बुधवार, 11 दिसंबर 2013

सामाजिक पर्यावरण
भारतीय संस्कृति एवं पर्यावरण
राकेश मोहन कण्डारी
    भारतीय संस्कृति एवं जीवन शैली हमेशा से पर्यावरण संरक्षण की पोषक रही है । भारतीयों के विचार में वन के साथ-साथ वन्य जीवन की रक्षा भी महत्वपूर्ण मानी गई     है । हिन्दू दर्शन के अनुसार प्रत्येक हिन्दू को अपने जीवन के कुछ वर्ष वानप्रस्त (वन) में बिताने की व्यवस्था थी, अग्नि पुराण में ऐसा ही उल्लेख आया है कि वृक्षों के अनैतिक रूप से पालन करने पर अतिवृष्टि होकर अकाल पड़ता है -
    क्रियते पत्र विच्छेदं, सुपष्प फलनिस्तये,
    अनावृष्टि भय घोर तकस्मन्दे से प्रजायते । (अग्नि पुराण)
 भारतीय संस्कृति में वट (बड़) अश्वस्थ (पीपल), विल्व (बेल), वृन्दा (तुलसी) अपराजिता, पद्यम (कमल), कदली (केला), दुर्व (दूब), कुश, अरणी, आम्र (आम), देवदारू, पदम आदि वृक्षों एवं पादपों को देववृक्ष की संज्ञा प्रदान की गई है तथा इन वृक्षों एवं पादपों की पूजा की जाती है । इन वृक्षों के नीचे मल-मूत्र त्याग करना पाप समझा जाता है ।
    वृक्षों की महिमा को ध्यान में रखते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने कतिपय सुरम्य काननों, उद्यानों एवं वनों का उल्लेख किया है जैसे अंगिरा वन, नेमिषारण्य वन, कंलिग वन, बदरि वन, इन वनों, उपवनों के अनैतिक विदोहन करने पर अनावृष्टि एवं अकाल पड़ने की संभावना बनी रहती है ।
    देव वन - यह एक विशिष्ट प्रकार की संरक्षण पद्धति है । प्राचीन काल से हमारे पूर्वजों ने दूरदृष्टि से इस संरक्षण पद्धति का सूत्रपात किया, जिसका उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण था । इस पद्धति के तहत कुछ विशेष क्षेत्र के वनों में पेड़ काटने पर पूर्णत: प्रतिबंध है तथा पेड़ काटना पाप समझा जाता है ।
    सम्पूर्ण भारत में ऐसे कई देव वन है, जिनके तहत इस विशिष्ट पद्धति से वनों का संरक्षण आज भी जारी है ।
    हिमम हिम मिति वयात योजनायुत दूरत,
    सर्वपापे विर्मुच्येत विष्णु सामुच्यमश्नुते ।। (मानसखण्ड)
    दत्तात्रेय के अनुसार हिमालय के कण-कण में शिव का वास है । हिमालय को देखे-बिना दस हजार योजन दूर से उसका स्मरण मात्र करने से काशीवास जैसे फल मिलता है । जिस स्थान पर हिम भी न हो, तो भी हिमम के उच्चरण मात्र से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है और विष्णुधाम को प्राप्त् होता है ।
    तरू (वृक्ष) को गुरू स्वीकार करते हुए भवभूति ने लिखा है -
    धते कुसुमपत्र फलावनीनां धर्मव्यथा वहित शीतमंथारूजंच ।
    यो देहमथयथि चान्य सुख स्यहेता, हास्मैदान्य गुरूवे तरूवे नमस्ते ।।
    अर्थव वेद मेंऔषधि, वनस्पति और पृथ्वी की शान्ति के साथ सर्वारिस्टी की शान्ति की कामना की गई है ।
    ऊँ धौ शान्ति, पृथ्वी शान्ति: औषधय: शान्ति ।
    वनस्पतय: शान्ति सर्वारिष्ठ: शान्ति हि: ।।
    ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में जो हिम वनस्पतियां सर्वप्रथम प्राप्त् हुई उनमें से एक सौ सात स्थानों का ज्ञान हमारे ऋषि मुनियों को था -
    औषधि पूर्वा जाता देवेभ्य स्त्रियुंग पुरा ।
    मनै नु नभ्रणामहं रातं धामानि सप्त् च ।।
    भौगोलिक एवं जलवायु के आधार पर हम वनों को सदाबाहर वन, पर्णपाती वन, वर्षा वन, ऊष्ण कटिबंधीय वन आदि कह सकते है । लेकिन भारतीय संस्कृति में कतिपय वनस्पतियों के नाम पर क्षेत्र विशेष के नाम रखे गये है जैसे - कलिंग (कुटज) मागधी (पिप्पली), व्रांहीक (केसर), थवानी (अजवायन), सौराष्ठी (फिटकरी), मलयज (चंदन), केदारज (पधारव), चीनाक (कर्पूर) कहने का आशय है कि वन भारतीय जीवन पद्धति का महत्वपूर्ण हिस्सा है ।
    वन्य जीवों की उपयोगिता के कारण इनका संरक्षण भी भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है । मोर के साथ सरस्वती, सिंह के साथ दुर्गा, शिव के साथ नंदी, लक्ष्मी के साथ उल्लू, देवराज इन्द्र के साथ हाथी, गणेश के साथ मूसक (चूहा) भी पूजनीय है । ज्योतिष में राशियों के नाम भी पशुआें के साथ रखे गये है ।
    लेकिन प्रश्न यह है कि आज कितने लोग अपने बच्चें को वेद, पुराण व स्मृतियों की शिक्षा देते है ?
    ये बातें हमारे पाठयक्रमों में शामिल क्यों नही होती ?
    भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति ने हमें प्रकृति के साथ-साथ चलने की शिक्षा दी है । आज सिर्फ यही रास्ता बचा है जो कि पूरी दुनिया को आइना दिखाऐगा और धरती को भी बचायेगा । ग्लोबल वार्मिग, जलवायु परिवतर्न, पर्यावरणीय असन्तुलन, जैव विविधता जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों का एक ही उत्तर है भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति  जो पर्यावरण के साथ-साथ प्रकृति एवं वन्य जीवनों के संरक्षण की अनूठी जीवन पद्धति है ।

कोई टिप्पणी नहीं: