ये केवल कागज पर ही मौजूद हैं ।
अप्रैल २००१ में सं.रा. वन फोरम ने विश्वभर में वनों को संरक्षित करने हेतु एक समझौता लागू किया । यह कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं है, लेकिन इसमें सन् २०१५ तक इन चार लक्ष्यों की प्राप्ति की बात कही गई है । ये हैं -
(१) विश्वभर में हो रहे वन विनाश को टिकाऊ वन प्रबंधन के माध्यम से रोकना । (२) आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय तौर पर हो रहे वनों के शोषण को रोकने के प्रावधानों में सुधार लाना । (३) संरक्षित वन क्षेत्र में विस्तार । (४) वन संरक्षण से संबंधित आधिकारिक विकास सहायता में आ रही कमी को रोकना ।
वैसे एफआरए की अगली रिपोर्ट ही बता पाएगी कि उपरोक्त लक्ष्यों को कहां तक प्राप्त किया गया । वानिकी विशेषज्ञ जुरगेन ब्लासरे एवं हेंस ग्रेगरसन का अनुमान है वर्षा वनों का अनियंत्रित कटाव अभी अगले ५० वर्षों तक अनियंत्रित तौर पर जारी रहेगा, क्योंकि इन अनुछुए वनों में अभी लकड़ी और कच्च माल मौजूद है । यह प्रवृत्ति तभी रुक सकती है जबकि वन संरक्षण को क ोरता से लागू किया जाएगा । इसके ३०० वर्ष पश्चात ही विश्व के वन पुनर्जीवित हो पाएंगे ।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) प्रत्येक पांच वर्ष में वैश्विक वन संसाधन आंकलन (एफआरए) प्रकाशित करता है । सन् २०१० के अंक में बताया गया है कि सन् २००० से अब तक उष्णकटिबंधीय वनों में चार करोड़ हेक्टेयर की कमी आई है तथा बड़ी मात्रा में हो रहे वनविनाश के गंभीर परिणाम सामने आएंगे । वनों के माध्यम से ही जटिल ईको सिस्टम टिकाऊ होता है, जिससे कि पौधों एवं पशु प्रजातियों की विविधता बनी रहती है । मनुष्य के अधिक हस्तक्षेप से यह नाजुक संतुलन बिगड़ जाता है । थोड़े परिवर्तन से ही जैव विविधता को हानि पहुंचने लगती है । पूरे क्षेत्र की सफाई न कर मात्र किसी एक क्षेत्र में चयन कर सीमित मात्रा में कटान से भी ऐसी ही परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं । यदि औषधीय पौधोंके संदर्भ में बात करें तो जैव विविधता अनमोल है ।
वर्तमान में कटाई और वन सफाई की वजह से दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी अमेरिका और मध्य अफ्रीका के वर्षा वन खतरे में हैं । सरकारें दरियादिली बरतते हुए इनके शोषण की अनुमति दे रही हैं । स्थितियां इसलिए और बद्तर हो जाती हैं क्योंकि कंपनियां अक्सर तयशुदा कानूनी मानकों पालन नहीं करतीं । अधिकांश जंगलों में कोई कानून लागू ही नहीं होता । लकड़ी का एक उत्पादन की तरह निर्यात किया जाता है । इसके परिणामस्वरूप जब इस संसाधन का निर्माण या भवन निर्माण के उद्देश्य से प्रयोग होता है तो, इसके उद्गम वाला देश उसमें कुछ भी योगदान नहीं कर पाता । कुछ कंपनियां सोया या पाम तेल की या अन्य फसलें लेने या पशुओं को चराने के लिए वनों की सफाई करती हैं । भूमि तक जल्दी पहुंच बनाने हेतु कुछ कंपनियां ``काटो और जलाओ`` का रास्ता अपनाती हैं । इस तरह के भू उपयोग परिवर्तनों का स्थानीय लोगों को सामान्यतया कोई लाभ नहीं होता ।
वैश्विक तौर पर पुनर्वनीकरण की रणनीति अपनाई जा रही है । वर्तमान में विश्व के कुल वन क्षेत्र का करीब सात प्रतिशत इन्हीं सहायक वनों का है। यूरोप, एशिया और उत्तरी अमेरिका में इसके विस्तार से सहायक वनों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है । अपने उत्तरी अंचल को रेगिस्तानीकरण से बचाने के लिए चीन बड़ी मात्रा में वनरोपण कर रहा है । चीन की ``हरी दीवार`` मानवता के इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी पुनर्वनीकरण परियोजना है ।
सन् १९८० एवं १९९० के दशक से प्रारंभ हुए पुनर्वनीकरण के प्रयासों के परिणामस्वरूप वैश्विक वन हानि की रफ्तार में कमी आई है । सन् २०१० की एफआरए रिपोर्ट के अनुसार सन् २००० से २०१० के मध्य वन क्षेत्र में वार्षिक कमी १.३ करोड़ हेक्टेयर रही । जो कि इसके पिछले दशक में ३० लाख हेक्टेयर अधिक थी । सच्चई तो यह है कि वन विनाश १.३ करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है ।
पुनर्वनीकरण नष्ट हुए आदिम वनों का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि नए वन सामान्यतया एकल अर्थात मोनो कल्चर वाले होते हैं । वैसे भी सहायक वन प्राथमिक वनों के वास्तविक स्थानापन्न नहीं हो सकते । लेकिन इससे इमारती लकड़ी के व्यापार की वजह से वर्षा वनों पर पड़ रहे दबाव में कमी आती है । अंतत: यह अनुछुए वनों की बहुमूल्य लकड़ियों जैसे महागनी (शीशम, टीक) की चयनित कटाई के खिलाफ बहुत कम संरक्षण प्रदान कर पाते हैं । जलवायु परिवर्तन व वनविनाश का नजदीकी रिश्ता है । विश्व वन्य जीव कोष के विशेषज्ञों का अनुमान है कि मानव प्रजाति द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाऊस गैसों का १५ प्रतिशत वन विनाश का ही परिणाम है ।
उदाहरण के लिए उत्तरी अमेरिका में बढ़ती शुष्कता वनों में आग की आवृत्ति बढ़ाने के साथ उनकी विकरालता भी बढ़ा रही है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो केवल चार प्रतिशत वन ही आग में बिजली गिरने या अन्य प्राकृतिक कारणों से लगती है । अधिकांश मामलों में मनुष्य ही आग का कारण होते हैं फिर वह किसी उद्देश्य से लगाई गई हो या दुर्घटनावश लगी हो । उदाहरणार्थ दक्षिण पूर्व एशिया में काटो और जलाओ की पद्धति प्रत्येक मौसम में आम हो गई है । खासकर इण्डोनेशिया में इस तरह से विशाल वन क्षेत्र नष्ट किया जाता है ।
बेहतर संरक्षण
वनों के पक्ष में मजबूत पैरोकारी किए जाने की आवश्यकता है । अंतरराष्ट्रीय समझौते जैसे संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन या जंगली वनस्पतियों की विलुप्तप्राय प्रजातियों के व्यापार पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (सीआईटीईएस) को और अधिक प्रतिबद्धता से लागू किया जाना चाहिए । अभी की स्थिति यह है कि राष्ट्रीय कानूनों में वनों और प्रजातियों के संरक्षण संबंधी प्रावधानों को सख्ती से लागू नहीं किया जाता । विश्व वनों का केवल १३ प्रतिशत राष्ट्रीय वनों या प्रकृति संरक्षण के रूप में संरक्षित है । विश्व वन्यजीव कोष का कहना है कि इन प्रावधानों की गुणवत्ता और क्रियान्वयन की स्थिति को लेकर राष्ट्रों में अंतर है । कई जगह तो ये केवल कागज पर ही मौजूद हैं ।
अप्रैल २००१ में सं.रा. वन फोरम ने विश्वभर में वनों को संरक्षित करने हेतु एक समझौता लागू किया । यह कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं है, लेकिन इसमें सन् २०१५ तक इन चार लक्ष्यों की प्राप्ति की बात कही गई है । ये हैं -
(१) विश्वभर में हो रहे वन विनाश को टिकाऊ वन प्रबंधन के माध्यम से रोकना । (२) आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय तौर पर हो रहे वनों के शोषण को रोकने के प्रावधानों में सुधार लाना । (३) संरक्षित वन क्षेत्र में विस्तार । (४) वन संरक्षण से संबंधित आधिकारिक विकास सहायता में आ रही कमी को रोकना ।
वैसे एफआरए की अगली रिपोर्ट ही बता पाएगी कि उपरोक्त लक्ष्यों को कहां तक प्राप्त किया गया । वानिकी विशेषज्ञ जुरगेन ब्लासरे एवं हेंस ग्रेगरसन का अनुमान है वर्षा वनों का अनियंत्रित कटाव अभी अगले ५० वर्षों तक अनियंत्रित तौर पर जारी रहेगा, क्योंकि इन अनुछुए वनों में अभी लकड़ी और कच्च माल मौजूद है । यह प्रवृत्ति तभी रुक सकती है जबकि वन संरक्षण को क ोरता से लागू किया जाएगा । इसके ३०० वर्ष पश्चात ही विश्व के वन पुनर्जीवित हो पाएंगे ।
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