जीवन शैली
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
सचिन कुमार जैन
भारत की संसद ने खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर एक ऐतिहासिक काम किया है । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (२०१३) बनने का मतलब है कि सरकार का भूखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जवाबदेह बन जाना । हालांकि हमें यह स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि अब भी खाद्य सुरक्षा या भुखमरी से मुक्ति भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है । इसलिए दूर की ही सही पर यह आशंका बनी रहेगी कि इस कानून को कभी भी खत्म किया जा सकता है ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून
सचिन कुमार जैन
भारत की संसद ने खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर एक ऐतिहासिक काम किया है । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (२०१३) बनने का मतलब है कि सरकार का भूखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जवाबदेह बन जाना । हालांकि हमें यह स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि अब भी खाद्य सुरक्षा या भुखमरी से मुक्ति भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है । इसलिए दूर की ही सही पर यह आशंका बनी रहेगी कि इस कानून को कभी भी खत्म किया जा सकता है ।
इस कानून पर चली बहसों में जो पक्ष उभरे उन्हें तीन वर्गो में रखा जा सकता है । एक वर्ग जो यह मानता है कि सरकार ने बहुत लम्बे समय के बाद एक अच्छा कानून बना दिया है और इसमें अनाजों के अधिकार के जो प्रावधान किए गए हैं उनसे भुखमरी मिट जाएगी । दूसरा वर्ग यह मानता है कि कानून बहुत जरूरी कदम था और है, परन्तु इसमें किए गए प्रावधान भुखमरी और खाद्य असुरक्षा के मूल कारणों से लड़ने के मामले में कमजोर हैं । यानी किसानों और प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित नीतियों और उन आर्थिक नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा का अभाव है, जो असमानता बढ़ा रही हैं । वे यह भी मानते है कि इस कानून में जिस खाद्य सुरक्षा की बात की गई है, उसमें पोषण की सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है । तीसरा वर्ग कहता है कि सरकार राजनीतिक लाभ के लिए १.२५लाख करोड़ रूपए रियायत (सब्सिडी) के रूप में बर्बाद कर रही है । इस कदम से आर्थिक विकास के लिए जरूरी सुधार (यानी जनकल्याणकारी कार्यक्रमों पर सरकारी खर्च और सब्सिडी कम करने के उपाय) की प्रक्रिया को आघात पहुंचेगा । वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि देश में मौजूद कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के चलते आर्थिक विकास खोखला है । यह कहना भी गैर-वाजिब है कि इस काम पर होने वाले व्यय से कोई रचनात्मक लाभ नहींहोगा । लोगों को देने के लिए अनाज तो किसानों से ही खरीदा जाएगा न ? इससे किसानों को साल भर में ८० हजार करोड़ रूपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा । इस तरह की कई सच्चईयों को समझना होगा ।
इस बहस में उभरे कई सवाल बहुत महत्वपूर्ण भी हैं । सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में व्याप्त् भ्रष्टाचार (अध्ययनों के आधार पर माना जाता है कि लगभग ३५ प्रतिशत संसाधन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं) को खत्म किए बिना इस कानून के तहत दिए गए अधिकार लोगों तक पहुंच पाएंगे, इस पर शंका बरकरार है । हाल ही में बने कानून में भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए बहुत कमजोर प्रावधान है । यह एक सच्चई है, पर इस आधार पर यह तर्क देना कि सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून नहीं बनाना चाहिए था, बहुत ही गैर-वाजिब तर्क था ।
