सामयिक
भारतीय औद्योगिक विकास का इतिहास
डॉ. कश्मीर उप्पल
भारत के औद्योगिक विकास के ऐतिहासिक क्रम को समझने की प्रक्रिया में यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटिश शासक भारतीय औद्योगिक प्रगति की ओट में अपने देश और वहां के उद्योगपतियों का ही हित चाहते थे । दूसरे विश्वयुद्ध ने इस प्रक्रिया को और गति दी । वैसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही हमारे यहां औद्योगिकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी ।
विदेशी सरकार की नीतियों के फलस्वरूप भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था शीघ्र ही नष्ट होने लगी थी । भारत में १८०० और १८२५ के के बीच केवल चार अकाल पड़े थे और १८७५ से १९०० के बीच बाईस अकाल पड़े । अंग्रेजी शासन के पूर्व एक शताब्दी में भारत में औसतन तीन अकाल पड़ते थे अर्थात तकरीबन ३३ वर्षों में एक अकाल अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिग्बी लिखते हैं कि ''मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने कुछ किया हो या न किया हो, ये २२ अकाल हमारे शासन के परिणाम ही हैं ।``
भारतीय औद्योगिक विकास का इतिहास
डॉ. कश्मीर उप्पल
भारत के औद्योगिक विकास के ऐतिहासिक क्रम को समझने की प्रक्रिया में यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटिश शासक भारतीय औद्योगिक प्रगति की ओट में अपने देश और वहां के उद्योगपतियों का ही हित चाहते थे । दूसरे विश्वयुद्ध ने इस प्रक्रिया को और गति दी । वैसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही हमारे यहां औद्योगिकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी ।
विदेशी सरकार की नीतियों के फलस्वरूप भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था शीघ्र ही नष्ट होने लगी थी । भारत में १८०० और १८२५ के के बीच केवल चार अकाल पड़े थे और १८७५ से १९०० के बीच बाईस अकाल पड़े । अंग्रेजी शासन के पूर्व एक शताब्दी में भारत में औसतन तीन अकाल पड़ते थे अर्थात तकरीबन ३३ वर्षों में एक अकाल अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिग्बी लिखते हैं कि ''मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने कुछ किया हो या न किया हो, ये २२ अकाल हमारे शासन के परिणाम ही हैं ।``
भारत में अंग्रेजों ने आर्थिक विकास के नाम पर उन आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना शुरु किया था जो ब्रिटेन के हित में थीं । सन् १८८० के अकाल-आयोग (फेमिन-कमीशन) ने भी देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण राज्य को औद्योगिक गतिविधियों के संवर्द्धन का सुझाव दिया था । ब्रिटिश सरकार ने न तो स्वयं भारत के औद्योगिक विकास का प्रयत्न किया और न ही प्रांतीय सरकारों को इसकी अनुमति दी । मैसूर राज्य द्वारा उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग स्थापित किए गए थे परन्तु ब्रिटिश व्यापारियों के विरोध करने पर अनेक भारतीय उद्योगों की अनुमति रद्द कर दी गई ।
रुसी लेखक ग.क. शिरोकोव ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत का औद्योगीकरण` मंे लिखा है कि ''प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४ से १९१८) के अनुभव से यह सिद्ध हो गया कि भारत में एक निश्चित औद्योगिक क्षमता की स्थापना किए बिना इंग्लैंड न तो उसे अपना उपनिवेश बनाए रख सकेगा और न एशिया में उसकी स्थिति उतनी मजबूत रह पाएगी ।`` इन नई परिस्थितियों में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की औद्योगिक नीति में बहुत परिवर्तन हुए ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत के वायसराय ने भारत के औद्योगीकरण की आवश्यकता को स्वीकार किया और १९१९ के सुधार कानून (रिफार्म एक्ट) के द्वारा प्रांतीय सरकारों को अपने औद्योगिक विकास की स्वायत्ता प्रदान की गई । १९२०-२१ के गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के बाद राष्ट्रीय भावना जन-जन में व्याप्त हो गई थी । १९१७ में रुस की क्रान्ति के बाद भारतीय स्वतंत्रता-आन्दोलन में इस बात पर चर्चा होने लगी थी कि स्वतंत्र भारत का आर्थिक ढांचा कैसा हो ? सन् १९३१ में कराची मंे सरदार पटेल की अध्यक्षता में कांगे्रस का अधिवेशन हुआ था । इसमंे मौलिक अधिकार प्रस्ताव स्वीकृत हुआ जिसमें भारत के आर्थिक पुनर्निर्माण पर स्पष्ट विचार व्यक्त किया गया था ।
