बुधवार, 11 दिसंबर 2013

ज्ञान विज्ञान
सूर्य के धब्बे गिनते-गिनते ४०० साल
    विज्ञान और वैज्ञानिकों के बारे में आम धारणा यह है कि किसी को अचानक कोई विचार आता है और एक सिद्धांत का जन्म हो जाता है । हमारे विज्ञान लेखन ने यह भी काफी प्रचारित किया है कि विज्ञान में संयोगवश या कभी-कभी तो त्रुटिवश हो गए किसी अवलोकन ने किसी महान सिद्धांत का मार्ग प्रशस्त कर दिया । मगर आमतौर पर विज्ञान ऐसे आगे नहीं बढ़ता । काफी लगनपूर्वक कड़ी मेहनत करना और प्रयोगों या अवलोकनों से प्राप्त् आकड़ों का विश्लेषण करना अपवाद नहीं बल्कि सामान्य बात है । 

     उदाहरण के तौर पर खगोल शास्त्री सूर्य के धब्बों का रिकॉर्ड तब से रखते आए हैं, जब दूरबीन का आविष्कार नहीं हुआ था । गैलीलियो ने भी सूर्य धब्बों को रिकॉर्ड किया था । अलबत्ता, शुरूआती प्रेक्षकों को यह पता नहीं था कि सूरज की सतह पर समय-समय पर उभरने वाले ये धब्बे हैं क्या । उन्हें यह तो बिल्कुल भी भनक नहीं थी कि इन धब्बों का सम्बन्ध चुंबकीय क्षेत्र से है ।
    मामले ने तो तब करवट ली जब १८४८ में स्विस खगोलविद रूडोल्फ वुल्फ ने इन धब्बों के व्यवस्थित अध्ययन शुरू किए और एक सूत्र विकसित किया । इस सूत्र की मदद से आज भी वैश्विक सूर्य धब्बा संख्या की गणना की जाती है । इसे वुल्फ संख्या भी कहते हैं । इस संख्या से पता चलता है कि समय के साथ सौर सक्रियता में किस तरह से परिवर्तन हो रहे हैं ।
    ये आंकड़े बहुत मूल्यवान साबित हुए हैं । प्रेडरिक क्लेट वर्ष २०११ में बेल्जियम स्थित रॉयल वेधशाला में स्थित सौर प्रभाव डैटा विश्लेषण केन्द्र के निदेशक बने । यह केन्द्र सन १७०० से लेकर आज तक ५०० प्रेक्षकोंद्वारा एकत्रित सूर्य धब्बों के आंकड़ों का विश्लेषण करता है । इन आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि सौर सक्रियता लगभग ११ वर्ष के चक्र में घटती-बढ़ती है । सूर्य के इन धब्बों में से आवेशित कणों की बौछार निकलती है जो हमारे द्वारा प्रक्षेपित उपग्रहों के अलावा धरती पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी प्रभावित कर सकते हैं ।
    इतने विस्तृत रिकॉर्ड की बदौलत शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे है कि ११ वर्ष का यह चक्र क्यों होता है । इसके अलावा आने वाले वर्षोमें सौर सक्रियता की भविष्यवाणी भी की जा सकती है । एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष कम से कम २०० शोधपत्रों में सौर धब्बों के आंकड़ों का हवाला दिया जाता है । ये शोध पत्र भू-चुंबकत्व, वायुमण्डल विज्ञान और जलवायु विज्ञान जैसे विविध विषयों से सम्बन्ध रखते हैं ।
    मजेदार बात यह है कि आज भी ऐसे आंकड़े एकत्रित किए जा रहे हैं और पूरा प्रयास शौकिया प्रेक्षकों द्वारा किए गए अवलोकनों के सहारे चल रहा है । उपरोक्त केन्द्र हर साल करीब ९० शौकिया प्रेक्षकों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का संग्रह व प्रकाशन करता है । क्लेट अपने एक अन्य अंशकालिक साथी की मदद से यह काम करते हैं ।
    क्लेट कहते हैं कि इन सैकड़ों वर्ष पुराने सहकर्मियों के साथ काम करने में बहुत मजा आता है । उदाहरण के लिए वे बताते है कि गैलीलियो के सौर धब्बों के आंकड़े बेतरतीबी से लिए गए है मगर उनके चित्र इतने बारीकी से बनाए गए हैं कि उनसे चुंबकीय संरचना की जानकारी प्राप्त् की जा सकती है । इन पूर्वज खगोलशास्त्री ने ये अवलोकन यही सोचकर रिकॉर्ड किए होंगे कि शायद ये महत्वपूर्ण हैं । क्लेट के मुताबिक विज्ञान का यही बुनियादी तत्व है - अंतिम परिणाम से बेखबर अपना काम करना ।

