विज्ञान हमारे आसपास
कितने दूर हैं टिमटिमाते तारे
एस. अनंतनारायणन
अंधेरे में हमारी ओर कोई कार आ रही है तो हम आसानी से बता सकते हैं कि वह पास ही या बहुत दूर है । इसके लिए हम उसकी हेडलाइट की चमक का सहारा लेते हैं । हमें यह अंदाज होता है कि सामान्यतया कार की हेडलाइटस कितनी चमकती है । यदि सामने से आ रही कार की लाइटें उसके मुकाबले कम चमक रही हैं या बहुत चमक रही हैं, तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि वह लगभग कितनी दूरी पर है । ऐसे ही तरीके का उपयोग आकाश के तारों की दूरी का अनुमान लगाने के लिए भी किया जाता है ।
धरती पर तो वस्तुआें की दूरी का पता लगाने का आम तरीका है ट्रायएंगुलेशन या त्रिभुवन । मनचाही वस्तु को एक दूरबीन से देखेगे - पहले एक स्थान से और फिर थोड़ा हटकर किसी दूसरे स्थान से । इन दो स्थानों के बीच १०० मीटर की दूरी हो, तो अच्छे नतीजे मिलते हैं । जब दो अलग-अलग स्थानों से एक ही वस्तु को देखेंगे तो आपको दूरबीन की दिशा में थोड़ा परिवर्तन करना होगा । इस परिवर्तन के आधार पर आप दूरस्थ वस्तु की दूरी की गणना कर सकते हैं । इसके लिए चाहें तो गणित के सूत्रों का सहारा ले या ग्राफ का ।
कितने दूर हैं टिमटिमाते तारे
एस. अनंतनारायणन
अंधेरे में हमारी ओर कोई कार आ रही है तो हम आसानी से बता सकते हैं कि वह पास ही या बहुत दूर है । इसके लिए हम उसकी हेडलाइट की चमक का सहारा लेते हैं । हमें यह अंदाज होता है कि सामान्यतया कार की हेडलाइटस कितनी चमकती है । यदि सामने से आ रही कार की लाइटें उसके मुकाबले कम चमक रही हैं या बहुत चमक रही हैं, तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि वह लगभग कितनी दूरी पर है । ऐसे ही तरीके का उपयोग आकाश के तारों की दूरी का अनुमान लगाने के लिए भी किया जाता है ।
धरती पर तो वस्तुआें की दूरी का पता लगाने का आम तरीका है ट्रायएंगुलेशन या त्रिभुवन । मनचाही वस्तु को एक दूरबीन से देखेगे - पहले एक स्थान से और फिर थोड़ा हटकर किसी दूसरे स्थान से । इन दो स्थानों के बीच १०० मीटर की दूरी हो, तो अच्छे नतीजे मिलते हैं । जब दो अलग-अलग स्थानों से एक ही वस्तु को देखेंगे तो आपको दूरबीन की दिशा में थोड़ा परिवर्तन करना होगा । इस परिवर्तन के आधार पर आप दूरस्थ वस्तु की दूरी की गणना कर सकते हैं । इसके लिए चाहें तो गणित के सूत्रों का सहारा ले या ग्राफ का ।
इस विधि से पृथ्वी पर दूर-दूर तक दिखने वाली वस्तुआें की दूरी का अंदाज लगाया जा सकता है । करना सिर्फ इतना होगा कि दो स्थानों (जहां से वस्तु को देखा जा रहा है) के बीच की दूरी किलोमीटर में रखी जाए ।
मगर इस विधि से आप आकाशीय पिंडों की दूरी का अनुमान नहीं लगा सकते । कारण यह है कि पृथ्वी पर दो अवलोकन स्थलों के बीच हम जो अधिकतम दूरी हासिल कर सकते हैं वह है पृथ्वी का व्यास । उनके मुकाबले ये पिंड हमसे बहुत दूर हैं । मगर इन दो स्थानों के बीच की दूरी को बढ़ाने का एक तरीका है - हम जानते ही हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही हैं । यदि हम ६ माह के अंतराल पर किसी पिंड को देखे तो दरअसल हम उसे ३० करोड़ किलोमीटर दूर स्थित स्थानों से देख रहे हैं ।
