रविवार, 19 जनवरी 2014

हमारा भूमण्डल
जलवायु पर नया समझौता
मोर्टिन खोर

    पोलैंड के वारसा शहर में पिछले दिनों समाप्त हुए संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु सम्मेलन के अंत में देशों के बीच हुए गहन विचार-विमर्श के पश्चात समुद्री तूफानों, बाढ़, अकाल और जलवायु परिवर्तन के अन्य प्रभावों से पीड़ितों के लिए नई प्रणाली बनाए जाने पर सहमति बन गई      है ।
    इस ऐतिहासिक फैसले ने मौसम संबंधी अतिवादी घटनाओं और शनै:-शनै: होने वाली खतरनाक घटनाओं से प्रभावित देशों को मदद करने के  प्रयासों के लिए अंतरराष्ट्रीय समन्वय हेतु नया मार्ग खोल दिया  है । इस सम्मेलन के प्रारंभ होने के ठीक पहले फिलीपींस के शहरों में आए समुद्री तूफान की वजह से हुई ५००० मौतों और विनाश की धुंधली पृष्ठभूमि ने इसमें भागीदारी करने वालों को ``हानि और विध्वंस`` से निपटने की प्रणाली बनाने में मदद की थी ।
     इस नई प्रणाली से उम्मीद की गई है कि वह देशों को तकनीकी सहयोग उपलब्ध कराकर संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के साथ ही अन्य संगठनों के भीतर बेहतर समन्वय का प्रयास करेगी । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह जलवायु परिवर्तन प्रभावों से संबंधित हानि एवं विध्वंस से निपटने में धन इकट्ठा करने, तकनीक एवं क्षमता निर्माण गतिविधियों में भी मदद करेगी । अभी भी आधिकारिक संयुक्त राष्ट्र मानवीय एवं विध्वंस सम्मेलन अपनी संबंधित एजेंसियों के साथ ही साथ स्वयंसेवी समूहों जैसे रेडक्रॉस, मेडिसिन सेंस फ्रंटियर्स एवं आक्सफेम जब भी कोई विध्वंस जैसे फिलिपींस का समुद्री तूफान, २००४ की एशियाई सुनामी या हैती में   भूकंप आता है तो सकिय हो जाते  हैं ।
    धन भी उसी समय इकट्ठा किया जाता है जब ऐसी घटना घटित होती है और ऐसे कार्य में काफी समय भी लगता है । इतना ही नहीं प्रभावित देश तब तक इतने बर्बाद हो चुके होते हैं या पहले से ही गरीब रहते हैं कि वे त्वरित प्रतिक्रिया भी नहीं दे     पाते ।
    बात फिलीपींस के समुद्री तूफान की हो या एशिया में आई सुनामी की, पीड़ितों को भोजन, स्वास्थ्य सेवाएं और रहने का स्थान उपलब्ध करवाने में कई दिन लग  गए । इतना ही नहीं तहस-नहस हुए घरों, शहरों और खेतों के पुननिर्माण में भी बरसों-बरस लग जाते हैं । हानि एवं नुकसान प्रणाली का अर्थ है संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन जो कि जलवायु परिवर्तन से निपटने वाली विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई है के भीतर व्याप्त सांगठानिक एवं वित्तीय खाईयों को पाटना । संयुक्त राष्ट्र का जलवायु परिवर्तन पर ढांचागत सम्मेलन वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने या जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने की तैयारियों जैसे समुद्री किनारों पर दीवारों का निर्माण एवं ड्रेनेज प्रणाली के लिए धन उपलब्ध करवाता रहा  है ।
    लेकिन अभी तक इसे देशों को हानि एवं विध्वंस से निपटने में मदद करने संबंधी स्पष्ट अधिकार प्राप्त नहीं है । इस नई प्रणाली से संगठनों में नई ऊर्जा का संचार होगा और वे सम्मेलन एवं अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर बेहतर राहत पहुंचा पाएंगे । हाल के वर्षों में प्राकृतिक विध्वंसों से होने वाला नुकसान ३०० से ४०० अरब डॉलर तक पहुंच गया है, जो कि एक दशक पूर्व २०० अरब डॉलर था ।
    सभागृह में प्रतिभागी तब खुशी से झूम उठे जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से होने वाली हानि व नुकसान से संबंधित ``वारसा अंतरराष्ट्रीय प्रणाली`` के गठन की घोषणा अंतिम समय में हुई बातचीत के माध्यम से संभव हो पाई । इस निर्णय ने दो सप्ताह से जारी सम्मेलन पर छाई निराशा को दूर कर दिया । इसके अलावा यहां से दो अन्य अच्छी खबरें भी मिलीं । पहला वन संबंधित गतिविधियों से होने वाले उत्सर्जन में कमी (इसे आर.ई.डी.डी. प्लस के  नाम से भी जाना जाता है) और दूसरी विकसित देशों से उन राष्ट्रो के लिए १० करोड़ डॉलर की मदद उन राष्ट्रों के लिए लेना जिनके संसाधन कार्बन मूल्यों में आई असाधारण कमी से एकाएक कम हो गए हैं ।
    वहीं विषाद की मुख्य वजह है आर्थिक मोर्चे पर उन्नति का न होना । यानि किस तरह विकासशील देशों द्वारा जलवायु संंबंधी कार्य हाथ में लेने हेतु पूर्व में तयशुदा प्रति वर्ष २०० अरब डॉलर की रकम सन् २०२० तक इकट्ठा कर पाने की मुहिम चल पाएगी । अभी तक तो नाम मात्र का धन इकट्ठा हुआ है और सन् २०२० तक इस लक्ष्य को पाने की कोई रणनीति भी नहीं बनाई है । इन दो हफ्तों में काफी सारी ऊर्जा उस विमर्श पर केंद्रित रही कि आगामी दो वर्षों (डरबन मंच) तक वार्ताओं को किस प्रकार आगे ले जाया जा सके, जिससे दिसंबर २०१५ में जलवायु परिवर्तन पर एक नया समझौता हो पाए ।
    कुछ अमीर देश विकसित व विकासशील देशों के मध्य उत्सर्जन के अंतर को लेकर अपने वायदों को तोड़ने पर उतारु हैं । वहीं दूसरी ओर अनेक विकासशील देश विकसित देशों (जिनके ऊपर उच्च् वैधानिक प्रतिबद्धता है।) और विकासशील देशों की बढ़ती कार्यवाही (जिसे वित्त एवं तकनीक के माध्यम से मदद पहुंचाई जानी है) पर राजी न हो पाने की असमर्थता के चलते डरबन मंच कमोवेश धराशायी होने की कगार पर पहुंच गया था । आखिरी क्षणों में राष्ट्र एक तटस्थ शब्द पर तैयार हुए कि किस तरह सभी देश भविष्य में विमर्श को जारी रखने में अपना योगदान (बजाए प्रतिबद्धता के) देते रहेंगे ।
    विभिन्न देशों के मध्य अब लड़ाई इस बात पर है कि वे अगले वर्ष होने वाली गंभीर चर्चाओं में किस प्रकार उत्सर्जन समाप्त करने और अनुकूलन गतिविधियों में `योगदान` करेंगे और इस हेतु वित्त एवं तकनीक जुटा पाएंगे ।

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