जीवन शैली
भारत में पवित्र वन
अन्वेषा बोरठाकुर
लंबे अरसे से पवित्र उपवनों का अस्तित्व मनुष्य के हस्तक्षेप से मुक्त रहा है । इसलिए मानवशास्त्रीय, सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से इनका काफी महत्व है । भारत में अधिकांश पवित्र उपवन पूर्वोत्तर राज्यों और पश्चिमी घाट के इलाके में स्थित हैं । ये दोनों वे क्षेत्र हैं जिनकी गिनती जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थानों में की जाती हैं । लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत में पवित्र उपवनों की संख्या बड़ी तेजी से कम होती जा रही है । ऐसे में इनके संरक्षण के लिए समुचित योजना बनाने का समय आ गया हैं ।
पवित्र उपवन (सैके्रड ग्रोव्स) वनों के ऐसे टुकड़े या प्राकृतिक वानस्पतिक इलाके होते हैं जो स्थानीय लोक देवी-देवताआें या प्राचीन व वृक्ष आत्माआें को समर्तित होते हैं । ये उपवन मानव शास्त्रीय (एंथो्रपॉलॉजी), सांस्कृतिक, आर्थिक और इकॉलॉजी के नजरिए से काफी महत्वपूर्ण होते हैं । स्थानीय समुदाय अपनी धार्मिक आस्थाआें और उनसे जुड़े रीति-रिवाजों के चलते उनका संरक्षण व रक्षा करत हैं । ये उपवन कई तरह के हो सकते हैं । इनमें अनेक प्रजातियों के ढेरों वृक्ष हो सकते हैं या फिर वे कुछ पेड़ों के झुरमुट तक सामित हो सकते हैं ।
भारत में पवित्र वन
अन्वेषा बोरठाकुर
लंबे अरसे से पवित्र उपवनों का अस्तित्व मनुष्य के हस्तक्षेप से मुक्त रहा है । इसलिए मानवशास्त्रीय, सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से इनका काफी महत्व है । भारत में अधिकांश पवित्र उपवन पूर्वोत्तर राज्यों और पश्चिमी घाट के इलाके में स्थित हैं । ये दोनों वे क्षेत्र हैं जिनकी गिनती जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थानों में की जाती हैं । लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत में पवित्र उपवनों की संख्या बड़ी तेजी से कम होती जा रही है । ऐसे में इनके संरक्षण के लिए समुचित योजना बनाने का समय आ गया हैं ।
पवित्र उपवन (सैके्रड ग्रोव्स) वनों के ऐसे टुकड़े या प्राकृतिक वानस्पतिक इलाके होते हैं जो स्थानीय लोक देवी-देवताआें या प्राचीन व वृक्ष आत्माआें को समर्तित होते हैं । ये उपवन मानव शास्त्रीय (एंथो्रपॉलॉजी), सांस्कृतिक, आर्थिक और इकॉलॉजी के नजरिए से काफी महत्वपूर्ण होते हैं । स्थानीय समुदाय अपनी धार्मिक आस्थाआें और उनसे जुड़े रीति-रिवाजों के चलते उनका संरक्षण व रक्षा करत हैं । ये उपवन कई तरह के हो सकते हैं । इनमें अनेक प्रजातियों के ढेरों वृक्ष हो सकते हैं या फिर वे कुछ पेड़ों के झुरमुट तक सामित हो सकते हैं ।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका वानस्पतिक इतिहास क्या रहा है । जे.डी. ह्यूज और एम.डी.एस. चंद्रन के अनुसार ये उपवन ऐसे लैंडस्कैप हैं, जिनमें वनस्पति, जीवन के अन्य रूप और भौगोलिक फीचर्स शामिल होते हैं तथा मानव समुदाय उनका संरक्षण इस विश्वास के साथ करता है कि उन्हें कुदरती रूप में सुरक्षित रखना दैवी शक्तियों या प्रकृति के साथ अपने सम्बंधोंका इजहार है । इस तरह के उपवन जो कुछ पेड़ों के झुरमुट से लेकर कई उकड़ में फैले वन भी हो सकते हैं, अक्सर जैव-विविधता से समृद्ध क्षेत्रों में स्थित होते हैं । भारत में ये अधिकतर पूर्वोत्तर और पश्चिमी घाट क्षेत्र में पाए जाते हैं । दुनिया में इन दोनों ही क्षेत्रों की गिनती जैन-विविधता से सम्पन्न हॉटस्पॉट्स में होती हैं ।
भारत में स्थानीय स्तर पर ढेरों अलग-अलग समुदाय बसे हैं, जिनकी अपनी आस्थाएं और परम्पराएं हैं । इस कारण यहां एक ही बहुत ही बहुुमूल्य पारम्परिक ज्ञान का आधार रहा है । देश में अब भी प्रकृति की पूजा करने के कई रूप विद्यमान हैं और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते आए हैं । नरकट (बेंत की जाति का एक पौधा) से लेकर अंजीर और केंकड़े से लेकर मोर व बाघ तक को आज भी कई आदिम समाजों में पूजा जाता है । पवित्र उपवनों में प्राकृतिक या लगभग प्राकृतिक वनस्पतियां होती हैं, जिनका संरक्षण स्थानीय समुदाय कुछ सामाजिक प्रतिबंधों के जरिए करते हैं । इनमें इन समुदायों के आध्यात्मिक और पारिस्थितिक लोकाचार प्रतिबिंबित होते हैं ।
ये पवित्र उपवन अंटार्कटिका को छोड़कर अन्य तमाम महाद्वीपों में पाए गए हैं । भारत में इस तरह के स्थलो की संख्या ३८ है जो कि अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक है । वैसे कुछ अन्य अध्ययन कहते हैं कि भारत में ऐसे उपवन स्थलों की संख्या कही ज्यादा है ।
दुनिया भर के कई पारंपरिक समाजों में प्राकृतिक परिवेश के साथ मनुष्य के रिश्तों पर वर्जनाआें या प्रतिबंधों का प्रभाव रहा है । संसार की विभिन्न संस्कृतियों में ऐसे प्रतिबंधों का अस्त्तिव रहा है जिनसे पर्यावरण के साथ मनुष्य के संबंधों का संचालन/नियमन होता रहा है । ये इस बात की मिसाल हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध सरकारी कानून और नियमों की बनिस्बत सामाजिक रिवाजों के आधार पर कहीं बेहतर ढंग से संचालित किए जा सकते हैं । माना जाता है कि किसी भी उपवन में फलने-फूलने वाली तमाम वनस्पतियां, जिनमेंझाडियां और लताएं भी शामिल हैं, वहां शासन करने वाले वन देवता की पनाह में रहती है । अधिकांश उपवनों में तो पेड़ों के ठूंठों को भी उखाड़ने की अनुमति नहीं होती ।
स्थानीय लोगों का विश्वास है कि किसी भी प्रकार का विध्न स्थानीय देवता को नाराज कर देगा और इसका खामियाजा किसी बीमारी, प्राकृतिक आपदा या फसलांे को नुकसान होने के रूप में भुगतना पड़ेगा । उदाहरण के लिए मेघालय में रहने वाले गारो और खासी जनजाति समुदायों के पवित्र उपवनों में मानव हस्तक्षेप सर्वथा प्रतिबंधित है ।
जहां तक पाबंदियों का सवाल है, यह अलग-अलग उपवनों में अलग-अलग रही है । कुछ वनों में सूखी पत्तियों और गिरे हुए फलों को भी हाथ नहीं लगाया जाता, जबकि कुछ उपवनों में सूखी पत्तियों और मृत लकड़ी व पत्तियां बटोरने की अनुमति होती है । हालांकि इन दोनों ही मामलों में जीवि वृक्षों और उनकी शाखाआें को बिल्कुल भी नहीं काटा जाता । माधव गाडगिल और वी.डी. वर्तक का मानना है कि पवित्र उपवनों की धारणा सामाजिक विकास के उस दौर में उभरी जब मनुष्य शिकार और संग्रहण के चरण में थे । अगर यह सही है तो इसका मतलब है कि पवित्र उपवन सदियों से हमारे बीच रहे हैं, संभवत: छठी सदी से पहले से जब पश्चिमी घाट क्षेत्र में खेती शुरू हुई होगी । पश्चिमी घाट में समृद्ध वर्षा वनों में अद्भूत जैव-विविधता के संरक्षण का श्रेय इन्हीं पवित्र उपवनों को जाता है ।
ऐसा भी विश्वास रहा है कि वन देवता बहुत ही उग्र होते थे । यदि कोई गलती करता था तो नाराज वन देता उसे मौत से कम सजा नहीं देते थे । गाडगिल और वर्तक के अनुसार नाराज वन देवता के रौद्ररूप की कई कहानियां प्रचलित हैं ।
दुर्भाग्य से आज भारत के पवित्र उपवन खतरे में हैं । उनकी संख्या, उनका आकार और उनसे जुडी जैव विविधता बड़ी तेजी से संकुचित होती जा रही है । सदियों पुराने घने पवित्र उपवन विरल जंगलों या झाड़-झंखाड़ में तब्दील होते जा रहे हैं । और ये झाड़-झंखाड़ फिर जल्दी ही ऐसी बंजर जमीनों में बदल जाते हैं, जिनका कोई पर्यावरणीय महत्व नहीं रह जाता ।
देश के जैव विविधता से सम्पन्न इलाकों में ये पवित्र उपवन इन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण है । इन पवित्र उपवनों तक पहुंच और उनमें कोई बाहरी दखल सांस्कृतिक रूप से प्रतिबंधित था । इसी वजह से इनमें उपस्थित प्राकृतिक संसाधनों के मानवीय दोहन का असर भी काफी सीमित रहा । इसी का नतीजा था कि ये पवित्र उपवन जैव विविधता के महत्वपूर्ण खजानों के रूप में विकसित हुए और वहां लम्बे समय तक जटिल एवं विविधतापूर्ण प्राकृतिक प्रक्रियाएं फलती-फूलती रहीं ।
इन पवित्र उपवनों के विनाश के साथ ही जीव-जन्तुआें व वनस्पतियों की अत्यन्त दुर्लभ व स्थानीय प्रजातियां गायब होने लगी हैं, जो इकॉलॉजी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिए दक्षिण केरल के कुलतुपुझा के जंगलों में पाया जाने वाला एक पेड़ सायजीजियम ट्रेवेनकोरिकम का अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त् हो गया है ।
आजादी के बाद से ही पवित्र उपवनों से संबंधित पाबंदिया घटती गई हैं । अब कई उपवनों में सूख चुके पड़ों के ठूठ और सूखी पत्तियां हटाना आम हो गया है, जबकि पहले अधिकांश उपवनों में इसकी अनुमति नहीं होती थी । अब तो ऐसा भी देखने को मिल रहा है कि गांव वाले ईधन के लिए इन उपवनों पर ही निर्भर हो गए हैं । हालांकि कई उपवनों में जीवित वृक्ष काटन की मनाही है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें भी ढील देखने को मिल रही है ।
पवित्र उपवनों का विनाश के लिए कई कारक जिम्मेदार है । इनमें सबसे अहम है इन उपवनों से जुड़ी तथाकथित आस्था प्रणाली का कमजोर होना । स्थानीय समुदायों के युवाआें में पारम्परिक आस्था और धार्मिक अनुष्ठनों के प्रति विश्वास कम हो रहा है । कई मामलों में तो वे वन देवता या वृक्षात्मा जैसी किसी अवधारणा को भी स्वीकारने से इन्कार कर देते है । उनके लिए शिक्षित और आधुनिक होने का मतलब है पवित्र उपवनों के सांस्कृतिक, धार्मिक और पर्यावरणीय महत्व को हाशिए पर रखकर उनका दोहन मात्र आर्थिक लाभों के लिए करना । युवा पीढ़ी चाहती है कि पारम्परकि रूप से इन पवित्र उपवनों पर उसे जो अधिकार मिला है, उसके तहत इन वनों के पेड़ों की लकड़ी को बेचकर उसका पूरा आर्थिक फायदों के फेर में पवित्र उपवनों सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है ।
पारम्परिक मूल्यों का खत्म होना पवित्र उपवनों के लिए एक बड़ा खतरा है । उपवनों से जुड़ी आस्थाआें की अनुपस्थिति में इस तरह के क्षेत्रों का संरक्षण सरकारी दखल के बगैर करना बहुत ही मुश्किल कार्य है । सबसे ज्यादा खतरा तो इनाम उपवनों को है, क्योकि वहां कोई भी वन देवता निवास नहीं करता । लेकिन एक पेंच यह भी है कि अगर इन उपवनों की सुरक्षा का जिम्मा सरकार को दिया जाता है तो इसका नतीजा इन पर पारम्परिक रूप से आश्रित समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करने के रूप में सामने आएगा । बीते कुछ दशकों में ऐसे कई मामले आए है, जब स्थानीय लोगों के वन प्रबंधन संबंधित अधिकार सरकार ने छीने हैं । ऐसा होने के बाद समय के साथ ये पवित्र उपवन या तो तथाकथित विकास कार्यो की भेंट चढ़े या फिर उन पर अतिक्रमण हो गया ।
कई उपवन मंदिरोंया धार्मिक महत्व के स्थलों के नजदीक स्थित हैं । इन उपवनों पर पर्यटन और धार्मिक गतिविधियों का भी विपरीत असर पड़ रहा है ।
इसमें काई दो राय नहीं है कि इन पवित्र उपवनों का जैविक, पर्यावरणीय, सांस्कृतिक, मानव शास्त्रीय और आर्थिक रूप से अत्यधिक महत्व है । लेकिन ये मूल्यावन संसाधन आज चौतरफा दबाव में हैं और उन्हें बचाने के लिए तत्काल कुछ उपाय करने की जरूरत है । इनके संरक्षण के लिए हर राज्य में समग्र योजनाएं बनानी होगी और उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू भीकरना होगा ताकि वनस्पतियों और प्राणियों के इन अद्भूत खजानों को खत्म होने से बचाया जा सके ।
इन योजनाआें के निर्माण के लिए राज्यों में पवित्र उपवनों और उनसे संबंधित जैविक सम्पदा व उनके सांस्कृतिक महत्व के बारे में जानकारी की तो जरूरत होगी ही, साथ ही यह जानना भी जरूरी होगा कि कितने प्रबंधकीय हस्तक्षेप की आवश्कता है । पवित्र उपवनों के संरक्षण के लिए सरकारी पहल अब जरूरी हो गई है ।
भारत में स्थानीय स्तर पर ढेरों अलग-अलग समुदाय बसे हैं, जिनकी अपनी आस्थाएं और परम्पराएं हैं । इस कारण यहां एक ही बहुत ही बहुुमूल्य पारम्परिक ज्ञान का आधार रहा है । देश में अब भी प्रकृति की पूजा करने के कई रूप विद्यमान हैं और ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते आए हैं । नरकट (बेंत की जाति का एक पौधा) से लेकर अंजीर और केंकड़े से लेकर मोर व बाघ तक को आज भी कई आदिम समाजों में पूजा जाता है । पवित्र उपवनों में प्राकृतिक या लगभग प्राकृतिक वनस्पतियां होती हैं, जिनका संरक्षण स्थानीय समुदाय कुछ सामाजिक प्रतिबंधों के जरिए करते हैं । इनमें इन समुदायों के आध्यात्मिक और पारिस्थितिक लोकाचार प्रतिबिंबित होते हैं ।
ये पवित्र उपवन अंटार्कटिका को छोड़कर अन्य तमाम महाद्वीपों में पाए गए हैं । भारत में इस तरह के स्थलो की संख्या ३८ है जो कि अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक है । वैसे कुछ अन्य अध्ययन कहते हैं कि भारत में ऐसे उपवन स्थलों की संख्या कही ज्यादा है ।
दुनिया भर के कई पारंपरिक समाजों में प्राकृतिक परिवेश के साथ मनुष्य के रिश्तों पर वर्जनाआें या प्रतिबंधों का प्रभाव रहा है । संसार की विभिन्न संस्कृतियों में ऐसे प्रतिबंधों का अस्त्तिव रहा है जिनसे पर्यावरण के साथ मनुष्य के संबंधों का संचालन/नियमन होता रहा है । ये इस बात की मिसाल हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध सरकारी कानून और नियमों की बनिस्बत सामाजिक रिवाजों के आधार पर कहीं बेहतर ढंग से संचालित किए जा सकते हैं । माना जाता है कि किसी भी उपवन में फलने-फूलने वाली तमाम वनस्पतियां, जिनमेंझाडियां और लताएं भी शामिल हैं, वहां शासन करने वाले वन देवता की पनाह में रहती है । अधिकांश उपवनों में तो पेड़ों के ठूंठों को भी उखाड़ने की अनुमति नहीं होती ।
स्थानीय लोगों का विश्वास है कि किसी भी प्रकार का विध्न स्थानीय देवता को नाराज कर देगा और इसका खामियाजा किसी बीमारी, प्राकृतिक आपदा या फसलांे को नुकसान होने के रूप में भुगतना पड़ेगा । उदाहरण के लिए मेघालय में रहने वाले गारो और खासी जनजाति समुदायों के पवित्र उपवनों में मानव हस्तक्षेप सर्वथा प्रतिबंधित है ।
जहां तक पाबंदियों का सवाल है, यह अलग-अलग उपवनों में अलग-अलग रही है । कुछ वनों में सूखी पत्तियों और गिरे हुए फलों को भी हाथ नहीं लगाया जाता, जबकि कुछ उपवनों में सूखी पत्तियों और मृत लकड़ी व पत्तियां बटोरने की अनुमति होती है । हालांकि इन दोनों ही मामलों में जीवि वृक्षों और उनकी शाखाआें को बिल्कुल भी नहीं काटा जाता । माधव गाडगिल और वी.डी. वर्तक का मानना है कि पवित्र उपवनों की धारणा सामाजिक विकास के उस दौर में उभरी जब मनुष्य शिकार और संग्रहण के चरण में थे । अगर यह सही है तो इसका मतलब है कि पवित्र उपवन सदियों से हमारे बीच रहे हैं, संभवत: छठी सदी से पहले से जब पश्चिमी घाट क्षेत्र में खेती शुरू हुई होगी । पश्चिमी घाट में समृद्ध वर्षा वनों में अद्भूत जैव-विविधता के संरक्षण का श्रेय इन्हीं पवित्र उपवनों को जाता है ।
ऐसा भी विश्वास रहा है कि वन देवता बहुत ही उग्र होते थे । यदि कोई गलती करता था तो नाराज वन देता उसे मौत से कम सजा नहीं देते थे । गाडगिल और वर्तक के अनुसार नाराज वन देवता के रौद्ररूप की कई कहानियां प्रचलित हैं ।
दुर्भाग्य से आज भारत के पवित्र उपवन खतरे में हैं । उनकी संख्या, उनका आकार और उनसे जुडी जैव विविधता बड़ी तेजी से संकुचित होती जा रही है । सदियों पुराने घने पवित्र उपवन विरल जंगलों या झाड़-झंखाड़ में तब्दील होते जा रहे हैं । और ये झाड़-झंखाड़ फिर जल्दी ही ऐसी बंजर जमीनों में बदल जाते हैं, जिनका कोई पर्यावरणीय महत्व नहीं रह जाता ।
देश के जैव विविधता से सम्पन्न इलाकों में ये पवित्र उपवन इन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण है । इन पवित्र उपवनों तक पहुंच और उनमें कोई बाहरी दखल सांस्कृतिक रूप से प्रतिबंधित था । इसी वजह से इनमें उपस्थित प्राकृतिक संसाधनों के मानवीय दोहन का असर भी काफी सीमित रहा । इसी का नतीजा था कि ये पवित्र उपवन जैव विविधता के महत्वपूर्ण खजानों के रूप में विकसित हुए और वहां लम्बे समय तक जटिल एवं विविधतापूर्ण प्राकृतिक प्रक्रियाएं फलती-फूलती रहीं ।
इन पवित्र उपवनों के विनाश के साथ ही जीव-जन्तुआें व वनस्पतियों की अत्यन्त दुर्लभ व स्थानीय प्रजातियां गायब होने लगी हैं, जो इकॉलॉजी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिए दक्षिण केरल के कुलतुपुझा के जंगलों में पाया जाने वाला एक पेड़ सायजीजियम ट्रेवेनकोरिकम का अस्तित्व पूरी तरह से समाप्त् हो गया है ।
आजादी के बाद से ही पवित्र उपवनों से संबंधित पाबंदिया घटती गई हैं । अब कई उपवनों में सूख चुके पड़ों के ठूठ और सूखी पत्तियां हटाना आम हो गया है, जबकि पहले अधिकांश उपवनों में इसकी अनुमति नहीं होती थी । अब तो ऐसा भी देखने को मिल रहा है कि गांव वाले ईधन के लिए इन उपवनों पर ही निर्भर हो गए हैं । हालांकि कई उपवनों में जीवित वृक्ष काटन की मनाही है, लेकिन धीरे-धीरे इसमें भी ढील देखने को मिल रही है ।
पवित्र उपवनों का विनाश के लिए कई कारक जिम्मेदार है । इनमें सबसे अहम है इन उपवनों से जुड़ी तथाकथित आस्था प्रणाली का कमजोर होना । स्थानीय समुदायों के युवाआें में पारम्परिक आस्था और धार्मिक अनुष्ठनों के प्रति विश्वास कम हो रहा है । कई मामलों में तो वे वन देवता या वृक्षात्मा जैसी किसी अवधारणा को भी स्वीकारने से इन्कार कर देते है । उनके लिए शिक्षित और आधुनिक होने का मतलब है पवित्र उपवनों के सांस्कृतिक, धार्मिक और पर्यावरणीय महत्व को हाशिए पर रखकर उनका दोहन मात्र आर्थिक लाभों के लिए करना । युवा पीढ़ी चाहती है कि पारम्परकि रूप से इन पवित्र उपवनों पर उसे जो अधिकार मिला है, उसके तहत इन वनों के पेड़ों की लकड़ी को बेचकर उसका पूरा आर्थिक फायदों के फेर में पवित्र उपवनों सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है ।
पारम्परिक मूल्यों का खत्म होना पवित्र उपवनों के लिए एक बड़ा खतरा है । उपवनों से जुड़ी आस्थाआें की अनुपस्थिति में इस तरह के क्षेत्रों का संरक्षण सरकारी दखल के बगैर करना बहुत ही मुश्किल कार्य है । सबसे ज्यादा खतरा तो इनाम उपवनों को है, क्योकि वहां कोई भी वन देवता निवास नहीं करता । लेकिन एक पेंच यह भी है कि अगर इन उपवनों की सुरक्षा का जिम्मा सरकार को दिया जाता है तो इसका नतीजा इन पर पारम्परिक रूप से आश्रित समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करने के रूप में सामने आएगा । बीते कुछ दशकों में ऐसे कई मामले आए है, जब स्थानीय लोगों के वन प्रबंधन संबंधित अधिकार सरकार ने छीने हैं । ऐसा होने के बाद समय के साथ ये पवित्र उपवन या तो तथाकथित विकास कार्यो की भेंट चढ़े या फिर उन पर अतिक्रमण हो गया ।
कई उपवन मंदिरोंया धार्मिक महत्व के स्थलों के नजदीक स्थित हैं । इन उपवनों पर पर्यटन और धार्मिक गतिविधियों का भी विपरीत असर पड़ रहा है ।
इसमें काई दो राय नहीं है कि इन पवित्र उपवनों का जैविक, पर्यावरणीय, सांस्कृतिक, मानव शास्त्रीय और आर्थिक रूप से अत्यधिक महत्व है । लेकिन ये मूल्यावन संसाधन आज चौतरफा दबाव में हैं और उन्हें बचाने के लिए तत्काल कुछ उपाय करने की जरूरत है । इनके संरक्षण के लिए हर राज्य में समग्र योजनाएं बनानी होगी और उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू भीकरना होगा ताकि वनस्पतियों और प्राणियों के इन अद्भूत खजानों को खत्म होने से बचाया जा सके ।
इन योजनाआें के निर्माण के लिए राज्यों में पवित्र उपवनों और उनसे संबंधित जैविक सम्पदा व उनके सांस्कृतिक महत्व के बारे में जानकारी की तो जरूरत होगी ही, साथ ही यह जानना भी जरूरी होगा कि कितने प्रबंधकीय हस्तक्षेप की आवश्कता है । पवित्र उपवनों के संरक्षण के लिए सरकारी पहल अब जरूरी हो गई है ।
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