चूहोंमें बिल्ली का डर हटाता परजीवी

    एक परजीवी है जो मनुष्यों समेत कई स्तनधारियों और पक्षियों को संक्रमित करता है । टॉक्सोप्लाज्मा गौंडी नामक यह परजीवी यदि चूहों को संक्रमित कर दे तो उनमें बिल्लियों का खौफ खत्म हो जाता  है ।
    टॉक्सोप्लाज्मा गौंडी एक कोशिकीय जीव है । मनुष्यों में इसका संक्रमण काफी आम बात है । इसके कई अध्ययन किए गए हैं जो बतातें है कि संभवत: यह शिजोफ्रीनिया तथा अन्य व्यवहारगत बदलावों के लिए जिम्मेदार है । वैसे इस विषय के सभी शोधकर्ता इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं । 


     ऐसा माना जाता है कि टॉक्सोप्लाज्मा मस्तिष्क में पहुंचकर वहां की कोशिकाआें का अत्यधिक डोपामाइन बनाने को उकसाता है । डोपामाइन व्यवहारगत लक्षणों के लिए जिम्मेदार होता है । मगर अन्य शोधकर्ता बताते है कि यह कड़ी स्थापित नहीं हुई है । उनका मत है कि जहां टॉक्सोप्लाज्मा संक्रमण में काफी भौगोलिक विविधता है वहीं शिजोफ्रीनिया दुनिया भर में एकरूप ०१ प्रतिशत की दर से प्रकट होता     है ।
    मगर चूहों में इसके असर एकदम अनोखे हैं । आम तौर सारे कुतरने वाले जीव (चूहे वगैरह) बिल्ली की गंध को पहचानकर उससे दूर भागते हैं । मगर टॉक्सोप्लाज्मा संक्रमित होने लगते हैं । और तो और, संक्रमण समािप्त् के कई सप्तह बाद तक भी यह असर बना रहता है । इससे ऐसा लगता है कि यह परजीवी मस्तिष्क की कोशिकाआें पर कुछ ऐसा असर डालता है कि उनके कामकाज में कुछ हद तक स्थायी बदलाव हो जाते हैं ।
    कैलिफोर्निया विश्वविघालय की वेंडी इन्ग्रैम और उनके साथियों ने चूहों पर टॉक्सोप्लाज्मा के असर संबंधी जो अध्ययन किए हैं उनसे शिजोफ्रीनिया के बारे में भी नए सिरे से सोचना जरूरी हो गया है । अब तक ऐसा माना जाता था कि टॉक्सोप्लाज्मा स्वयं मस्तिष्क कोशिकाआें को अतिरिक्त डोपामाइन बनाने को उकसाता है । इसके बाद यह परजीवी मस्तिष्क में सिस्ट बनाकर सुप्तवस्था में पड़ा रहता है । इन सिस्ट का गुण यह होता है कि मस्तिष्क की कोशिकाएं डोपामाइन का अतिरिक्त उत्पादन जारी रखती    है ।
    मगर इन्ग्रैम के प्रयोगों में देखा गया कि टॉक्सोप्लाज्मा मस्तिष्क में सिस्ट बनाने की स्थिति तक पहुंचा ही नहीं, इसके बावजूद चूहे बिल्लियों से निडर बने रहे । अब तक शिजोफ्रीनिया के उपचार में सिस्ट पर ध्यान दिया जाता रहा है । मगर इस शोध के परिणाम बताते हैं कि शायद इसमें सिस्ट का योगदान नहीं है । प्रयोग में देखा गया कि शरीर में परजीवी का नामो-निशान खत्म हो जाने के बाद भी चूहे बेखौफ बने रहे । तो टॉक्सोप्लाज्मा, डोपामाइन व शिजोफ्रीनिया के तिकोन पर पुनर्विचार की जरूरत है ।

पक्षी काफी के पौधे का ख्याल रखते हैं

    कोस्टारिका में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि वार्बलर नामक पक्षी कॉफी को एक नाशी कीट के प्रकोप से बचाने में प्रत्यक्ष भूमिका निभाते हैं । कॉफी का यह कीट दरअसल एक गुबरैला है जो उसके फल (बेरी) में छेद करके नुकसान पहुंचाता  है । 


   इकॉलॉजी लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि वार्बलर पक्षी एक मध्यम आकार के कॉफी बागान में इस छेरी छेदक गुबरैले की वजह से होने वाले नुकसान में ९४०० डॉलर तक बचत करता है । इस अध्ययन के मुखिया स्टेनफोर्ड विश्वविघालय के डेनिअल कार्प का मत है कि इस अध्ययन से पता चलता है कि देशी वन्य जीवन आपको काफी नगद लाभ पहुंचा सकते हैं । यह छोरी छेदक कीट मूलत: अफ्रीका का है और सारे कॉफी उत्पादक क्षेत्रों में फैल चुका है । बेरी छेदक कीटनाशकों का प्रतिरोधी है और कॉफी की फसल को ७७ प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाता है । इसके नियंत्रण में पक्षियों की भूमिका को समझने के लिए कार्प और उनके साथियों ने कोस्टारिका दो कॉफी बागानों को जाली से ढंक दिया । जाली ऐसी थी कि पक्षी उसके अंदर नहीं जा सकते थे ।    

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