इतना फासला पर्याप्त् होता है और इस विधि से हम सौर मण्डल के पिंडो के अलावा १०० प्रकाश वर्ष दूर स्थित कई तारों की दूरियां भी पता कर सकते हैं । मगर उससे दूर की वस्तुआें के लिए यह विधि काम नहीं करेगी और हमें किसी परोक्ष विधि की जरूरत होगी । यह विधि ऐसी होनी चाहिए जो प्रेक्षण स्थलों के बीच की दूरी पर निर्भर न हो ।
इसी मोड़ पर कार की हेडलाइट वाला उदाहरण प्रासंगिक हो जाता है । यदि ब्रह्मांड के तारों की वास्तविकता चमक हमें पता हो, तो हम पृथ्वी से दिखने वाली उनकी आभासी चमक के आधार पर यह बता सकते है कि कोई तारा हमसे कितनी दूरी पर है । हम जानते हैं कि किसी वस्तु की आभासी चमक दूरी के वर्ग के अनुपात में घटती है । मगर यह कैसे पता चले कि किसी तारे की वास्तविक दीिप्त् कितनी है ?
सौभाग्यवश, तारों का एक ऐसा वर्ग है, जिनकी वास्तविक दीिप्त् का पता लगाया जा सकता है । ये तारे परिवर्तनशील तारे या वेरिएबल स्टार्स कहलाते हैं । पिछली सदी के शुरूआती दशक में हार्वर्ड कॉलेज प्रयोगशाला में एक सहायक हेनरीटा लीविट ने देखा कि आकाश में मेगालिनिक क्लाउड नामक तारा-समूह में तारों की दीिप्त् में निश्चित अंतराल पर उतार-चढ़ाव होते हैं । इससे भी अचरज की बात यह थी कि जिन तारों में उतार-चढ़ाव की गति सबसे ज्यादा थी, वे पृथ्वी से सर्वाधिक दीप्त्मिान भी दिखते थे । चूंकि ये सारे तारे पृथ्वी से लगभग बराबर दूरी पर ही थे, लीविट यह गणना करने में सफल रही कि दीिप्त् में उतार-चढ़ाव की गति किसी तारे की वास्तविक दीिप्त् का सटीक द्योतक है ।
निकटवर्ती परिवर्तनशील तारों के और अध्ययन के दीिप्त् मेंउतार-चढ़ाव की रफ्तार और वास्तविक दीिप्त् के बीच के इस संबंध को स्थापित करने में मदद की । इन निकटवर्ती तारों की दूरी अन्य विधियों से भी पता की गई थी और इस वजह से हम इनकी वास्तविक दीिप्त् की गणना कर सकते थे । ऐसे परितर्वन तारों में सर्वप्रथम थे सेफाइडस । इनका यह नाम डेल्टा सेफाई तारे के नाम पर रखा गया था । डेल्टा सेफाई की खोज १७८४ में की गई थी । इनके विस्तृत अध्ययन के बाद दूरस्थ तारों की दूरी नापने की यह विधि स्थापित हो गई ।
दीिप्त् में उतार-चढ़ाव तारों के वातावरण में हीलियम की उपस्थिति की वजह से होता है । हीलियम के परमाणु या हीलियम के ऐसे परमाणु जिनमें से एक इलेक्ट्रॉन बाहर निकल गया हो, तारों के ईद-गिर्द एक पारदर्शी गैस आवरण बनाते हैं । मगर यदि तारों के अंदर चल रही क्रियाआें की वजह से उसका तापमान बढ़े और बढ़े हुए तापमान की वजह से हीलियम के परमाणु में से एक और इलेक्ट्रॉन निकल जाए, तो हीलियम गैस अपारदर्शी हो जाती है । तारे के अंदर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती, तारा गर्म हो जाता है मगर साथ ही अपेक्षाकृत मद्धिम भी पड़ जाता है ।
