रविवार, 19 जनवरी 2014

 जनजीवन
घटते गांव से गहराता खाद्य संकट
रिचर्ड महापात्र

    तेजी से बढ़ते शहरीकरण की वजह से भारत की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ गई है। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार देश के ६४० जिलों में से अब मात्र १०० जिले ऐसे बचे हैं, जिनमें ग्रामीण जनसंख्या अधिक है । शहरीकरण जहां खेती की जमीनों को लील रहा है । वहीं दूसरी और बढ़ती जनसंख्या से खाद्य पदार्थों की मांग भी बढ़ती जा रही  है । साथ ही शहरी उपभोक्ताआें की खाद्य आवश्यकताओं की प्राथमिकता भी अलग है ।
    अफसोस इस बात का है कि हमारे राजनीतिक विमर्श में इस बिंदु की अनदेखी की जा रही  है । भारत में ग्रामीण शहरी विभाजन पर चर्चा आम बात है । यदि अर्थव्यवस्था के हिसाब से बात करें तो यह विभाजन राजनीतिज्ञों को अपने-अपने तर्क तैयार करने में मददगार सिद्ध होता है । पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव की घोषणा होते ही अनपेक्षित रूप से ग्रामीण शहरी विभाजन नामक इस प्रक्रिया में आखिरी दाव ने अपनी पवित्रता खो दी है । 
     सकल घरेलू उत्पाद सबसे ताकतवर राजनीतिक तर्क के रूप में उभरा है । बहुत जोर शोर से यह तर्क दिया जा रहा है कि ग्रामीण मतदाताओं की आकांक्षाएं भी शहरी मतदाताओं जैसी ही हैं ।  इससे ग्रामीण बनाम शहरी बहस ही पटरी से उतर गई है । राजनीतिक बहस इशारा कर रही है कि आर्थिक वृद्धि की अंतिम राजनीतिक पहल होगी ।
    सन् २०११ की जनगणना से सामने आया है कि जिस तेजी से भारत में शहरीकरण हो रहा है वह देश के इतिहास में सबसे तीव्र है । व्यापक ग्रामीण क्षेत्र शहरी क्षेत्रों में बदल गया, जिसके परिणाम स्वरूप यह निश्चित तौर पर माना जा सकता है कि ग्रामीण आकांक्षाओं की दिशा बदली है और वे शहरी मध्य वर्ग जैसी प्रतीत होने लगी है । भारत की जनगणना के अनुसार भारत में किसानों के बनिस्बत खेतिहर मजदूरों  की संख्या अधिक है । यह सब कुछ इस तथ्य के बावजूद है कि परिचालन या खेती योग्य भूमि में तो वृद्धि हुई है लेकिन इसी के समानांतर उत्पादन में नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है ।
    इसी तरह की प्रवृत्ति आर्थिक रूप से कमजोर अनुसूचित जाति एवं जनजाति समूहों में भी देखी गई है । तो ऐसे में राजनीतिज्ञ ऐतिहासिक ग्रामीण-शहरी विभाजन के नाम पर मत क्यों मांग रहे हैं । इसके बजाय देखें तो सरकारी दस्तावेजों के मद्देनजर राजनीतिज्ञों को बिना किसी झिझक के दोनों समूहों के बीच की खाई को पाटने के लिए शहरीकरण को प्रोत्साहित करना चाहिए । यही वह बिंदु है जहां से अब गलती साफ नजर आने लगती है ।
    इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत परिवर्तन काल में है, लेकिन इसके बावजूद इसका शहरीकरण का सफर पूरा होने में अभी काफी वक्त लगेगा । इस संधिकाल को लेकर काफी सारे सवाल सामने आ रहे हैं । लेकिन इसका एक मूलभूत और शहरी एवं ग्रामीण दोनों के लिए समान विध्वंसक परिणाम यह है कि तेजी से हो रहा शहरीकरण किस प्रकार भारत के खाद्य उत्पादन को प्रभावित करेगा ।
    इस प्रक्रिया से खाद्य उत्पादन के लिए प्रयोग में आने वाली भूमि बड़ी मात्रा में शहरी इस्तेमाल की भेंट चढ़ जाएगी । ठ ीक इसी समय शहरीकरण की वजह से खाद्य पदार्थों खासकर दूध एवं सब्जी जैसे अधिक कीमत वाले खाद्य पदार्थों की मांग में काफी वृद्धि दर्ज की गई है । विवाद एकदम  सामान्य है, हमें खाद्यान्न उत्पादन हेतु आनुपातिक मात्रा में भूमि चाहिए । यह परिवर्तन किस प्रकार किसानों को प्रभावित करेगा या दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे ग्रामीण क्षेत्र जो एकसमय मुख्यतया बड़ी मात्रा में कृषि उत्पादन करते थे उन्हें प्रभावित करेगा ? क्या इस परिवर्तन के कोई सकारात्मक प्रभाव भी हैं ?