सन् १९३७ मंे कांग्रेस कई प्रांतों में सत्ता में आई । कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस ने देश के आर्थिक विकास पर चर्चा करने के लिए प्रान्तीय मंत्रीमण्डल के उद्योग मंत्रियों की एक बैठक बुलाई । इसमंे भारत के औद्योगीकरण के लिए एक विस्तृत राष्ट्रीय योजना बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया । प्रांतीय उद्योगमंत्रियों की अनुशंसा पर जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता मंे एक राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया गया । इस समिति ने २९ उपसमितियां ८ वर्गोंं में विभाजित कर बनाई । इन उपसमितियों में राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और देश के प्रमुख व्यावसायी शामिल थे । इन उपसमितियों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पक्ष का अपने विशेष संदर्भ में अध्ययन कर रिपोर्ट देनी थी । इस समिति ने उद्योगों को आधारभूत, लोक-उपयोगिता और सुरक्षा वर्ग मंे विभाजित किया था । इसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध (१९३९-१९४५) शुरु हो जाने से देश मंे राजनैतिक और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों मंे परिवर्तन हो गया और भारत के आर्थिक विकास का यह प्रयत्न यहीं रुक गया । ३१ अक्टूबर १९४० को जवाहरलाल नेहरु को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें जेल मंे भारत के आर्थिक विकास की योजना पर काम करने की अनुमति नहीं दी गई ।
द्वितीय विश्वयुद्ध का एक पक्ष ब्रिटेन भी था । अत: भारत युद्ध की आवश्यक वस्तुओं का पूर्तिकर्ता बन गया था । ब्रिटिश सरकार ने सन् १९४४ में भारत मंे नियोजन एवं विकास नामक एक नया विभाग गठित किया । सन् १९४५ में वायसराय लार्ड बावेल ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की । यहां यह उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने भारत में रेलों का जाल बिछाकर भारत के विकास मंे महत्वपूर्ण योगदान दिया था । वास्तव में भारत में रेल उद्योग का विकास इंग्लैंड मंे एकत्रित अतिरिक्त पूंजी के विनियोजन का एक अच्छा साधन था । ब्रिटेन के मैनचेस्टर और ग्लासगो के औद्योगिक केन्द्रों के व्यवसायियों ने सरकार पर जोर डाला था कि भारत में जल्द रेलमार्ग बनाये जायें ।
इस विषय पर डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि 'यह कहना गलत है कि इंग्लैंड ने भारत को रेल उद्योग दिया है वरन् भारत ने इंंग्लैंड को रेल उद्योग दिया है ।`` इस रेल निर्माण का मूल्य चुकता करने के लिए प्रतिवर्ष लगभग १ करोड़ पौंड का कच्च माल और वस्तुएं इंग्लैंड जाती थीं । इंग्लैंड की एक मजबूरी यह भी थी कि उसे अभी तक अमेरिका से मिलने वाली कपास की आपूर्ति बन्द हो गई थी । रेलों के लिए ही बंगाल और बिहार में कोयला खनन उद्योग स्थापित हुआ ।
इस तरह १९४७ तक भारत विश्व का एक अर्द्धविकसित देश बना रहा । देश की आजादी के ६६ वर्ष और ११ पंचवर्षीय योजनाओं के पूर्ण हो जाने के बाद भी देश की ७० प्रतिशत आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने की बाध्यता का क्या अर्थ है ? शेक्सपियर की तर्ज पर क्या हम कह सकते हैं कि, ``विकास में क्या रखा है ?`` आजादी के पहले डाकतार, टेलीफोन, रेडियो, रेल, चाय, काफी, कपास, शक्कर कपड़ा जैसे कृषि, उद्योग और व्यापार के औपनिवेशिक साधन विकसित हुए थे । आजादी के बाद संचार क्रान्ति, टेलीविजन, कम्प्यूटर, मेट्रो ट्रेन, कार, वायुयान, पांच सितारा होटल, टूजी-थ्रीजी संचार और आधुनिक युद्धक प्रणाली देश को मिली है । ऐसा ही और बहुत कुछ भी हमें मिला है । लेकिन सोचना होगा कि इस सबमें आम आदमी के हिस्से क्या आया है ?