जब तारा गर्म होता है, तो फैलता है और फैलने की वजह से उसका तापमान कम होने लगता है । तापमान कम होने पर तारे के आसपास की गैस का संघटन बदल जाता है क्योंकि दो इलेक्ट्रॉन विहीन हीलियम के परमाणु फिर से एक इलेक्ट्रॉन पकड़ लेते हैं । तब वातावरण एक बार फिर पारदर्शी हो जाता है और तारे की दीिप्त् बढ़ जाती है । अब गर्मी बाहर निकलने लगती है और तारा ठंडा मगर चमकीला होने लगता है । मगर एक हद तक ठंडा होने के बाद यह फिर से सिकुडने लगता है और वही चक्र फिर से शुरू हो जाता है । दीिप्त् में उतार-चढ़ाव का क्रम चलता रहता है ।
इस तरह के परिवर्तनशील तारे कई किस्म के होते हैं । इनमें उतार-चढ़ाव की दर और दीिप्त् के बीच संबंध अलग-अलग हो सकते हैं । परिवर्तन तारों का एक महत्वपूर्ण समूह टाइप १ सुपरनोवा है । ये तारे इस स्थिति में किसी श्वेत वामन (व्हाइट ड्वार्फ) में विस्फोट की वजह से पहुंचते है । श्वते वामन ऐसे तारे को कहते है जो किसी ऐसे छोटे तारे का अवशेष हो जिसका ईधन चुक गया है । यदि किसी बड़े तारे का ईधन चुक जाए तो वह भी सिकुड़ता हे और ब्लैक होल या न्यूट्रॉन तारे में बदल जाता है । मगर यदि तारा बहुत बड़ा न रहा हो, तो वह इतना नहीं सिकुड़ता और श्वेत वामन में तबदील होता है ।
अलबत्ता, श्वेत वामन तारे भी आसपास उपस्थित पदार्थ को अपने में समाकर या किसी दूसेर वामन तारे में विलीन होकर अपना द्रव्यमान बढ़ा सकते है । ऐसा होने पर नए सिरे से विस्फोट होता है जिसे सुपरनोवा कहते हैं । इनमें जो अधिकतम दीिप्त् उत्पन्न होती है उसमें काफी एकरूपता होती हे । इन तारों को टाइप १ सुपरनोवा कहते हैं । इनकी अधिकतम दीिप्त् में एकरूपता की वजह से ये ब्रह्मांडीय सर्वेक्षणों में मानक मोमबत्ती की भूमिका अदा करते हैं । ये सेफाइड्स से मुकाबले कहीं अधिक दीप्त्मिान होते हैं और काफी बड़ी दूरी के लिए मानक का काम कर सकते हैं ।
ऐसी परोक्ष मापन विधियों का उपयोग करने में एक दिक्कत यह है कि हम पक्का नहीं कह सकते कि उतार-चढ़ाव की रफ्तार और दीिप्त् के बीच का संबंध बहुत बड़ी दूरियों पर भी लागू होता था । और क्या यही संबंध काफी सुदूर अतीत में भी लागू होता था । इसलिए सेफाइड्स के निर्माण की क्रियाविधि को समझने में काफी रूचि रही है । टाइप १ सुपरनोवा में तो रूचि और भी गहरी रही है ।
जर्मन के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के रूडिजर पाकमोर व उनके साथियों ने बताया है कि वे श्वेत वामन तारों के विलीनीकरण के जरिए सुपरनोवा निर्माण की प्रक्रिया के मॉडल की दिक्कतों को दूर कर पाए हैं ।
हेनरीटा स्वान लीविट ने १८९३ में हार्वर्ड कॉलेज प्रयोगशाला में काम करना शुरू किया था । उन्हें दूरबीन से प्राप्त् फोटोग्राफ्स पर छवियां गिननी होती थी । उस समय महिलाआें को दूरबीन पर काम करने की इजाजत नहीं थी ।