    यह सबकुछ किसी क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करता   है । सबसे पहले देखते हैं कि किस  प्रकार शहरीकरण, ग्रामीण क्षेत्र जो कि खाद्य उत्पादन का मुख्य क्षेत्र है को प्रभावित करता है । भारत में अधिक ग्रामीण जनसंख्या वाले ५० शीर्ष जिले अधिकांशत: भारत के पूर्वी हिस्सों एवं आंशिक तौर पर उत्तरप्रदेश और बिहार में स्थित हैं । इनमें से दो तिहाई में अति शहरीकरण हो रहा    है । इन जिलों में पारंपरिक तौर पर स्थानीय फसलें जैसे मोटे अनाज का भोजन में उपयोग होता रहा है, लेकिन शहरी आबादी बढ़ने से इनकी खान-पान की आदतों में भी परिवर्तन   आया । अब यहां सब्जियों, दूध एवं पोल्ट्री उत्पादों की मांग बढ़ गई है ।
    फसल उत्पादन चक्र में परिवर्तन कर किसानों का एक वर्ग लाभान्वित भी हुआ है । लेकिन फसल चक्र में हुए परिवर्तन के स्थानीय खाद्य उपलब्धता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं । यह बात उभर कर आ रही है कि मुख्य शहरी केन्द्रों के पिछवाड़े आने वाले ग्रामीण जिलों के फसल चक्र में आधारभूत परिवर्तन आया है । वहां किसानों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई है जिसने पारंपरिक फसलों से नाता तोड़ लिया है और अब वे खाद्यान्नोंके उत्पादक न होकर उसके खरीददार बन गए हैं । भोजन का अधिकार अभियान के अनेक कार्यकर्ताओं ने इंगित किया है कि हालांकि भोजन तो उपलब्ध है कि पोषण असुरक्षा पैदा हो गई  है ।
    ध्यान देने योग्य बात है बहुत तेजी से शहरीकरण की गिरफ्त में आते ये अधिकांश ग्रामीण जिले अत्यंत कुपोषित भी हैं । तेजी से शहरीकृत होते ये अधिकांश जिले भारत के वर्षा पोषित क्षेत्रों में हैं । यही वो क्षेत्र हैं जिन्हें भारत की खाद्य उत्पादन सुरक्षा हेतु चिन्हित किया गया है क्योंकि सिंचित क्षेत्र कमोवेश उत्पादन के शीर्ष पर पहुंच चुके हैं । इन जिलों में अब खाद्य उत्पादन में कमी का अर्थ है भारत की भविष्य की खाद्य उत्पादन रणनीति भी दांव पर है ।
    वर्तमान राजनीतिक विमर्श में इस खतरे की गूंज बहुत कम सुनाई दे रही है । यह इसलिए अत्यंत विरोधाभासी प्रतीत होता है क्योंकि भारत के दो तिहाई संसदीय क्षेत्र ग्रामीण हैं और ये हर हालत में इस परिवर्तन से गुजर रहे हैं । इस विद्यमान स्थिति को लेकर पहली बात यह कि या तो राजनीतिज्ञ आर्थिक वृद्धि को ग्रामीण मतदाताओं के गले उतारने की बात पर पहले ही एकमत हो चुके हैं । या वे इस परिवर्तन के समय में उनकी मदद कर पाने में असहायता महसूस कर रहे हैं । राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर संसद में हुई बहस के दौरान एक भी सदस्य ऐसा नहीं था, जिसने भारत में खाद्य सुरक्षा पर आसन्न खतरे को स्वीकार न किया हो । लेकिन किसी ने यह नहीं देखा कि यह शहरीकरण का परिणाम है । देश में केवल १०० जिले ऐसे बचे हैं, जिनमें शहरी के बजाए ग्रामीण जनसंख्या अधिक है । ये अब कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के जीवित फाजिल्स की तरह हैं । इस बात की पूरी संभावना है कि यही वे जिले हैं, जहां से भारत को भोजन मिल पाएगा । यह देखना रुचिकर होगा कि ग्रामीण शहरी विभाजन पर वर्तमान में पर चल रही राजनीतिक बहस को मतदाता किस तरह से देखते हैं ।

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