गणतंत्र दिवस पर विशेष
कानून क्या तोड़ने के लिए बनते हैं?
दिनेश कोठारी
भारत में कारपोरेट जगत की मनमानी लगातार बढ़ती जा रही है । कानूनों के लचीलापन और खर्चीली न्याय व्यवस्था की वजह से भी इन्हें मनमानी की छूट मिल जाती है । सहमति आदेश ऐसी ही एक प्रक्रिया है, जिसमें बिना गलती माने या नकारे कोई भी कंपनी हर्जाना शुल्क देकर बच सकती है ।
आधुनिक युग के कानून बनाने वालों ने यह सोचकर इस कार्य को हाथ में नहीं लिया होगा कि समाज में आर्थिक स्तर के हिसाब से कानूनों का निर्माण होगा । लेकिन बदलते समय और पूंजी के लगातार हावी हो जाने से उपरोक्त आशंका कमोवेश सही सिद्ध होती दिख रही है । इसका एक ताजातरीन उदाहरण है, कारपोरेट विश्व के निहितार्थ भारतीय प्रतिभूति नियामक बोर्ड (सेबी) को प्रदत्त एक विशेषाधिकार जिसे सहमति आदेश या कंसेंट ऑर्डर कहा जाता है । इसमें कई तरह के मामलों में, खासकर निवेशकों के साथ की गई धोखाधड़ी का नियमितिकरण का प्रावधान है ।
कानून क्या तोड़ने के लिए बनते हैं?
दिनेश कोठारी
भारत में कारपोरेट जगत की मनमानी लगातार बढ़ती जा रही है । कानूनों के लचीलापन और खर्चीली न्याय व्यवस्था की वजह से भी इन्हें मनमानी की छूट मिल जाती है । सहमति आदेश ऐसी ही एक प्रक्रिया है, जिसमें बिना गलती माने या नकारे कोई भी कंपनी हर्जाना शुल्क देकर बच सकती है ।
आधुनिक युग के कानून बनाने वालों ने यह सोचकर इस कार्य को हाथ में नहीं लिया होगा कि समाज में आर्थिक स्तर के हिसाब से कानूनों का निर्माण होगा । लेकिन बदलते समय और पूंजी के लगातार हावी हो जाने से उपरोक्त आशंका कमोवेश सही सिद्ध होती दिख रही है । इसका एक ताजातरीन उदाहरण है, कारपोरेट विश्व के निहितार्थ भारतीय प्रतिभूति नियामक बोर्ड (सेबी) को प्रदत्त एक विशेषाधिकार जिसे सहमति आदेश या कंसेंट ऑर्डर कहा जाता है । इसमें कई तरह के मामलों में, खासकर निवेशकों के साथ की गई धोखाधड़ी का नियमितिकरण का प्रावधान है ।
अब इसे उदाहरण से समझते हैं । साधारण कानून यानि भारतीय दंड संहिता में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध यदि चोरी का आरोप लगता है तो सबसे पहले उससे चोरी के माल की बरामदगी की जाती है । उसके बाद दंड संहिता के अंतर्गत उस पर आपराधिक मुकदमा चलता है और सिद्ध होने पर उसे अदालत कारागार की सजा सुनाती है । गौरतलब है इस पूरे मामले में आपसी समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती ।
अब सेबी को प्रदत्त सहमति आदेश या कंसेंट आर्डर की बात करते हैं । सन् २००७ में सेबी ने एक प्रपत्र जारी किया, जिसके अनुसार कई मामलों में सेबी को यह अधिकार (संसद द्वारा) दिया गया कि वह निवेशकों के साथ हुई आर्थिक अनियमितताओं एवं धोखाधड़ी जिसमें कारपोरेट के किसी भी कृत्य से निवेशकों को आर्थिक नुकसान पहुंचा हो पर वह दोषी पक्ष से समझौता कर सकता है ।