मगर इस विधि से आप आकाशीय पिंडों की दूरी का अनुमान नहीं लगा सकते । कारण यह है कि पृथ्वी पर दो अवलोकन स्थलों के बीच हम जो अधिकतम दूरी हासिल कर सकते हैं वह है पृथ्वी का व्यास । उनके मुकाबले ये पिंड हमसे बहुत दूर हैं । मगर इन दो स्थानों के बीच की दूरी को बढ़ाने का एक तरीका है - हम जानते ही हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही हैं । यदि हम ६ माह के अंतराल पर किसी पिंड को देखे तो दरअसल हम उसे ३० करोड़ किलोमीटर दूर स्थित स्थानों से देख रहे हैं ।
इतना फासला पर्याप्त् होता है और इस विधि से हम सौर मण्डल के पिंडो के अलावा १०० प्रकाश वर्ष दूर स्थित कई तारों की दूरियां भी पता कर सकते हैं । मगर उससे दूर की वस्तुआें के लिए यह विधि काम नहीं करेगी और हमें किसी परोक्ष विधि की जरूरत होगी । यह विधि ऐसी होनी चाहिए जो प्रेक्षण स्थलों के बीच की दूरी पर निर्भर न हो ।
इसी मोड़ पर कार की हेडलाइट वाला उदाहरण प्रासंगिक हो जाता है । यदि ब्रह्मांड के तारों की वास्तविकता चमक हमें पता हो, तो हम पृथ्वी से दिखने वाली उनकी आभासी चमक के आधार पर यह बता सकते है कि कोई तारा हमसे कितनी दूरी पर है । हम जानते हैं कि किसी वस्तु की आभासी चमक दूरी के वर्ग के अनुपात में घटती है । मगर यह कैसे पता चले कि किसी तारे की वास्तविक दीिप्त् कितनी है ?
सौभाग्यवश, तारों का एक ऐसा वर्ग है, जिनकी वास्तविक दीिप्त् का पता लगाया जा सकता है । ये तारे परिवर्तनशील तारे या वेरिएबल स्टार्स कहलाते हैं । पिछली सदी के शुरूआती दशक में हार्वर्ड कॉलेज प्रयोगशाला में एक सहायक हेनरीटा लीविट ने देखा कि आकाश में मेगालिनिक क्लाउड नामक तारा-समूह में तारों की दीिप्त् में निश्चित अंतराल पर उतार-चढ़ाव होते हैं । इससे भी अचरज की बात यह थी कि जिन तारों में उतार-चढ़ाव की गति सबसे ज्यादा थी, वे पृथ्वी से सर्वाधिक दीप्त्मिान भी दिखते थे । चूंकि ये सारे तारे पृथ्वी से लगभग बराबर दूरी पर ही थे, लीविट यह गणना करने में सफल रही कि दीिप्त् में उतार-चढ़ाव की गति किसी तारे की वास्तविक दीिप्त् का सटीक द्योतक है ।
निकटवर्ती परिवर्तनशील तारों के और अध्ययन के दीिप्त् मेंउतार-चढ़ाव की रफ्तार और वास्तविक दीिप्त् के बीच के इस संबंध को स्थापित करने में मदद की । इन निकटवर्ती तारों की दूरी अन्य विधियों से भी पता की गई थी और इस वजह से हम इनकी वास्तविक दीिप्त् की गणना कर सकते थे । ऐसे परितर्वन तारों में सर्वप्रथम थे सेफाइडस । इनका यह नाम डेल्टा सेफाई तारे के नाम पर रखा गया था । डेल्टा सेफाई की खोज १७८४ में की गई थी । इनके विस्तृत अध्ययन के बाद दूरस्थ तारों की दूरी नापने की यह विधि स्थापित हो गई ।
दीिप्त् में उतार-चढ़ाव तारों के वातावरण में हीलियम की उपस्थिति की वजह से होता है । हीलियम के परमाणु या हीलियम के ऐसे परमाणु जिनमें से एक इलेक्ट्रॉन बाहर निकल गया हो, तारों के ईद-गिर्द एक पारदर्शी गैस आवरण बनाते हैं । मगर यदि तारों के अंदर चल रही क्रियाआें की वजह से उसका तापमान बढ़े और बढ़े हुए तापमान की वजह से हीलियम के परमाणु में से एक और इलेक्ट्रॉन निकल जाए, तो हीलियम गैस अपारदर्शी हो जाती है । तारे के अंदर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती, तारा गर्म हो जाता है मगर साथ ही अपेक्षाकृत मद्धिम भी पड़ जाता है ।
