बुधवार, 11 दिसंबर 2013

लघु कथा
रोता विसूरता पेड़
कुंवर प्रेमिल

    आपने कभी हंसता, रोता, बिसूरता, बिलखता हुआ पेड़ देखा है ।    
    नहीं तो ।
    मैनें देखा है ।
    कहाँ-कब-ए, चलो, मुझे भी दिखाओ न ।
    मेरे दरवाजे पर लगा था । बल्लू मैंने अपने हाथों से लगाया था । मैने और मेरी धर्मपत्नि ने उसे सींचा, पनपाया, बड़ा किया और जब वह फूलों से लद गया तो खुशियों का दौरा पड़ गया था   मुझे ।
    पेड़ पर से नजरें हटाए नहीं हटती थी । पूरा घर-आंगन भीनी-भीनी खुशबू से भर गया था । मैं और मेरी पत्नी उल्लासमयी नजरों से देखते हुए थकती रहे थे  उसे । क्या करते, हमारी नजरों से वह हट नहीं पा रहा था । तब तक भौंरे और तितलियों के दल के दल फूलों से लिपटने का मजा लेने लगे थे ।
    फिर!
    सुबह-सुबह फूलों का वह पेड़ दहाड़े मारकर रोने लगा । मेरी नींद उचट गई । पत्नी भी भयभीत नजरों से इधर-उधर देखने लगी । अब किसी के रोने-बिसूरने की आवाजें आने लगी । मैं आंगन में दौड़कर आया तो देखा, यह तो वही पेड़ था जो एक दिन पहले सुनहले- रूपहले फूलों को अंगीकार किए फूला नहीं समा रहा था ।
    अब दहाड़े मार-मारकर रो रहा था । थक-थककर बिसूर रहा   था ।
    पेड़ रो रहा था, क्यों    भला ?
    रोता नहीं तो क्या करता । उसके सारे फूल तोड़ लिए गए थे । वह श्री हीन था । तितलियां उससे दूरी बनाकर उड़ रही थी । भौंरे उसे दूर से चिढ़ा रहे थे । उसे हिम्मत बंधाना तो दूर मुझे लगा कि मैं चक्कर खाकर गिर पडूंगा ।
    सांस उखड़ जाएगी मेरी । पर इसके पहले गिरा पेड़, मेरे पैरों के समीप ही गिरकर उस पेड़ ने अपनी दम दोत दी थी ।

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