सहमति आदेश इसी तरह का समझौता है, जिसमें अपराध करने वाला व नियामक आपसी सहमति से `सहमति के पेटे` बिना अपना अपराध स्वीकार किए या उसे नकारे वह रकम सेबी के पास जमा कर देते हैं, जो कि उसने उसे उपलब्ध सूचना के दुरुपयोग से अर्जित की थी । इसमें वह रकम भी शामिल होती है जो कि उसने उसे अवैध रूप से प्राप्त सूचना (इनसाइड इन्फार्मेशन) के आधार पर अर्जित की होती है । इसे बहुत अच्छे से अमेरिका में गोल्डमेन साश और रजत गुप्ता के बीच हुए सूचना (इनसाइड ट्रेडिंग) और अन्य सौदों के लेनदेन से समझा जा सकता है । गौरतलब है कि मामले में रजत गुप्ता को २ वर्ष की सजा हुई है ।
भारत में इस दुरुपयोग का मामला रिलायंस की कंपनियों, रिलायंस इंडस्ट्री में रिलायंस पेट्रोलियम के विलय का है । रिलायंस इंडस्ट्री की रिलायंस पेट्रोलियम में ४.१० प्रतिशत की हिस्सेदारी थी । चूंकि रिलायंस समूह में उच्च् पदों पर बैठे प्रबंधकों को उपरोक्त दोनों कंपनियों की विलय के अनुपात की पूर्व सूचना थी ऐसे में इस सूचना का लाभ उठाते हुए, रिलायंस इंडस्ट्री ने रिलायंस पेट्रोलियम में अपनी सारी हिस्सेदारी जो कि करीब ४,१०० करोड़ से ज्यादा की थी, को वायदा बाजार में बेच दिया । इसके बाद विलय की आधिकारिक घोषणा की गई ।
घोषणा के बाद उपरोक्त शेयर वायदा बाजार से खरीदकर नकद बाजार में बेच दिए गए । इसी को आधार बनाकर इसी समूह की १३ अन्य कंपनियों ने भी रिलायंस पेट्रोलियम के शेयर वायदा बाजार में बेचकर अथाह मुनाफा कमाया । अब इसे सामान्य भाषा में समझते हैं, विलय के पहले रिलायंस पेट्रोलियम एक स्वायत्त इकाई थी । जैसे ही विलय की घोषणा होती है वैसे ही उसके शेयर का भाव मूल कंपनी यानि रिलायंस इंडस्ट्री से विलय के अनुपात में जुड़ गया । जिस दिन विलय की सार्वजनिक घोषणा हुई उस दिन इसके प्रति शेयर के दाम में एकाएक कमी आई थी । क्योंकि यह विलय रिलायंस पेट्रोलियम के निवेशकों के पक्ष में न होकर रिलायंस इंडस्ट्री के पक्ष में था ।
यहां इस बात का पता लगाया जाना जरूरी है जब उपरोक्त विलय हुई कंपनी के शेयरों का लेनदेन हो रहा था, उसी दौरान इस समूह की अन्य कंपनियों ने शेयर बाजार में कितना लेनदेन किया और उससे कितनी विशाल मात्रा में लाभ कमाया । यह राशि कई हजार करोड़ तक पहुंच सकती है । इस बीच सेबी के निगरानी तंत्र को कहीं दाल में काला नजर आया और उसने इसकी विस्तृत जांच प्रारंभ कर दी । इससे हड़बड़ाकर रिलायंस इंडस्ट्री ने कारपोरेट जगत को प्राप्त `कानूनी ब्रह्मास्त्र` कंसेंट आर्डर का प्रयोग किया और सेबी से माफी पाने के लिए अपना पहला प्रस्ताव दिया । आश्चर्य की बात यह है कि इसमें हर्जाना शुल्क स्वरूप मात्र ३ करोड़ रु. देने की पेशकश की गई थी । सेबी ने इसे अस्वीकार कर दिया ।
तदुपरांत रिलायंस ने `दरियादिली` दिखाते हुए अपने इस प्रस्ताव को १० करोड़ रु. तक बढ़ा दिया । सेबी ने इस पर भी अपनी असहमति जताई तथा इसी दौरान २५ मई २०१२ को उसने एक नया आदेश जारी किया जिसमें उसने इनसाईड ट्रेडिंग (आंतरिक व्यापार) एवं कुछ अन्य अनियमितताओं को समझौते या कंसेट आर्डर के दायरे से बाहर कर दिया । लेकिन इसके बावजूद रिलायंस अभी भी समझौते हेतु दबाव बना रहा है । इसी क्रम में रिलायंस ने सेट (सिक्योरिटी अपीलेट ट्रिब्यूनल यानि प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण) में अपील दायर कर दी । जिस पर सेट ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा `न्याय के हित में सेबी को अपने आदेश पर पुनर्विचार करना चाहिए ।`
गौरतलब है यदि पदानुक्रम में देखें तो सेट सेबी से ज्यादा अधिकार प्राप्त संस्थान है और यह एक अपीलेट प्राधिकारी है । उसके यहां से इस प्रकार की अनुशंसा का आना, स्थितियों को जटिल बना रहा है । लेकिन उपरोक्त अनुरोध के बावजूद सेबी ने पीछे हटने से मना कर दिया और गेंद अब पुन: सेट के पाले में है । इस संदर्भ में सेट में दो बार कार्यवाही आगे बढ़ चुकी है ।
भारत में गैर आपराधिक कानूनों को पिछली तिथि से लागू करने की कानूनी व्यवस्था मौजूद है । इस मामले पर लगातार अनिर्णय की स्थिति बनी रहना कहीं न कहीं यह शंका पैदा करता है कि प्रभाव का दुरुपयोग तो नहीं किया जाएगा । जब यह आदेश जारी हो चुका है कि इनसाइड ट्रेडिंग अब पूरी तरह से गैरकानूनी है, ऐसे में बजाए रिलायंस की अपील को रद्द करने के लगातार सुनवाई की तारीखें बढ़ाते जाना भी शंकास्पद है ।
पिछले दो दशकों में हर्षद मेहता और केतन पारिख जैसे लोगों की कारगुजारियों से शेयर बाजार `गुलजार` हो चुका है । ऐसे में सेबी द्वारा निवेशकों के हित में उठाए गए कदम को ठीक से लागू न करना क्या उनके साथ वादा खिलाफी नहीं है ?
यहां यह उल्लेख भी समीचीन होगा कि पूर्व में अनिल धीरुभाई अंबानी समूह की एक कंपनी जिसने अपने विस्तार के लिए विदेशों से धन प्राप्त किया था ने इस राशि का उपयोग अपनी ही एक संचार कंपनी के शेयरों के भाव में हेरफेर के लिए किया था । इस मामले में सहमति आदेश की आड़ में वे मात्र ५० करोड़ रु. का हर्जाना शुल्क भरकर मुक्त हो गए थे ।
पिछले कुछ वर्षों से हम भारतीय कारपोरेट जगत द्वारा आर्थिक व अन्य नीतियों में किए जा रहे सीधे हस्तक्षेप को साफ देख रहे हैं। इनसाइड ट्रेडिंग के खिलाफ समय पर कार्रवाई न होना निवेशकों को विचलित करेगा । वैसे भी इस मामले को सेबी के सामने आए ५ वर्ष हो चुके हैं और इसका अभी तक अधर में लटका रहना, भविष्य की धुंधली तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है ।
अब सेबी को प्रदत्त सहमति आदेश या कंसेंट आर्डर की बात करते हैं । सन् २००७ में सेबी ने एक प्रपत्र जारी किया, जिसके अनुसार कई मामलों में सेबी को यह अधिकार (संसद द्वारा) दिया गया कि वह निवेशकों के साथ हुई आर्थिक अनियमितताओं एवं धोखाधड़ी जिसमें कारपोरेट के किसी भी कृत्य से निवेशकों को आर्थिक नुकसान पहुंचा हो पर वह दोषी पक्ष से समझौता कर सकता है ।
