दृष्टिकोण
प्राकृतिक घटनाये कारण एवं निदान
शम्भुप्रसाद भट्ट स्नेहिल
भूमण्डलीय अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि यह पृथ्वी जो कि अण्डाकार रूप में विद्यमान है, प्रारम्भ में सूर्य के प्रकाश पुन्ज से निकला हुआ, एक आग का गोला थी । जो करोड़ों वर्षांे के पश्चात् शनै:-शनै: ठण्डा होकर प्राकृतिक वनस्पतियों से आच्छादित होने लगी ।
इससे धरातल में नमी का प्रभाव बढ़ने लगा तथा जल स्रोतों का विकास हुआ, जीवधारियों के अनुकूल प्रकृति का प्रवाह होने से इसमें प्राणी की उत्पत्ति हुई । आवश्यकतानुसार अनुकूल वातावरण आदि की उपलब्धता से प्राणी का चरम विकास प्रारम्भ हुआ ।
मानव प्रारम्भ से ही बुद्धि जीवी एवं विकासोन्मुखी रहा है । जिस कारण वह अन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों को स्व-अधीन कर उनका अपनी आवश्यकतानुसार उपभोग करता रहा और साथ-साथ उन्हें संरक्षण भी प्रदान करता रहा है। बुद्धिजीवी होने के फलस्वरूप मानव हर एक अनावश्यक वस्तु, प्राणी व स्थान को अपने ज्ञान से जरूरतों के अनुकूल बनाता गया । इससे प्रकृति का पुरूष अर्थात् मानव के साथ अटूट संबंध बनने लगा, जिससे ये एक दूसरे के पूरक अर्थात् पर्याय बनते गये ।
प्राकृतिक घटनाये कारण एवं निदान
शम्भुप्रसाद भट्ट स्नेहिल
भूमण्डलीय अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि यह पृथ्वी जो कि अण्डाकार रूप में विद्यमान है, प्रारम्भ में सूर्य के प्रकाश पुन्ज से निकला हुआ, एक आग का गोला थी । जो करोड़ों वर्षांे के पश्चात् शनै:-शनै: ठण्डा होकर प्राकृतिक वनस्पतियों से आच्छादित होने लगी ।
इससे धरातल में नमी का प्रभाव बढ़ने लगा तथा जल स्रोतों का विकास हुआ, जीवधारियों के अनुकूल प्रकृति का प्रवाह होने से इसमें प्राणी की उत्पत्ति हुई । आवश्यकतानुसार अनुकूल वातावरण आदि की उपलब्धता से प्राणी का चरम विकास प्रारम्भ हुआ ।
मानव प्रारम्भ से ही बुद्धि जीवी एवं विकासोन्मुखी रहा है । जिस कारण वह अन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों को स्व-अधीन कर उनका अपनी आवश्यकतानुसार उपभोग करता रहा और साथ-साथ उन्हें संरक्षण भी प्रदान करता रहा है। बुद्धिजीवी होने के फलस्वरूप मानव हर एक अनावश्यक वस्तु, प्राणी व स्थान को अपने ज्ञान से जरूरतों के अनुकूल बनाता गया । इससे प्रकृति का पुरूष अर्थात् मानव के साथ अटूट संबंध बनने लगा, जिससे ये एक दूसरे के पूरक अर्थात् पर्याय बनते गये ।
मानव द्वारा प्रकृति का दोहन एवं संरक्षण जब तक नियन्त्रण एवं सन्तुलन की क्रिया के आधार पर किया जाता रहा, तब तक प्रकृति की अनुकूलता निरन्तर बनी रही अर्थात् समय की मांग के आधार पर वर्षा, धूप, गर्मी और हवा होने से प्रकृति में उत्पादकता का प्रभाव आवश्यकता के अनुरूप बना रहा । लेकिन वर्तमान जो कि सम्मुख खड़ा है, विगत कुछ वर्षों पूर्व से अनुचित दोहन एवं आवश्यकता से अधिक मानवीय महत्वाकांक्षा के कारण विकास के नाम पर प्राकृतिक वस्तुओं/प्राणियों का उपयोग करने का फल व प्रकृति से स्वार्थपरता तक ही सम्बन्ध रखने की प्रवृत्ति और उसका बेरुखापन इन सबका परिणाम आज प्राकृतिक एवं दैवीय आपदा एवं समस्यायें सम्मुख आती दिखाई दे रही हैं ।
सामान्य जीवन यापन के बजाय मानव में बहुत शौकीया एवं अय्याशी किस्म के जीवन यापन करने की महत्वाकांक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होती चली जा रही है, जहां सामान्य दो कमरों के हल्के वजनी भवनों में काम चलाया जा सकता, आज वहां बहुमंजिली भवनों का विकास किये जाने से पृथ्वी के किसी अधिक भार क्षमता वाले स्थान से मिट्टी, रेत, पत्थर आदि उठाकर कम भार क्षमता वाले स्थान पर स्थानान्तरित करके प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ने की कोशिश किये जाने से कम क्षमता वाले स्थान में डालने व ज्यादा भार प्रवाहित होने से पृथ्वी में हलचल की स्थिति पैदा होने लगी है, जिसे पृथ्वी की सन्तुलन एवं नियन्त्रण की क्रिया कहते हैं । ऐसी स्थिति में उस भू-भाग में हल्का झटका लगने से भूचाल या भूकम्प का प्रभाव बढ़ने लगता है ।
हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत धरातलीय हलचल का कारण यह भी है कि कुछ वर्षों से विकास के नाम पर निर्मित कल-कारखानों, यातायात आदि के साधनों से निकलने वाले भयानक गैस के प्रभाव एवं वन व सिविल क्षेत्रों में लगने वाली आग लपटों से प्रवाहित धुएं से वायुमण्डल धूमिल होता जा रहा है । इससे उसकी स्वच्छ वायु प्रदान करने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है, जिससे पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है । तापमान की वृद्धि के कारण कुछ वर्षों से पहाड़ी क्षेत्रों के साथ हिमालय में भी हिमपात की औसतन मात्रा में कमी देखी जा रही है और विभिन्न गैसों के प्रभाव से हिम पिघलने की दर बढ़ गई है ।
जिससे हिमालय में भी स्थिरता की स्थिति विचलित हो रही है, हिम पिघलने से लगातार नीचले क्षेत्र को नदी पानी के रूप में प्रवाहित होने से अपरदन की क्रिया निरन्तर जारी है । हिम क्षेत्र हल्का होने व यहां से अनाच्छादित होने वाले धरातलीय पत्थरों, रेत, मिट्टी आदि अन्यत्र स्थान में जाने से हिमालयी क्षेत्र हल्का होने से ऊपर की ओर उठता हुआ महसूस किया जा रहा है, जबकि अन्य क्षेत्र नीचे की ओर धंसते जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में किसी भी समय प्राकृतिक संतुलन के पुनर्स्थापन के लिए पृथ्वी के भू-भाग पर झटका लगने से भूकम्प आ जाने की प्रबल सम्भावना बन जाती है ।
पृथ्वी सूर्य से निकला एक प्रकाशपंुज अर्थात् आग का गोला था, जिसका क्षेत्र स्थलीय व जलीय दो भागों में विभाजित होकर उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रव के नाम से जाना जाने लगा । इसका स्थलीय क्षेत्र दो भूखण्डों में विभाजित था, जिनको अंगारालैण्ड व गोण्डवानालैण्ड कहकर पुकारा जाने लगा । दोनों के मध्य टैथीस नामक एक विशाल सागर था, जिसमें उत्तर व दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्रों से नदियां करोड़ों वर्षों तक अनवरत प्रवाहित होकर भूखण्डों का आच्छादन करती हुई, जमीनी अवसाद/मलवादि को टैथीस सागर में समाती रही । जिससे टैथीस सागर में भराव होने लगा, इसमें वनस्पतियों, प्राणियों व अन्योन्य चीजोंें का अंश जमा होते रहने से हल्की कच्ची वस्तुओं के कारण सागर तल से पानी का बहाव विपरीत दिशा अर्थात् धु्रवीय क्षेत्रों की ओर होने लगा । वह पर्वत के रूप में तल से ऊपर उठने लगा और (ध्रुवीय क्षेत्र) नदी प्रवाह क्षेत्र धंसने लगा ।
यही कारण है कि हिमालय के गर्भ में समाये विभिन्न अंश के सड़ने गलने से तरल पदार्थ रूप में खनिज तेल बनकर खाड़ी क्षेत्रों (अरब देशों) में ढ़लान होने से वहां बहाव होने के कारण उस क्षेत्र में आज भी अत्यधिक तेल भण्डार मिलते हैं, जो क्षेत्र की आर्थिकी का अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग है । वर्तमान में हिमालयी क्षेत्र से अधिकतर नदियां उद्गमित होकर सागरों की ओर बहती चली जा रही है । आज इन्हीें नदी प्रवाह क्षेत्रों के प्रभाव से कृषि उत्पादकता में काफी सुधार दिखाई दे रहा है । शतत् रूप से इनकी अनुकूलता बनी रहे, इसके लिए इनका उचित संरक्षण बनाये रखना आवश्यक होगा।
अफ्रीका महाद्वीप व यूरेशिया के मध्य भूमध्य सागर है, जिसमें कई नदियां समाती हैं और कई उत्पन्न होकर महासागरों की ओर प्रवाहित होती हैं। विभिन्न महाद्वीपों की स्थलाकृत्तियों को देखते हुए यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि ये सभी महाद्वीप पूर्वकाल में एक दूसरे से जुड़े हुए थे, तदनन्तर समय के अन्तराल से बाद में भूगर्भीय स्थिति एवं प्राकृतिक संतुलन आदि विभिन्न कारणों से यह वृहद् भू-भाग विभाजित होकर पृथक्-पृथक् छ: महाद्वीपों के रूप में अस्तित्व में आया । प्रत्येक विभाजित भू-खण्ड के स्थलीय भाग के मध्य महासागर, सागर, झील आदि अवस्थित है । इससे स्पष्ट होता है कि इस स्थलीय भाग के गर्भ में जल का आधिक्य है । जब भी भू-खण्ड विखण्डित/स्खलित होता है, उससे भूतल के नीचे (गर्भ) से जमीन के ऊपर को पानी का निकास प्रारम्भ हो जाता है, जो कि आन्तरिक गाढ़े (लावा) पदार्थों के विभिन्न छिद्रों से छन-छनकर शुद्ध जल के रूप में तालाबों व विभिन्न जल स्त्रोतों के माध्यम से धरातल पर प्रवाहित होकर अस्तित्व में आता है ।
पृथ्वी के धरातल में पूर्वकाल से ही प्राकृतिक वस्तुओं का अथाह भण्डार भरा-पड़ा है, इन वस्तुओं को अदूरदर्शी, महत्वाकांक्षी मानव आज समय, परिस्थिति व वस्तु तदनुसार न होने पर भी अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करके अपना प्रयास सफल समझ रहा है । मानवीय प्राणी पूर्वकाल से ही जनसंख्या एवं भार की दृष्टि से समानान्तर रहा है, लेकिन उसमें भावनाओं एवं विचारों के शुभ-अशुभ का अन्तर अवश्य है । जहां सद्विचारों, उच्च् विचारों का अनावश्यक दबाव कम होता है, वहीं भावनाओं की निकृष्टता व दुर्विचारों के दबाव में भार की अधिकता बढ़ जाती है । जिस कारण अच्छाइयों को बनाये रखने के लिए प्रकृति के संचालक परमेश्वर को अन्याय के भार वहन करने से हो रही अव्यवस्था के फलस्वरूप प्रकृति के पुनर्स्थापन की आवश्यकता पड़ती है ।
जिसमें प्राणियों के दुर्विचारों के प्रतिफल हेतु समय-समय पर सचेत रहने, सतर्कता आदि प्रयास के तहत घटनाओं का प्रादुर्भाव होता है । इसमें जन-धन एवं भू-आकृतियों का विघटन होकर विध्वंशात्मक क्रिया गतिशील होती है, क्योंकि धरातल में समाये अनेकानेक खनिज पदार्थों के अनवरत दोहन होने से उसका ईंधन आदि आपूर्ति में प्रयुक्त किये जाने पर वह धुंए के रूप में प्रवाहित होने लगता है, जिससे धरातलीय भार कम होकर धुएं के कारण वायुमंडल में अनुपयोगी गैसों का भार बढ़ जाता है, इससे प्रकृति (ब्रह्माण्ड) के संचालन में अनावश्यक विघ्न पैदा हो जाता है ।
पृथ्वी के किसी क्षेत्र में भू-खण्ड विखण्डित होकर दरार पड़ने से भूगर्भीय गर्मी/गैस के कारण उस दरार से इल्का धुंआ जैसा बाहर आता दिखाई देता है, यह आन्तरिक शक्तियों से प्रवाहित भाप है । भूकम्प, भूस्खलन आदि अनेकों प्रकार की आपदाओं का पूर्वानुमान स्पष्टत: वर्तमान में विज्ञान के विकास का चरमोत्कर्ष होने पर भी आज पूर्णत: सम्भव नहीं हो पाया है, लेकिन वैज्ञानिकोंद्वारा किसी भी प्राकृतिक घटना के होने से पूर्व उसका पूर्वाभास ज्ञात करने की तकनीक का विकास निरन्तर जारी है ।
इससे यह ज्ञात होता है कि प्रकृति के सम्मुख आज की आधुनिकता पूर्णत: सफल तो नहीं है, परन्तु दैवीय एवं आकस्मिक आपदाओं-घटनाओं से निपटने हेतु आवश्यक व महत्वपूर्ण साधन तो उपलब्ध हैं ही । आस्तिकता एवं नास्तिकता और धार्मिकता एवं वैज्ञानिकता आदि किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाय तो प्राणियों के प्रति बेदर्दपन, बेतहाशा उत्पीड़न, विदोहन एवं आपसी आत्मीयता व प्रेम व्यवहार के गिरते ग्राफ व बढ़ती ईर्ष्यालु एवं उत्पीड़नात्मक प्रवृति के साथ स्वार्थपरता तक ही सम्पर्क/सम्बन्ध स्थापन स्वभाव के कारण प्रकृति के महाकाल अर्थात् उसके संचालक परमेश्वर का रौद्ररूप महाविनाश का संकेत दे रहा है कि यदि अभी भी इन्सान न सम्भला, तो ऐसे अन्यायी, अत्याचारी प्राणी का सम्पूर्ण विनाश अवश्यम्भावी है ।