जब तारा गर्म होता है, तो फैलता है और फैलने की वजह से उसका तापमान कम होने लगता है । तापमान कम होने पर तारे के आसपास की गैस का संघटन बदल जाता है क्योंकि दो इलेक्ट्रॉन विहीन हीलियम के परमाणु फिर से एक इलेक्ट्रॉन पकड़ लेते हैं । तब वातावरण एक बार फिर पारदर्शी हो जाता है और तारे की दीिप्त् बढ़ जाती है । अब गर्मी बाहर निकलने लगती है और तारा ठंडा मगर चमकीला होने लगता है । मगर एक हद तक ठंडा होने के बाद यह फिर से सिकुडने लगता है और वही चक्र फिर से शुरू हो जाता है । दीिप्त् में उतार-चढ़ाव का क्रम चलता रहता है ।
इस तरह के परिवर्तनशील तारे कई किस्म के होते हैं । इनमें उतार-चढ़ाव की दर और दीिप्त् के बीच संबंध अलग-अलग हो सकते हैं । परिवर्तन तारों का एक महत्वपूर्ण समूह टाइप १ सुपरनोवा है । ये तारे इस स्थिति में किसी श्वेत वामन (व्हाइट ड्वार्फ) में विस्फोट की वजह से पहुंचते है । श्वते वामन ऐसे तारे को कहते है जो किसी ऐसे छोटे तारे का अवशेष हो जिसका ईधन चुक गया है । यदि किसी बड़े तारे का ईधन चुक जाए तो वह भी सिकुड़ता हे और ब्लैक होल या न्यूट्रॉन तारे में बदल जाता है । मगर यदि तारा बहुत बड़ा न रहा हो, तो वह इतना नहीं सिकुड़ता और श्वेत वामन में तबदील होता है ।
अलबत्ता, श्वेत वामन तारे भी आसपास उपस्थित पदार्थ को अपने में समाकर या किसी दूसेर वामन तारे में विलीन होकर अपना द्रव्यमान बढ़ा सकते है । ऐसा होने पर नए सिरे से विस्फोट होता है जिसे सुपरनोवा कहते हैं । इनमें जो अधिकतम दीिप्त् उत्पन्न होती है उसमें काफी एकरूपता होती हे । इन तारों को टाइप १ सुपरनोवा कहते हैं । इनकी अधिकतम दीिप्त् में एकरूपता की वजह से ये ब्रह्मांडीय सर्वेक्षणों में मानक मोमबत्ती की भूमिका अदा करते हैं । ये सेफाइड्स से मुकाबले कहीं अधिक दीप्त्मिान होते हैं और काफी बड़ी दूरी के लिए मानक का काम कर सकते हैं ।
ऐसी परोक्ष मापन विधियों का उपयोग करने में एक दिक्कत यह है कि हम पक्का नहीं कह सकते कि उतार-चढ़ाव की रफ्तार और दीिप्त् के बीच का संबंध बहुत बड़ी दूरियों पर भी लागू होता था । और क्या यही संबंध काफी सुदूर अतीत में भी लागू होता था । इसलिए सेफाइड्स के निर्माण की क्रियाविधि को समझने में काफी रूचि रही है । टाइप १ सुपरनोवा में तो रूचि और भी गहरी रही है ।
जर्मन के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के रूडिजर पाकमोर व उनके साथियों ने बताया है कि वे श्वेत वामन तारों के विलीनीकरण के जरिए सुपरनोवा निर्माण की प्रक्रिया के मॉडल की दिक्कतों को दूर कर पाए हैं ।
हेनरीटा स्वान लीविट ने १८९३ में हार्वर्ड कॉलेज प्रयोगशाला में काम करना शुरू किया था । उन्हें दूरबीन से प्राप्त् फोटोग्राफ्स पर छवियां गिननी होती थी । उस समय महिलाआें को दूरबीन पर काम करने की इजाजत नहीं थी ।
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