सहमति आदेश इसी तरह का समझौता है, जिसमें अपराध करने वाला व नियामक आपसी सहमति से `सहमति के पेटे` बिना अपना अपराध स्वीकार किए या उसे नकारे वह रकम सेबी के पास जमा कर देते हैं, जो कि उसने उसे उपलब्ध सूचना के दुरुपयोग से अर्जित की थी । इसमें वह रकम भी शामिल होती है जो कि उसने उसे अवैध रूप से प्राप्त सूचना (इनसाइड इन्फार्मेशन) के आधार पर अर्जित की होती है । इसे बहुत अच्छे से अमेरिका में गोल्डमेन साश और रजत गुप्ता के बीच हुए सूचना (इनसाइड ट्रेडिंग) और अन्य सौदों के लेनदेन से समझा जा सकता है । गौरतलब है कि मामले में रजत गुप्ता को २ वर्ष की सजा हुई है ।
भारत में इस दुरुपयोग का मामला रिलायंस की कंपनियों, रिलायंस इंडस्ट्री में रिलायंस पेट्रोलियम के विलय का है । रिलायंस इंडस्ट्री की रिलायंस पेट्रोलियम में ४.१० प्रतिशत की हिस्सेदारी थी । चूंकि रिलायंस समूह में उच्च् पदों पर बैठे प्रबंधकों को उपरोक्त दोनों कंपनियों की विलय के अनुपात की पूर्व सूचना थी ऐसे में इस सूचना का लाभ उठाते हुए, रिलायंस इंडस्ट्री ने रिलायंस पेट्रोलियम में अपनी सारी हिस्सेदारी जो कि करीब ४,१०० करोड़ से ज्यादा की थी, को वायदा बाजार में बेच दिया । इसके बाद विलय की आधिकारिक घोषणा की गई ।
घोषणा के बाद उपरोक्त शेयर वायदा बाजार से खरीदकर नकद बाजार में बेच दिए गए । इसी को आधार बनाकर इसी समूह की १३ अन्य कंपनियों ने भी रिलायंस पेट्रोलियम के शेयर वायदा बाजार में बेचकर अथाह मुनाफा कमाया । अब इसे सामान्य भाषा में समझते हैं, विलय के पहले रिलायंस पेट्रोलियम एक स्वायत्त इकाई थी । जैसे ही विलय की घोषणा होती है वैसे ही उसके शेयर का भाव मूल कंपनी यानि रिलायंस इंडस्ट्री से विलय के अनुपात में जुड़ गया । जिस दिन विलय की सार्वजनिक घोषणा हुई उस दिन इसके प्रति शेयर के दाम में एकाएक कमी आई थी । क्योंकि यह विलय रिलायंस पेट्रोलियम के निवेशकों के पक्ष में न होकर रिलायंस इंडस्ट्री के पक्ष में था ।
यहां इस बात का पता लगाया जाना जरूरी है जब उपरोक्त विलय हुई कंपनी के शेयरों का लेनदेन हो रहा था, उसी दौरान इस समूह की अन्य कंपनियों ने शेयर बाजार में कितना लेनदेन किया और उससे कितनी विशाल मात्रा में लाभ कमाया । यह राशि कई हजार करोड़ तक पहुंच सकती है । इस बीच सेबी के निगरानी तंत्र को कहीं दाल में काला नजर आया और उसने इसकी विस्तृत जांच प्रारंभ कर दी । इससे हड़बड़ाकर रिलायंस इंडस्ट्री ने कारपोरेट जगत को प्राप्त `कानूनी ब्रह्मास्त्र` कंसेंट आर्डर का प्रयोग किया और सेबी से माफी पाने के लिए अपना पहला प्रस्ताव दिया । आश्चर्य की बात यह है कि इसमें हर्जाना शुल्क स्वरूप मात्र ३ करोड़ रु. देने की पेशकश की गई थी । सेबी ने इसे अस्वीकार कर दिया ।