इसलिए आज आवश्यकता इस बात की हो चली है कि प्रकृति की किसी भी वस्तु के प्रति आत्मवत् व्यवहार करना चाहिए, तभी उनकी अनुकूलता समस्त प्राणी मात्र के लिए निरन्तर बनी रह सकती है ।
आज नैतिकता का पतन जिस तीव्रता से हो रहा है, इससे यह आभास होता है कि भविष्य में मानव अपने अस्तित्व की रक्षा में सम्भवत: पंगु हो जायेगा, ऐसी स्थिति में मानवीय सद्भावना के ह्रास होने की प्रबल सम्भावना बढ़ जायेगी । किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि सभी मानव नास्तिक, अन्याय व अत्याचारी हो जायेंगे और न ही यह अतीत के उदाहरणों को देखते हुए सम्भव है । इसका प्रतिशत अवश्य बढ़ सकता है, परन्तु धर्म व आस्तिकता का स्तर शून्य नहीं हो सकता । क्योंकि धर्म तो जड़ है, जिसके सहारे संसार विद्यमान रहता है, हजारों जड़ों में से एक जड़ भी जब तक (जीवित रहे) विद्यमान रहे, तब तक धर्म का अस्तित्व बना रहता है, परन्तु अधर्म के दबाव में धर्म का प्रभाव अवश्य ही कम हो जाता है ।
इसी प्रकार अधर्मी व पाप से प्रभावित समाज में अच्छे इन्सान के व्यक्तित्व की पहचान मिटती चली जाती है । बहुमत की आड़ में निष्क्रिय विचारकों का बोलबाला होने से उत्कृष्ट विचारकों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। धर्म विश्वास का एक उत्कृष्ठतम सद्विचार है, जो कि अच्छाई एवं सच्चई का रास्ता दिखाता है (सत्य का पथ प्रदर्शक है)। सज्जनों को अपना अस्तित्व खतरे में लगता है, ऐसी स्थिति में दुर्जनों के वर्चस्व से अच्छे इन्सानों का ईमान भी डगमगाने लगता है । जिससे क्रूरता का प्रभाव बढ़ने लगता है ।
वर्तमान में यदि जनसंख्या का भार माना जाय तो, क्या द्वापर युग के अन्तिम चरण में हुए महाभारत युद्ध में (मारी गयी) युद्धरत्त अठ्ठारह अक्षौहिणी सेना का कुछ भी भार नहीं था ? इसके अलावा भी तो अन्य कई प्राणी उस समय अस्तित्व में रहे होंगे, परन्तु उपरोक्त अन्तर में धार्मिक भावनाओं के हा्रस से दुर्भावनाओं के भार की अधिकता का अन्तर अवश्य ही रहा है । फिर यह भी तर्क दिया जाता है कि विगत शताब्दियों में मनुष्य की शरीराकृति आज के एक हृष्ट-पुष्ट मानव से कई गुना अधिक रही है, जिसमें आज के हजार मानवों के बराबर शक्ति के साथ भार की अधिकता भी रही होगी ।
कहा भी जाता है कि तत्कालीन यौद्धाओं में सौ-सौ हाथियों के बराबर की शक्ति थी । इस दृष्टि से आज की अरबों जनसंख्या और विगत लाखों जनसंख्या के भार में कई अन्तर तो नहीं महसूस होता है, इसमें भार वृद्धि का तर्क के सम्बन्ध में उक्त वर्णित आधार पर भावनात्मकता के अन्तर का तथ्य सही एवं सत्य महसूस होता है । इसे इस प्रकार भी स्पष्ट किया जा सकता है कि एक स्थान से सादी मिट्टी व पानी को लेकर उसे पृथक्-पृथक् तौलने पर निकला दोनों का कुल भार और फिर उन दोनों को एक साथ मिश्रण कर पुन: एकीकृत वस्तु के वजन लेने पर उसका भार पहले की अपेक्षा अधिक पाया जाता है । जबकि वस्तु वही है मात्र वस्तु की प्रकृति परिवर्तन का अन्तर है । इसमें वस्तु के घनत्व का प्रभाव बढ़ जाता है । इसी प्रकार शुद्ध सात्विकता व दुर्भावना का प्रभाव भी होता है ।
धर्म का ह्रास होकर परम अन्याय, अत्याचार वर्तमान में ही हो रहे हैं, तो पूर्व काल (सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर) में धर्म की स्थापना हेतु ईश्वर को मानव शरीर में क्यों अवतरित होना पड़ा ? इसका उत्तर यह दिया जा सकता है कि पाप और पुण्य का आपसी संघर्ष प्राणी के अस्तित्व में आने के समय से ही निरन्तर चला आ रहा है । कभी पुण्य का दबाव पाप के पैराग्राफ को गिरा देत, तो कभी पाप का प्रभाव पुण्य को गिराकर अपना वर्चस्व कायम कर देता है ।