रुसी लेखक ग.क. शिरोकोव ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत का औद्योगीकरण` मंे लिखा है कि ''प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४ से १९१८) के अनुभव से यह सिद्ध हो गया कि भारत में एक निश्चित औद्योगिक क्षमता की स्थापना किए बिना इंग्लैंड न तो उसे अपना उपनिवेश बनाए रख सकेगा और न एशिया में उसकी स्थिति उतनी मजबूत रह पाएगी ।`` इन नई परिस्थितियों में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की औद्योगिक नीति में बहुत परिवर्तन हुए ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत के वायसराय ने भारत के औद्योगीकरण की आवश्यकता को स्वीकार किया और १९१९ के सुधार कानून (रिफार्म एक्ट) के द्वारा प्रांतीय सरकारों को अपने औद्योगिक विकास की स्वायत्ता प्रदान की गई । १९२०-२१ के गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के बाद राष्ट्रीय भावना जन-जन में व्याप्त हो गई थी । १९१७ में रुस की क्रान्ति के बाद भारतीय स्वतंत्रता-आन्दोलन में इस बात पर चर्चा होने लगी थी कि स्वतंत्र भारत का आर्थिक ढांचा कैसा हो ? सन् १९३१ में कराची मंे सरदार पटेल की अध्यक्षता में कांगे्रस का अधिवेशन हुआ था । इसमंे मौलिक अधिकार प्रस्ताव स्वीकृत हुआ जिसमें भारत के आर्थिक पुनर्निर्माण पर स्पष्ट विचार व्यक्त किया गया था ।
सन् १९३७ मंे कांग्रेस कई प्रांतों में सत्ता में आई । कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस ने देश के आर्थिक विकास पर चर्चा करने के लिए प्रान्तीय मंत्रीमण्डल के उद्योग मंत्रियों की एक बैठक बुलाई । इसमंे भारत के औद्योगीकरण के लिए एक विस्तृत राष्ट्रीय योजना बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया । प्रांतीय उद्योगमंत्रियों की अनुशंसा पर जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता मंे एक राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया गया । इस समिति ने २९ उपसमितियां ८ वर्गोंं में विभाजित कर बनाई । इन उपसमितियों में राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और देश के प्रमुख व्यावसायी शामिल थे । इन उपसमितियों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पक्ष का अपने विशेष संदर्भ में अध्ययन कर रिपोर्ट देनी थी । इस समिति ने उद्योगों को आधारभूत, लोक-उपयोगिता और सुरक्षा वर्ग मंे विभाजित किया था । इसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध (१९३९-१९४५) शुरु हो जाने से देश मंे राजनैतिक और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों मंे परिवर्तन हो गया और भारत के आर्थिक विकास का यह प्रयत्न यहीं रुक गया । ३१ अक्टूबर १९४० को जवाहरलाल नेहरु को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें जेल मंे भारत के आर्थिक विकास की योजना पर काम करने की अनुमति नहीं दी गई ।
द्वितीय विश्वयुद्ध का एक पक्ष ब्रिटेन भी था । अत: भारत युद्ध की आवश्यक वस्तुओं का पूर्तिकर्ता बन गया था । ब्रिटिश सरकार ने सन् १९४४ में भारत मंे नियोजन एवं विकास नामक एक नया विभाग गठित किया । सन् १९४५ में वायसराय लार्ड बावेल ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की । यहां यह उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने भारत में रेलों का जाल बिछाकर भारत के विकास मंे महत्वपूर्ण योगदान दिया था । वास्तव में भारत में रेल उद्योग का विकास इंग्लैंड मंे एकत्रित अतिरिक्त पूंजी के विनियोजन का एक अच्छा साधन था । ब्रिटेन के मैनचेस्टर और ग्लासगो के औद्योगिक केन्द्रों के व्यवसायियों ने सरकार पर जोर डाला था कि भारत में जल्द रेलमार्ग बनाये जायें ।
इस विषय पर डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि 'यह कहना गलत है कि इंग्लैंड ने भारत को रेल उद्योग दिया है वरन् भारत ने इंंग्लैंड को रेल उद्योग दिया है ।`` इस रेल निर्माण का मूल्य चुकता करने के लिए प्रतिवर्ष लगभग १ करोड़ पौंड का कच्च माल और वस्तुएं इंग्लैंड जाती थीं । इंग्लैंड की एक मजबूरी यह भी थी कि उसे अभी तक अमेरिका से मिलने वाली कपास की आपूर्ति बन्द हो गई थी । रेलों के लिए ही बंगाल और बिहार में कोयला खनन उद्योग स्थापित हुआ ।
इस तरह १९४७ तक भारत विश्व का एक अर्द्धविकसित देश बना रहा । देश की आजादी के ६६ वर्ष और ११ पंचवर्षीय योजनाओं के पूर्ण हो जाने के बाद भी देश की ७० प्रतिशत आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने की बाध्यता का क्या अर्थ है ? शेक्सपियर की तर्ज पर क्या हम कह सकते हैं कि, ``विकास में क्या रखा है ?`` आजादी के पहले डाकतार, टेलीफोन, रेडियो, रेल, चाय, काफी, कपास, शक्कर कपड़ा जैसे कृषि, उद्योग और व्यापार के औपनिवेशिक साधन विकसित हुए थे । आजादी के बाद संचार क्रान्ति, टेलीविजन, कम्प्यूटर, मेट्रो ट्रेन, कार, वायुयान, पांच सितारा होटल, टूजी-थ्रीजी संचार और आधुनिक युद्धक प्रणाली देश को मिली है । ऐसा ही और बहुत कुछ भी हमें मिला है । लेकिन सोचना होगा कि इस सबमें आम आदमी के हिस्से क्या आया है ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें