सामयिक
क्या है विकास का इतिहास ?
कश्मीर उप्पल
भारत जो कि उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश था, किन कारणों से लगातार पिछड़ता गया, यह जानना आवश्यक है । साथ ही हमें इस मानसिकता पर पुनर्विचार करना पड़ेगा, जिसमें सिर्फ औद्योगिक विकास को ही विकास का पैमाना माना जाता है ।
हम इस बात में खुश होते हैं कि कभी हमारा देश अर्द्धविकसित था जो अब विकासशील देश बन गया है । हम इसे आजादी के बाद प्राप्त् उपलब्धि मानते हैं । इससे यह भी समझते हैं कि विश्व के विकसित देशों जैसे अमेरिका, जापान और ब्रिटेन आदि देशों की पंक्ति मंे आने वाला देश विकासशील देश होता है । अत: अब भारत को अमेरिका जैसा देश बनने में कुछ ही वर्ष शेष बचे हैं ।
क्या है विकास का इतिहास ?
कश्मीर उप्पल
भारत जो कि उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश था, किन कारणों से लगातार पिछड़ता गया, यह जानना आवश्यक है । साथ ही हमें इस मानसिकता पर पुनर्विचार करना पड़ेगा, जिसमें सिर्फ औद्योगिक विकास को ही विकास का पैमाना माना जाता है ।
हम इस बात में खुश होते हैं कि कभी हमारा देश अर्द्धविकसित था जो अब विकासशील देश बन गया है । हम इसे आजादी के बाद प्राप्त् उपलब्धि मानते हैं । इससे यह भी समझते हैं कि विश्व के विकसित देशों जैसे अमेरिका, जापान और ब्रिटेन आदि देशों की पंक्ति मंे आने वाला देश विकासशील देश होता है । अत: अब भारत को अमेरिका जैसा देश बनने में कुछ ही वर्ष शेष बचे हैं ।
इन्हीं विकासशील देशों को कम आय वाले देश, गरीब देश, पूर्व औद्योगिक अवस्था के देश, अविकसित देश और अल्पविकसित देश आदि नामों से सम्बोधित किया जाता था । नोबल पुुरस्कार प्राप्त लेखक गुन्नार मिर्डल पिछड़े हुए क्षेत्र, अल्प विकसित देश और विकासशील देश जैसे शब्दोंके प्रयोग को शब्दावली की राजनीति और मानसिक षडयंत्र के रूप में देखते हैं । उनके अनुसार एक झटके मंे दुनिया के कई देश अल्प-विकसित से विकासशील देशों की श्रेणी में आ गये हैं ।
गुन्नार मिर्डल के अनुसार ''राजनय का सहारा लेना आवश्यकता बन चुका है । राजनय की आवश्यकताओं से प्रेरित एक व्यापक षडयंत्र के तहत अनेक भद्रतापूर्ण अभिव्यक्तियों का प्रयोग होने लगा है । एक ऐसी ही अभिव्यक्ति 'विकासशील` देश है जिसका वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त दस्तावेजों में अधिकृत रूप से प्रयोग हो रहा है ।``
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक पश्चिमी देशों यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा तथा जापान एवं ऑस्ट्रेलिया का औद्योगीकरण हो चुका था । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व के देशों ने औद्योगीकरण के कार्यक्रम प्रारंभ ही किये थे । विकसित देशों के इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि विकास की प्रांरभिक अवस्था में इन देशों ने यातायात, शक्ति के साधनों और शिक्षा के प्रसार पर काफी ध्यान दिया था । इन साधनों के द्वारा ही आर्थिक विकास के लिए आधारभूत संरचना तैयार हुई थी । विश्व के अधिकांश देशों को विकसित देशांे के औद्योगीकरण का कोई लाभ नहीं मिला था क्योंकि उस समय उनमंे से अधिकांश देश ब्रिटेन, पुर्तगाल और फ्रांस आदि के उपनिवेश थे । इस कारण अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के अनेक देश अल्पविकसित देशों की श्रेणी मंे रहने को अभिशप्त रहे । आर्थिक विकास के इतिहास मंे विकास के मॉडल से कभी कोई देश आत्मनिर्भर नहीं बना है ।
यह स्पष्ट है दुनिया का कोई भी देश अपनी सरकार से सक्रिय प्रोत्साहन पाए बिना आर्थिक विकास नहीं कर सकता है । इंग्लैंड के बारे मंे तो यह पूरी तरह सच है कि जिसकी विशाल औद्योगिक शक्ति की नींव एडवर्ड तृतीय और उसके बाद के शासक रखते आये हैं । इसी प्रकार अमेरिका की राज्य और संघीय सरकारों ने भी देश की आर्थिक क्रियाओं को बढ़ावा देने में सदा ही बड़ा योगदान दिया है ।
देशों के आर्थिक विकास के महान चिंतक और लेखक डब्ल्यू. आर्थर ल्यूइस के अनुसार ''राज्य को आर्थिक विकास के लिए कई कार्यवाहियां करनी पड़ती हैं जिनका सम्पूर्ण प्रभाव आर्थिक-विकास की प्रक्रिया पर पड़ता है ।`` राज्य के द्वारा किये जाने वाले अनेक कार्यों में लोक कल्याण सेवाओं की स्थापना, शिक्षा की व्यवस्था, आर्थिक संस्थानों की स्थापना, आय के वितरण को प्रभावित करना, मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करना, पूर्ण रोजगार की व्यवस्था करना और निवेश के स्तर को प्रभावित करना प्राथमिक महत्वपूर्ण कार्य है । इन कार्यों के बिना किसी भी देश के आर्थिक विकास का चक्र आगे नहीं बढ़ता है ।