इस प्रकार यह हर काल व युग से निरन्तर चली आ रही शतत् प्रक्रिया है । यहां यह समझना आवश्यक होगा कि धार्मिकता का प्रभाव सनातन/निरन्तर विद्यमान रहता है, जबकि पाप-अधर्म, जो कि किसी भी रूप में अति भौतिक सुख प्राप्ति की आकांक्षाओं का ही पर्याय होता है, का प्रभाव त्वरित प्रवाही, लेकिन अल्पकालिक होता है । इस कारण यह सोचना ही बुद्धिमत्ता का कार्य है कि हमारे अनुकूल कौन सा मार्ग है, जिसमें कि अपने विकास के साथ-साथ सर्वजनहित भी सन्निहित हो ।
सच्चई व ईमानदारी की राह पर चलने से सफलता लम्बे अन्तराल के पश्चात् मिलने के फलस्वरूप अधिकांश जन अल्पावधि में ही अवैधानिक रास्ते से शीघ्रातिशीघ्र सफलता प्राप्त करने की ओर आकर्षित होते चले जाते हंै । सद्मार्ग से मिलने वाली सफलता शाश्वत् व स्थायी होती है, जबकि दूसरे मार्ग अर्थात् शार्टकट मार्ग से प्राप्त होने वाली सफलता नितान्त अस्थायी होती है। आज तो सब्र की कमी हर इन्सान में दिखाई देती है, समाज में सद्विचारकों व सद्कर्मियों को तो निरन्तर दु:ख/कष्ट का ही सामना अनैतिकता के दौर में करना पड़ता है, यही नहीं उनके व्यक्तित्व को भी कोई महत्व नहीं दिया जाता है, इससे कुछ जनों को मजबूरन सद्कर्मों को त्यागना पड़ता है, सद्मार्गगामी को अपने सद्कार्यों को किसी भी परिस्थिति में नहीं त्यागना चाहिए । आज फिर भी सत्य, धर्म आदि सद्गुणों से युक्त इन्सान विश्व में विद्यमान हैं ही, जिनकी सद्भावना व सद्कर्मों के प्रभाव से संसार का अस्तित्व शतत् बना हुआ है और जो बना ही रहेगा।
सामान्य जीवन यापन के बजाय मानव में बहुत शौकीया एवं अय्याशी किस्म के जीवन यापन करने की महत्वाकांक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होती चली जा रही है, जहां सामान्य दो कमरों के हल्के वजनी भवनों में काम चलाया जा सकता, आज वहां बहुमंजिली भवनों का विकास किये जाने से पृथ्वी के किसी अधिक भार क्षमता वाले स्थान से मिट्टी, रेत, पत्थर आदि उठाकर कम भार क्षमता वाले स्थान पर स्थानान्तरित करके प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ने की कोशिश किये जाने से कम क्षमता वाले स्थान में डालने व ज्यादा भार प्रवाहित होने से पृथ्वी में हलचल की स्थिति पैदा होने लगी है, जिसे पृथ्वी की सन्तुलन एवं नियन्त्रण की क्रिया कहते हैं । ऐसी स्थिति में उस भू-भाग में हल्का झटका लगने से भूचाल या भूकम्प का प्रभाव बढ़ने लगता है ।
हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत धरातलीय हलचल का कारण यह भी है कि कुछ वर्षों से विकास के नाम पर निर्मित कल-कारखानों, यातायात आदि के साधनों से निकलने वाले भयानक गैस के प्रभाव एवं वन व सिविल क्षेत्रों में लगने वाली आग लपटों से प्रवाहित धुएं से वायुमण्डल धूमिल होता जा रहा है । इससे उसकी स्वच्छ वायु प्रदान करने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है, जिससे पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है । तापमान की वृद्धि के कारण कुछ वर्षों से पहाड़ी क्षेत्रों के साथ हिमालय में भी हिमपात की औसतन मात्रा में कमी देखी जा रही है और विभिन्न गैसों के प्रभाव से हिम पिघलने की दर बढ़ गई है ।
जिससे हिमालय में भी स्थिरता की स्थिति विचलित हो रही है, हिम पिघलने से लगातार नीचले क्षेत्र को नदी पानी के रूप में प्रवाहित होने से अपरदन की क्रिया निरन्तर जारी है । हिम क्षेत्र हल्का होने व यहां से अनाच्छादित होने वाले धरातलीय पत्थरों, रेत, मिट्टी आदि अन्यत्र स्थान में जाने से हिमालयी क्षेत्र हल्का होने से ऊपर की ओर उठता हुआ महसूस किया जा रहा है, जबकि अन्य क्षेत्र नीचे की ओर धंसते जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में किसी भी समय प्राकृतिक संतुलन के पुनर्स्थापन के लिए पृथ्वी के भू-भाग पर झटका लगने से भूकम्प आ जाने की प्रबल सम्भावना बन जाती है ।