तदुपरांत रिलायंस ने `दरियादिली` दिखाते हुए अपने इस प्रस्ताव को १० करोड़ रु. तक बढ़ा दिया । सेबी ने इस पर भी अपनी असहमति जताई तथा इसी दौरान २५ मई २०१२ को उसने एक नया आदेश जारी किया जिसमें उसने इनसाईड ट्रेडिंग (आंतरिक व्यापार) एवं कुछ अन्य अनियमितताओं को समझौते या कंसेट आर्डर के दायरे से बाहर कर दिया । लेकिन इसके बावजूद रिलायंस अभी भी समझौते हेतु दबाव बना रहा है । इसी क्रम में रिलायंस ने सेट (सिक्योरिटी अपीलेट ट्रिब्यूनल यानि प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण) में अपील दायर कर दी । जिस पर सेट ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा `न्याय के हित में सेबी को अपने आदेश पर पुनर्विचार करना चाहिए ।`
गौरतलब है यदि पदानुक्रम में देखें तो सेट सेबी से ज्यादा अधिकार प्राप्त संस्थान है और यह एक अपीलेट प्राधिकारी है । उसके यहां से इस प्रकार की अनुशंसा का आना, स्थितियों को जटिल बना रहा है । लेकिन उपरोक्त अनुरोध के बावजूद सेबी ने पीछे हटने से मना कर दिया और गेंद अब पुन: सेट के पाले में है । इस संदर्भ में सेट में दो बार कार्यवाही आगे बढ़ चुकी है ।
भारत में गैर आपराधिक कानूनों को पिछली तिथि से लागू करने की कानूनी व्यवस्था मौजूद है । इस मामले पर लगातार अनिर्णय की स्थिति बनी रहना कहीं न कहीं यह शंका पैदा करता है कि प्रभाव का दुरुपयोग तो नहीं किया जाएगा । जब यह आदेश जारी हो चुका है कि इनसाइड ट्रेडिंग अब पूरी तरह से गैरकानूनी है, ऐसे में बजाए रिलायंस की अपील को रद्द करने के लगातार सुनवाई की तारीखें बढ़ाते जाना भी शंकास्पद है ।
पिछले दो दशकों में हर्षद मेहता और केतन पारिख जैसे लोगों की कारगुजारियों से शेयर बाजार `गुलजार` हो चुका है । ऐसे में सेबी द्वारा निवेशकों के हित में उठाए गए कदम को ठीक से लागू न करना क्या उनके साथ वादा खिलाफी नहीं है ?
यहां यह उल्लेख भी समीचीन होगा कि पूर्व में अनिल धीरुभाई अंबानी समूह की एक कंपनी जिसने अपने विस्तार के लिए विदेशों से धन प्राप्त किया था ने इस राशि का उपयोग अपनी ही एक संचार कंपनी के शेयरों के भाव में हेरफेर के लिए किया था । इस मामले में सहमति आदेश की आड़ में वे मात्र ५० करोड़ रु. का हर्जाना शुल्क भरकर मुक्त हो गए थे ।
पिछले कुछ वर्षों से हम भारतीय कारपोरेट जगत द्वारा आर्थिक व अन्य नीतियों में किए जा रहे सीधे हस्तक्षेप को साफ देख रहे हैं। इनसाइड ट्रेडिंग के खिलाफ समय पर कार्रवाई न होना निवेशकों को विचलित करेगा । वैसे भी इस मामले को सेबी के सामने आए ५ वर्ष हो चुके हैं और इसका अभी तक अधर में लटका रहना, भविष्य की धुंधली तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है ।
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