भारत के आर्थिक-विकास के औपनिवेशिक मॉडल के इतिहास से यही सिद्ध होता है कि भारत को आत्मनिर्भर देश बनाने के कभी प्रयास ही नहीं हुए थे । सन् १७५७ में प्लासी की लड़ाई के बाद मंे ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में पैर जमे थे । सन् १८५८ मंे ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त कर दी गई और भारत का शासन ब्रिटिश राज्य के आधीन आ गया था । ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार की पहली प्राथमिकता उनका अपना देश था । इसीलिए भारत में कृषि, उद्योग, यातायात और शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले कार्यों का लक्ष्य ब्रिटेन का विकास ही था ।
वारेन हेस्टिंग्ज ने सन् १८१५ तक बंगाल की लगभग आधी जमींदारी व्यापारियों और दूसरे धनी व्यक्तियों को बेच दी थीं । उसने सबसे ऊंची बोलने वाले को लगान एकत्रित करने का अधिकार देना शुरु कर दिया था । इन नये जमींदारों ने किसानों पर इतना कर लगाया जो फसल केएक तिहाई से आधा तक था । अंग्रेजों के इन 'नये जमींदारों` ने लोक कल्याण के सभी काम बन्द करा दिये थे और अधिकतम लाभ प्राप्त करना ही इनका एकमात्र उद्देश्य था ।
गुन्नार मिर्डल के अनुसार ''राजनय का सहारा लेना आवश्यकता बन चुका है । राजनय की आवश्यकताओं से प्रेरित एक व्यापक षडयंत्र के तहत अनेक भद्रतापूर्ण अभिव्यक्तियों का प्रयोग होने लगा है । एक ऐसी ही अभिव्यक्ति 'विकासशील` देश है जिसका वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त दस्तावेजों में अधिकृत रूप से प्रयोग हो रहा है ।``
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक पश्चिमी देशों यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा तथा जापान एवं ऑस्ट्रेलिया का औद्योगीकरण हो चुका था । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व के देशों ने औद्योगीकरण के कार्यक्रम प्रारंभ ही किये थे । विकसित देशों के इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि विकास की प्रांरभिक अवस्था में इन देशों ने यातायात, शक्ति के साधनों और शिक्षा के प्रसार पर काफी ध्यान दिया था । इन साधनों के द्वारा ही आर्थिक विकास के लिए आधारभूत संरचना तैयार हुई थी । विश्व के अधिकांश देशों को विकसित देशांे के औद्योगीकरण का कोई लाभ नहीं मिला था क्योंकि उस समय उनमंे से अधिकांश देश ब्रिटेन, पुर्तगाल और फ्रांस आदि के उपनिवेश थे । इस कारण अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के अनेक देश अल्पविकसित देशों की श्रेणी मंे रहने को अभिशप्त रहे । आर्थिक विकास के इतिहास मंे विकास के मॉडल से कभी कोई देश आत्मनिर्भर नहीं बना है ।
यह स्पष्ट है दुनिया का कोई भी देश अपनी सरकार से सक्रिय प्रोत्साहन पाए बिना आर्थिक विकास नहीं कर सकता है । इंग्लैंड के बारे मंे तो यह पूरी तरह सच है कि जिसकी विशाल औद्योगिक शक्ति की नींव एडवर्ड तृतीय और उसके बाद के शासक रखते आये हैं । इसी प्रकार अमेरिका की राज्य और संघीय सरकारों ने भी देश की आर्थिक क्रियाओं को बढ़ावा देने में सदा ही बड़ा योगदान दिया है ।
देशों के आर्थिक विकास के महान चिंतक और लेखक डब्ल्यू. आर्थर ल्यूइस के अनुसार ''राज्य को आर्थिक विकास के लिए कई कार्यवाहियां करनी पड़ती हैं जिनका सम्पूर्ण प्रभाव आर्थिक-विकास की प्रक्रिया पर पड़ता है ।`` राज्य के द्वारा किये जाने वाले अनेक कार्यों में लोक कल्याण सेवाओं की स्थापना, शिक्षा की व्यवस्था, आर्थिक संस्थानों की स्थापना, आय के वितरण को प्रभावित करना, मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करना, पूर्ण रोजगार की व्यवस्था करना और निवेश के स्तर को प्रभावित करना प्राथमिक महत्वपूर्ण कार्य है । इन कार्यों के बिना किसी भी देश के आर्थिक विकास का चक्र आगे नहीं बढ़ता है ।
भारत के आर्थिक-विकास के औपनिवेशिक मॉडल के इतिहास से यही सिद्ध होता है कि भारत को आत्मनिर्भर देश बनाने के कभी प्रयास ही नहीं हुए थे । सन् १७५७ में प्लासी की लड़ाई के बाद मंे ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में पैर जमे थे । सन् १८५८ मंे ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त कर दी गई और भारत का शासन ब्रिटिश राज्य के आधीन आ गया था । ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश सरकार की पहली प्राथमिकता उनका अपना देश था । इसीलिए भारत में कृषि, उद्योग, यातायात और शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले कार्यों का लक्ष्य ब्रिटेन का विकास ही था ।
वारेन हेस्टिंग्ज ने सन् १८१५ तक बंगाल की लगभग आधी जमींदारी व्यापारियों और दूसरे धनी व्यक्तियों को बेच दी थीं । उसने सबसे ऊंची बोलने वाले को लगान एकत्रित करने का अधिकार देना शुरु कर दिया था । इन नये जमींदारों ने किसानों पर इतना कर लगाया जो फसल केएक तिहाई से आधा तक था । अंग्रेजों के इन 'नये जमींदारों` ने लोक कल्याण के सभी काम बन्द करा दिये थे और अधिकतम लाभ प्राप्त करना ही इनका एकमात्र उद्देश्य था ।
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