पृथ्वी सूर्य से निकला एक प्रकाशपंुज अर्थात् आग का गोला था, जिसका क्षेत्र स्थलीय व जलीय दो भागों में विभाजित होकर उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रव के नाम से जाना जाने लगा । इसका स्थलीय क्षेत्र दो भूखण्डों में विभाजित था, जिनको अंगारालैण्ड व गोण्डवानालैण्ड कहकर पुकारा जाने लगा । दोनों के मध्य टैथीस नामक एक विशाल सागर था, जिसमें उत्तर व दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्रों से नदियां करोड़ों वर्षों तक अनवरत प्रवाहित होकर भूखण्डों का आच्छादन करती हुई, जमीनी अवसाद/मलवादि को टैथीस सागर में समाती रही । जिससे टैथीस सागर में भराव होने लगा, इसमें वनस्पतियों, प्राणियों व अन्योन्य चीजोंें का अंश जमा होते रहने से हल्की कच्ची वस्तुओं के कारण सागर तल से पानी का बहाव विपरीत दिशा अर्थात् धु्रवीय क्षेत्रों की ओर होने लगा । वह पर्वत के रूप में तल से ऊपर उठने लगा और (ध्रुवीय क्षेत्र) नदी प्रवाह क्षेत्र धंसने लगा ।
यही कारण है कि हिमालय के गर्भ में समाये विभिन्न अंश के सड़ने गलने से तरल पदार्थ रूप में खनिज तेल बनकर खाड़ी क्षेत्रों (अरब देशों) में ढ़लान होने से वहां बहाव होने के कारण उस क्षेत्र में आज भी अत्यधिक तेल भण्डार मिलते हैं, जो क्षेत्र की आर्थिकी का अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग है । वर्तमान में हिमालयी क्षेत्र से अधिकतर नदियां उद्गमित होकर सागरों की ओर बहती चली जा रही है । आज इन्हीें नदी प्रवाह क्षेत्रों के प्रभाव से कृषि उत्पादकता में काफी सुधार दिखाई दे रहा है । शतत् रूप से इनकी अनुकूलता बनी रहे, इसके लिए इनका उचित संरक्षण बनाये रखना आवश्यक होगा।
अफ्रीका महाद्वीप व यूरेशिया के मध्य भूमध्य सागर है, जिसमें कई नदियां समाती हैं और कई उत्पन्न होकर महासागरों की ओर प्रवाहित होती हैं। विभिन्न महाद्वीपों की स्थलाकृत्तियों को देखते हुए यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि ये सभी महाद्वीप पूर्वकाल में एक दूसरे से जुड़े हुए थे, तदनन्तर समय के अन्तराल से बाद में भूगर्भीय स्थिति एवं प्राकृतिक संतुलन आदि विभिन्न कारणों से यह वृहद् भू-भाग विभाजित होकर पृथक्-पृथक् छ: महाद्वीपों के रूप में अस्तित्व में आया । प्रत्येक विभाजित भू-खण्ड के स्थलीय भाग के मध्य महासागर, सागर, झील आदि अवस्थित है । इससे स्पष्ट होता है कि इस स्थलीय भाग के गर्भ में जल का आधिक्य है । जब भी भू-खण्ड विखण्डित/स्खलित होता है, उससे भूतल के नीचे (गर्भ) से जमीन के ऊपर को पानी का निकास प्रारम्भ हो जाता है, जो कि आन्तरिक गाढ़े (लावा) पदार्थों के विभिन्न छिद्रों से छन-छनकर शुद्ध जल के रूप में तालाबों व विभिन्न जल स्त्रोतों के माध्यम से धरातल पर प्रवाहित होकर अस्तित्व में आता है ।
पृथ्वी के धरातल में पूर्वकाल से ही प्राकृतिक वस्तुओं का अथाह भण्डार भरा-पड़ा है, इन वस्तुओं को अदूरदर्शी, महत्वाकांक्षी मानव आज समय, परिस्थिति व वस्तु तदनुसार न होने पर भी अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करके अपना प्रयास सफल समझ रहा है । मानवीय प्राणी पूर्वकाल से ही जनसंख्या एवं भार की दृष्टि से समानान्तर रहा है, लेकिन उसमें भावनाओं एवं विचारों के शुभ-अशुभ का अन्तर अवश्य है । जहां सद्विचारों, उच्च् विचारों का अनावश्यक दबाव कम होता है, वहीं भावनाओं की निकृष्टता व दुर्विचारों के दबाव में भार की अधिकता बढ़ जाती है । जिस कारण अच्छाइयों को बनाये रखने के लिए प्रकृति के संचालक परमेश्वर को अन्याय के भार वहन करने से हो रही अव्यवस्था के फलस्वरूप प्रकृति के पुनर्स्थापन की आवश्यकता पड़ती है ।