बेहतर होता यदि सरकार पर और दबाव बनाया जाता कि वह पीडीएस, मध्यान्ह भोजन और आंगनवाड़ी जैसे कार्यक्रमोंमें ढांचागत विकास, उनकी गुणवत्ता बढ़ाने और उनकी सामुदायिक निगरानी के लिए स्पष्ट और ठोस प्रावधान बनाए । लोक सभा और राज्य सभा में इस विधेयक पर हुई बहसों में इन सभी पहलुआें पर बात हुई, पर अंतत: वह औपचारिकता ही साबित हुई । विपक्ष ने भी सरकार को कमजोर कानून बनाने में समर्थन दिया ।
बार-बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि सरकार को इस कानून के क्रियान्वयन के लिए सवा लाख करोड़ रूपये का नया आवंटन करना पड़ेगा । वस्तुत: यह झूठा प्रचार है । वास्तव में आज सरकार वैसे ही ९७ हजार करोड़ रूपये इस पर खर्च कर रही है । उसे कानून के क्रियान्वयन के लिए नई व्यवस्था बनाने (जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा आयोग, पीडीएस का कम्प्यूटीकरण आदि) पर २५ हजार करोड़ रूपये का नया आवंटन करना होगा ।
नया कानून न बनता तब भी यह खर्च तो होना ही था क्योंकि पीयूसीएल बनाम भारत सरकार के मामले मेंसर्वोच्च् न्यायालय ने भी सरकार को पीडीएस में ढांचागत बदालव की व्यवस्था बनाने के आदेश दिए हैं । इसके अलावा एकीकृत बाल विकास परियोजना यानी आंगनवाड़ी और स्कूल मेंमध्यान्ह भोजन योजना भी पहले से ही चल रही है । सभी महिलाआें के लिए मातृत्व अधिकारों (छह माह के लिए १००० रूपये प्रति माह की राशि का प्रावधान) की व्यवस्था एक नया और महत्वपूर्ण कदम है ताकि गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद कुछ महीनों तक स्त्री को आराम, पौष्टिक आहार और जरूरी स्वस्थ्य सेवाएं मिल सकें । जच्च मृत्यु दर, नवजात शिशु मृत्यु दर और बाल मृत्यु दर को कम करने और बच्चें-महिलाआें में कुपोषण को रोकने के लिए यह अत्यन्त जरूरी कदम माना जाना चाहिए । एक तरफ तेजी से हो रहा आर्थिक विकास और दूसरी तरफ कुपोषण का ऊंचे स्तर पर बने हना, यह विरोधाभासी स्थिति है । कुछ लोग सम्पन्न होते जाएं और हर दो मेंसे एक बच्च्े का शारीरिक-मानसिक विकास अवरूद्ध रहे, यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र के चारित्रिक पतन की सूचक मानी जा सकती है । सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह इस स्थिति के संदर्भ में अपना पक्ष स्पष्ट करें ।
डेनमार्क, स्वीडन ऐसे देश हैं जहां वे अपने सकल घरेलू उत्पाद का ८० से ५० प्रतिशत तक कर राजस्व इकट्ठा करते हैं । भारत में यह स्तर २० प्रतिशत से नीचे है । इतना ही नहीं, सरकार आर्थिक विकास के नाम पर लगभग ६ लाख करोड़ रूपये (कुल करों के बराबर की राशि) की छूट दे देती है । इससे हमारे राजस्व आधे रह जाते हैं । बेहतर होगा कि इन दो बिन्दुआें पर ठोस काम करके वह अपना राजस्व बढ़ाए । भ्रष्टाचार को खत्म करने और नव-उदारवादी नीतियों के विलासितापूर्ण खर्चो को रोकने की दिशा में हमारे उन नीतिकारों और विद्धानों की आवाज नहीं निकलती है जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाए जाने का खूब विरोध कर रहे थे, आखिर क्यों ? यह प्रतिबद्धताआें में अंतर का प्रमाण है ।
वास्तव में अंतर नजरियों और प्रतिबद्धताआें का ही है । नव-पूंजीवादी नजरिया मानता है कि इस कानून पर होने वाला खर्च रियायत या सब्सिड़ी है, जो कभी वापस नहीं आएगी, जबकि वास्तविकता यह है कि गरीबी, कुपोषण और वृद्धि-बाधित बचपन की चुनौती से जूझ रहे भारत के लिए यह दीर्घावधि विकास के लिए किया गया निवेश है । भुखमरी-कुपोषण से मुक्त होकर ही हम समतामूलक विकास कर सकते हैं । ऑक्सफोर्ड की अर्थशास्त्री सबीना अलकेर ने दी हिन्दू में लिखा था कि भारत में दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा वृद्धि-बाधित यानी जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त बच्च्े हैं, फिर भी भारत सामाजिक सुरक्षा पर मध्यम आय वाले एशियाई देशों की तुलना में आधा ही खर्च करता है ।
एशिया के उच्च् आय वाले देशों की तुलना में तो भारत का सामाजिक सुरक्षा व्यय महज २० फीसदी है । मध्यम आय वाले एशियाई देश सामाजिक सुरक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का ३.४ प्रतिशत व्यय करते हैं, जबकि भारत १.७ प्रतिशत व्यय करता है । हम इस स्तर पर भी महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के व्यय के कारण पहुंचे हैं । उच्च् मध्यम आय वाले एशियाई देश जीडीपी का औसतन ४ प्रतिशत और उच्च् आय वाले देश १०.२ प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा पर व्यय करते हैं । जापान १९.२ प्रतिशत और चीन ५.४ प्रतिशत इस मद पर खर्च करते हैं । यहां तक कि सिंगापुर सामाजिक सुरक्षा के लिए भारत से दुगना यानी ३.५ प्रतिशत खर्च करता है ।
एक तबका मानता है कि मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून जैसे कदमों से लोग आलसी हो रहे हैं और श्रम की कमी के कारण खेती और उद्योग नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे । सच तो यह है कि इन कदमों से असंगठित क्षेत्र में चल रहा शोषण कम होगा । यह कानून भुखमरी और कुपोषण की समस्या को जड़ों से तो नहीं हटायगा पर इससे एक प्रक्रिया की शुरूआत जरूर होगी ।
इस बहस में उभरे कई सवाल बहुत महत्वपूर्ण भी हैं । सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में व्याप्त् भ्रष्टाचार (अध्ययनों के आधार पर माना जाता है कि लगभग ३५ प्रतिशत संसाधन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं) को खत्म किए बिना इस कानून के तहत दिए गए अधिकार लोगों तक पहुंच पाएंगे, इस पर शंका बरकरार है । हाल ही में बने कानून में भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए बहुत कमजोर प्रावधान है । यह एक सच्चई है, पर इस आधार पर यह तर्क देना कि सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून नहीं बनाना चाहिए था, बहुत ही गैर-वाजिब तर्क था ।
बेहतर होता यदि सरकार पर और दबाव बनाया जाता कि वह पीडीएस, मध्यान्ह भोजन और आंगनवाड़ी जैसे कार्यक्रमोंमें ढांचागत विकास, उनकी गुणवत्ता बढ़ाने और उनकी सामुदायिक निगरानी के लिए स्पष्ट और ठोस प्रावधान बनाए । लोक सभा और राज्य सभा में इस विधेयक पर हुई बहसों में इन सभी पहलुआें पर बात हुई, पर अंतत: वह औपचारिकता ही साबित हुई । विपक्ष ने भी सरकार को कमजोर कानून बनाने में समर्थन दिया ।
बार-बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि सरकार को इस कानून के क्रियान्वयन के लिए सवा लाख करोड़ रूपये का नया आवंटन करना पड़ेगा । वस्तुत: यह झूठा प्रचार है । वास्तव में आज सरकार वैसे ही ९७ हजार करोड़ रूपये इस पर खर्च कर रही है । उसे कानून के क्रियान्वयन के लिए नई व्यवस्था बनाने (जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा आयोग, पीडीएस का कम्प्यूटीकरण आदि) पर २५ हजार करोड़ रूपये का नया आवंटन करना होगा ।
नया कानून न बनता तब भी यह खर्च तो होना ही था क्योंकि पीयूसीएल बनाम भारत सरकार के मामले मेंसर्वोच्च् न्यायालय ने भी सरकार को पीडीएस में ढांचागत बदालव की व्यवस्था बनाने के आदेश दिए हैं । इसके अलावा एकीकृत बाल विकास परियोजना यानी आंगनवाड़ी और स्कूल मेंमध्यान्ह भोजन योजना भी पहले से ही चल रही है । सभी महिलाआें के लिए मातृत्व अधिकारों (छह माह के लिए १००० रूपये प्रति माह की राशि का प्रावधान) की व्यवस्था एक नया और महत्वपूर्ण कदम है ताकि गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद कुछ महीनों तक स्त्री को आराम, पौष्टिक आहार और जरूरी स्वस्थ्य सेवाएं मिल सकें । जच्च मृत्यु दर, नवजात शिशु मृत्यु दर और बाल मृत्यु दर को कम करने और बच्चें-महिलाआें में कुपोषण को रोकने के लिए यह अत्यन्त जरूरी कदम माना जाना चाहिए । एक तरफ तेजी से हो रहा आर्थिक विकास और दूसरी तरफ कुपोषण का ऊंचे स्तर पर बने हना, यह विरोधाभासी स्थिति है । कुछ लोग सम्पन्न होते जाएं और हर दो मेंसे एक बच्च्े का शारीरिक-मानसिक विकास अवरूद्ध रहे, यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र के चारित्रिक पतन की सूचक मानी जा सकती है । सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह इस स्थिति के संदर्भ में अपना पक्ष स्पष्ट करें ।
डेनमार्क, स्वीडन ऐसे देश हैं जहां वे अपने सकल घरेलू उत्पाद का ८० से ५० प्रतिशत तक कर राजस्व इकट्ठा करते हैं । भारत में यह स्तर २० प्रतिशत से नीचे है । इतना ही नहीं, सरकार आर्थिक विकास के नाम पर लगभग ६ लाख करोड़ रूपये (कुल करों के बराबर की राशि) की छूट दे देती है । इससे हमारे राजस्व आधे रह जाते हैं । बेहतर होगा कि इन दो बिन्दुआें पर ठोस काम करके वह अपना राजस्व बढ़ाए । भ्रष्टाचार को खत्म करने और नव-उदारवादी नीतियों के विलासितापूर्ण खर्चो को रोकने की दिशा में हमारे उन नीतिकारों और विद्धानों की आवाज नहीं निकलती है जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाए जाने का खूब विरोध कर रहे थे, आखिर क्यों ? यह प्रतिबद्धताआें में अंतर का प्रमाण है ।
वास्तव में अंतर नजरियों और प्रतिबद्धताआें का ही है । नव-पूंजीवादी नजरिया मानता है कि इस कानून पर होने वाला खर्च रियायत या सब्सिड़ी है, जो कभी वापस नहीं आएगी, जबकि वास्तविकता यह है कि गरीबी, कुपोषण और वृद्धि-बाधित बचपन की चुनौती से जूझ रहे भारत के लिए यह दीर्घावधि विकास के लिए किया गया निवेश है । भुखमरी-कुपोषण से मुक्त होकर ही हम समतामूलक विकास कर सकते हैं । ऑक्सफोर्ड की अर्थशास्त्री सबीना अलकेर ने दी हिन्दू में लिखा था कि भारत में दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा वृद्धि-बाधित यानी जीर्ण कुपोषण से ग्रस्त बच्च्े हैं, फिर भी भारत सामाजिक सुरक्षा पर मध्यम आय वाले एशियाई देशों की तुलना में आधा ही खर्च करता है ।
एशिया के उच्च् आय वाले देशों की तुलना में तो भारत का सामाजिक सुरक्षा व्यय महज २० फीसदी है । मध्यम आय वाले एशियाई देश सामाजिक सुरक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का ३.४ प्रतिशत व्यय करते हैं, जबकि भारत १.७ प्रतिशत व्यय करता है । हम इस स्तर पर भी महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के व्यय के कारण पहुंचे हैं । उच्च् मध्यम आय वाले एशियाई देश जीडीपी का औसतन ४ प्रतिशत और उच्च् आय वाले देश १०.२ प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा पर व्यय करते हैं । जापान १९.२ प्रतिशत और चीन ५.४ प्रतिशत इस मद पर खर्च करते हैं । यहां तक कि सिंगापुर सामाजिक सुरक्षा के लिए भारत से दुगना यानी ३.५ प्रतिशत खर्च करता है ।
एक तबका मानता है कि मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून जैसे कदमों से लोग आलसी हो रहे हैं और श्रम की कमी के कारण खेती और उद्योग नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे । सच तो यह है कि इन कदमों से असंगठित क्षेत्र में चल रहा शोषण कम होगा । यह कानून भुखमरी और कुपोषण की समस्या को जड़ों से तो नहीं हटायगा पर इससे एक प्रक्रिया की शुरूआत जरूर होगी ।
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