जिसमें प्राणियों के दुर्विचारों के प्रतिफल हेतु समय-समय पर सचेत रहने, सतर्कता आदि प्रयास के तहत घटनाओं का प्रादुर्भाव होता है । इसमें जन-धन एवं भू-आकृतियों का विघटन होकर विध्वंशात्मक क्रिया गतिशील होती है, क्योंकि धरातल में समाये अनेकानेक खनिज पदार्थों के अनवरत दोहन होने से उसका ईंधन आदि आपूर्ति में प्रयुक्त किये जाने पर वह धुंए के रूप में प्रवाहित होने लगता है, जिससे धरातलीय भार कम होकर धुएं के कारण वायुमंडल में अनुपयोगी गैसों का भार बढ़ जाता है, इससे प्रकृति (ब्रह्माण्ड) के संचालन में अनावश्यक विघ्न पैदा हो जाता है ।
पृथ्वी के किसी क्षेत्र में भू-खण्ड विखण्डित होकर दरार पड़ने से भूगर्भीय गर्मी/गैस के कारण उस दरार से इल्का धुंआ जैसा बाहर आता दिखाई देता है, यह आन्तरिक शक्तियों से प्रवाहित भाप है । भूकम्प, भूस्खलन आदि अनेकों प्रकार की आपदाओं का पूर्वानुमान स्पष्टत: वर्तमान में विज्ञान के विकास का चरमोत्कर्ष होने पर भी आज पूर्णत: सम्भव नहीं हो पाया है, लेकिन वैज्ञानिकोंद्वारा किसी भी प्राकृतिक घटना के होने से पूर्व उसका पूर्वाभास ज्ञात करने की तकनीक का विकास निरन्तर जारी है ।
इससे यह ज्ञात होता है कि प्रकृति के सम्मुख आज की आधुनिकता पूर्णत: सफल तो नहीं है, परन्तु दैवीय एवं आकस्मिक आपदाओं-घटनाओं से निपटने हेतु आवश्यक व महत्वपूर्ण साधन तो उपलब्ध हैं ही । आस्तिकता एवं नास्तिकता और धार्मिकता एवं वैज्ञानिकता आदि किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाय तो प्राणियों के प्रति बेदर्दपन, बेतहाशा उत्पीड़न, विदोहन एवं आपसी आत्मीयता व प्रेम व्यवहार के गिरते ग्राफ व बढ़ती ईर्ष्यालु एवं उत्पीड़नात्मक प्रवृति के साथ स्वार्थपरता तक ही सम्पर्क/सम्बन्ध स्थापन स्वभाव के कारण प्रकृति के महाकाल अर्थात् उसके संचालक परमेश्वर का रौद्ररूप महाविनाश का संकेत दे रहा है कि यदि अभी भी इन्सान न सम्भला, तो ऐसे अन्यायी, अत्याचारी प्राणी का सम्पूर्ण विनाश अवश्यम्भावी है ।
इसलिए आज आवश्यकता इस बात की हो चली है कि प्रकृति की किसी भी वस्तु के प्रति आत्मवत् व्यवहार करना चाहिए, तभी उनकी अनुकूलता समस्त प्राणी मात्र के लिए निरन्तर बनी रह सकती है ।
आज नैतिकता का पतन जिस तीव्रता से हो रहा है, इससे यह आभास होता है कि भविष्य में मानव अपने अस्तित्व की रक्षा में सम्भवत: पंगु हो जायेगा, ऐसी स्थिति में मानवीय सद्भावना के ह्रास होने की प्रबल सम्भावना बढ़ जायेगी । किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि सभी मानव नास्तिक, अन्याय व अत्याचारी हो जायेंगे और न ही यह अतीत के उदाहरणों को देखते हुए सम्भव है । इसका प्रतिशत अवश्य बढ़ सकता है, परन्तु धर्म व आस्तिकता का स्तर शून्य नहीं हो सकता । क्योंकि धर्म तो जड़ है, जिसके सहारे संसार विद्यमान रहता है, हजारों जड़ों में से एक जड़ भी जब तक (जीवित रहे) विद्यमान रहे, तब तक धर्म का अस्तित्व बना रहता है, परन्तु अधर्म के दबाव में धर्म का प्रभाव अवश्य ही कम हो जाता है ।
इसी प्रकार अधर्मी व पाप से प्रभावित समाज में अच्छे इन्सान के व्यक्तित्व की पहचान मिटती चली जाती है । बहुमत की आड़ में निष्क्रिय विचारकों का बोलबाला होने से उत्कृष्ट विचारकों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। धर्म विश्वास का एक उत्कृष्ठतम सद्विचार है, जो कि अच्छाई एवं सच्चई का रास्ता दिखाता है (सत्य का पथ प्रदर्शक है)। सज्जनों को अपना अस्तित्व खतरे में लगता है, ऐसी स्थिति में दुर्जनों के वर्चस्व से अच्छे इन्सानों का ईमान भी डगमगाने लगता है । जिससे क्रूरता का प्रभाव बढ़ने लगता है ।
वर्तमान में यदि जनसंख्या का भार माना जाय तो, क्या द्वापर युग के अन्तिम चरण में हुए महाभारत युद्ध में (मारी गयी) युद्धरत्त अठ्ठारह अक्षौहिणी सेना का कुछ भी भार नहीं था ? इसके अलावा भी तो अन्य कई प्राणी उस समय अस्तित्व में रहे होंगे, परन्तु उपरोक्त अन्तर में धार्मिक भावनाओं के हा्रस से दुर्भावनाओं के भार की अधिकता का अन्तर अवश्य ही रहा है । फिर यह भी तर्क दिया जाता है कि विगत शताब्दियों में मनुष्य की शरीराकृति आज के एक हृष्ट-पुष्ट मानव से कई गुना अधिक रही है, जिसमें आज के हजार मानवों के बराबर शक्ति के साथ भार की अधिकता भी रही होगी ।
कहा भी जाता है कि तत्कालीन यौद्धाओं में सौ-सौ हाथियों के बराबर की शक्ति थी । इस दृष्टि से आज की अरबों जनसंख्या और विगत लाखों जनसंख्या के भार में कई अन्तर तो नहीं महसूस होता है, इसमें भार वृद्धि का तर्क के सम्बन्ध में उक्त वर्णित आधार पर भावनात्मकता के अन्तर का तथ्य सही एवं सत्य महसूस होता है । इसे इस प्रकार भी स्पष्ट किया जा सकता है कि एक स्थान से सादी मिट्टी व पानी को लेकर उसे पृथक्-पृथक् तौलने पर निकला दोनों का कुल भार और फिर उन दोनों को एक साथ मिश्रण कर पुन: एकीकृत वस्तु के वजन लेने पर उसका भार पहले की अपेक्षा अधिक पाया जाता है । जबकि वस्तु वही है मात्र वस्तु की प्रकृति परिवर्तन का अन्तर है । इसमें वस्तु के घनत्व का प्रभाव बढ़ जाता है । इसी प्रकार शुद्ध सात्विकता व दुर्भावना का प्रभाव भी होता है ।
धर्म का ह्रास होकर परम अन्याय, अत्याचार वर्तमान में ही हो रहे हैं, तो पूर्व काल (सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर) में धर्म की स्थापना हेतु ईश्वर को मानव शरीर में क्यों अवतरित होना पड़ा ? इसका उत्तर यह दिया जा सकता है कि पाप और पुण्य का आपसी संघर्ष प्राणी के अस्तित्व में आने के समय से ही निरन्तर चला आ रहा है । कभी पुण्य का दबाव पाप के पैराग्राफ को गिरा देत, तो कभी पाप का प्रभाव पुण्य को गिराकर अपना वर्चस्व कायम कर देता है ।
इस प्रकार यह हर काल व युग से निरन्तर चली आ रही शतत् प्रक्रिया है । यहां यह समझना आवश्यक होगा कि धार्मिकता का प्रभाव सनातन/निरन्तर विद्यमान रहता है, जबकि पाप-अधर्म, जो कि किसी भी रूप में अति भौतिक सुख प्राप्ति की आकांक्षाओं का ही पर्याय होता है, का प्रभाव त्वरित प्रवाही, लेकिन अल्पकालिक होता है । इस कारण यह सोचना ही बुद्धिमत्ता का कार्य है कि हमारे अनुकूल कौन सा मार्ग है, जिसमें कि अपने विकास के साथ-साथ सर्वजनहित भी सन्निहित हो ।
सच्चई व ईमानदारी की राह पर चलने से सफलता लम्बे अन्तराल के पश्चात् मिलने के फलस्वरूप अधिकांश जन अल्पावधि में ही अवैधानिक रास्ते से शीघ्रातिशीघ्र सफलता प्राप्त करने की ओर आकर्षित होते चले जाते हंै । सद्मार्ग से मिलने वाली सफलता शाश्वत् व स्थायी होती है, जबकि दूसरे मार्ग अर्थात् शार्टकट मार्ग से प्राप्त होने वाली सफलता नितान्त अस्थायी होती है। आज तो सब्र की कमी हर इन्सान में दिखाई देती है, समाज में सद्विचारकों व सद्कर्मियों को तो निरन्तर दु:ख/कष्ट का ही सामना अनैतिकता के दौर में करना पड़ता है, यही नहीं उनके व्यक्तित्व को भी कोई महत्व नहीं दिया जाता है, इससे कुछ जनों को मजबूरन सद्कर्मों को त्यागना पड़ता है, सद्मार्गगामी को अपने सद्कार्यों को किसी भी परिस्थिति में नहीं त्यागना चाहिए । आज फिर भी सत्य, धर्म आदि सद्गुणों से युक्त इन्सान विश्व में विद्यमान हैं ही, जिनकी सद्भावना व सद्कर्मों के प्रभाव से संसार का अस्तित्व शतत् बना हुआ है और जो बना ही रहेगा।
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