गुरुवार, 10 जुलाई 2014

जनजीवन
अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे
शैलेन्द्र चौहान

    पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टाकहोम (सीडन) में सन् १९७२ में ०५ से १६ जून तक विश्व भर के देशोंका पहला अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था । इसमें ११९ देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया । इसे स्टाकहोम कान्फ्रेंस के नाम से भी जाना जाता है ।
    पर्यावरण संरक्षण के कह बिन्दु है जैसे पर्यावरण प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण और उपशमन हेतु राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना । पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित  करना । पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित अधिनियमों के अंतर्गत राज्य-सरकारों, अधिकारियों और संबंधितों के काम में समन्वय स्थापित करना । ऐसे क्षेत्रों का परिसीमन करना, जहाँ किसी भी उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियां संचालित न की जा सकें आदि । उक्त अधिनियम का उल्लंघन करने वलों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है । 
     वर्तमान में पर्यावरण के प्रति हमारा व्यवहार इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने उदासीन और संवेदन शून्य हैं ? आज हमारे पास शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है । जंगल कटते जा रहे हैं, जल के स्त्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी विलीन होते जा रहे हैं । औद्योगीकरण ने खेत-खलिहान और वन-प्रान्तर निगल लिये । वन्य जीवों का आशियाना छिन गया । कल-कारखाने धुआं उगल रह हैं और प्राणवायु को दूषित कर रहे हैं । यह सब खतरे की घंटी है ।
    भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है । अब वह भी शहरों में पलायन हेतु आतुर है जबकि शहरी जीवन नारकीय हो चला है । वहाँ हरियाली का नामोनिशान नहीं है,बहुमंजिली इमारतों के जंगल पसरते जा रहे हैं । शहरी घरों में कुएं नही होते, पानी के लिए बाहरी स्त्रोत पर निर्भर रहना पड़ता है । गांवों से पलायन करने वाली झुग्गियां शहरों समस्याएं बढ़ाती हैं । यदि सरकार गांवों को सुविधा-सम्पन्न बनाने की ओर ध्यान देतो वहाँ से तोगों का पलायन रूक सकता है । वहाँ अच्छी सड़कें, आवागमन के साधन, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल व अन्य आवश्यक सुविधाएं सुलभ होंतथा शासन की कल्याणकारी नीतियों और योजनाआें का लाभ आमजन को मिलने का पूरा प्रबंध हो तो लोग पलायन क्यों करेंगे ? गांवों में कृषि कार्य अच्छे से हो, कुएं-तालाब, बावड़ियों की सफाई यथा-समय हो, गंदगी से बचाव के उपाय किये जाएँ। संक्षेप में यह कि वहाँ ग्रामीण विकास योजनाआें का ईमानदारी-पूर्वक संचालन हो तो ग्रामों का स्वरूप निश्चय ही बदलेगा और वहाँ के पर्यावरण से प्रभावित होकर शहर से जाने वाले नौकरी-पेशा भी वहाँ रहने को आतुर होंगे ।
    पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है इसलिए पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त् हो गयी हैं । जंगलों से शेर, चीते, बाघ आदि गायब हो चले   हैं । भारत में ५० करोड़ से भी अधिक जानवर हैं जिनमें से पांच करोड़ प्रति वर्ष मर जात हैं और साढ़े छ: करोड़ नये जन्म लेते हैं । वन्य प्राणी प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में सहायक होते हैं । उनकी घटती संख्या पर्यावरण के लिए घातक हैं । जैसे गिद्ध जानवर की प्रजाति वन्य जीवन के लिए वरदान है पर अब ९० प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं इसीलिए देश के विभिन्न भागों में सड़े हुए जानवर दिख जाते हैं । जबकि औसतन बीस मिनट में ही गिद्धों का झुण्ड एक बड़े मृत जानवर को खा जाता था ।
    पर्यावरण की दृष्टि से वन्य प्राणियों की रक्षा अनिवार्य है । इसके लिए सरकार का वन-संरक्षण और वनों के विस्तार की योजना पर गंभीरता से कार्य करना होगा । वनोंसे लगे हुए ग्रामवासियों को वनीकरण के लाभ समझा कर उनकी सहायता लेनी होगी तभी हमारे जंगल नये सिरे से विकसित हो पाएंगे जिसकी नितांत ट्ठावयकता  है । सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर है तथा विश्व का प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से प्रभावित होता है । इसलिए और भी आवश्यक हो जाता है कि प्रकृति की इन सभी वस्तुआेंके  बीच आवश्यक संतुलन को बनाये रखा जाये ।
    इस २१वीं सदी में जिस प्रकार से हम औद्योगिक विकास ओर भौतिक समृद्धि की और बढ़े चले जा रहे है, वह पर्यावरण संतुलन को समाप्त् करता जा रहा है । अनेकानेक उद्योग-धंधों, वाहनों तथा अन्यान्य मशीनी उपकरणों द्वारा हम हर घड़ी जल और वायु को प्रदूषितकरते रहते हैं । वायुमंडल में बड़े पैमाने पर लगातार विभिन्न घटक औद्योगिक गैसों के छोड़े जाने से पर्यावरण संतुलन पर अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ता रहता है । मुख्यत: पर्यावरण के प्रदूषित होने के मुख्य कारण है - निरंतर बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण, वाहनों द्वारा छोड़ा जाने वाला धुआं, नदियों, तालाबों में गिरता हुआ कूड़ा-कचरा, वनों का कटान, खेतों में रसायनों का असंतुलित प्रयोग, पहाड़ों में चट्टानों का खिसकाना, मिट्टी का काटन आदि ।
    सारांश में औद्योगिक विकास, गरीबी और अन्य विकास से उत्पन्न वातावरण, बदलता हुआ सोचने-समझने का ढंग जिम्मेदार है । प्रत्येक कार्य करने से पूर्व हम ये सोचते हैं कि इसके करने से हमें क्या लाभ होगा, जबकि हमें ये सोचना चाहिए कि हमारे इस कार्य से किसी को कोई नुकसान तो नहीं होगा । धरती, नदी, पहाड़, मैदान, वन, पशु-पक्षी, आकाश, जल, वायु आदि सब हमें जीवनयापन में सहायता प्रदान करते है । ये सब हमारे पर्यावरण के अंग है । अपने जीवन के सर्वस्व पर्यावरण की रक्षा करना, उसको बनाए रखना हम मानवों का कर्तव्य होना चाहिए । असलियत तो यह है कि स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है और पर्यावरण प्रदूषण जीवन के अस्त्तिव के सम्मुख प्रश्नचिन्ह लगा देता है ।
    पर्यावरण जीवन के प्रत्येक पक्ष से जुड़ा हुआ है । इसीलिए यह अति आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे और पर्यावरण का स्थान जीवन की प्राथमिकताआें में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्योंा में रहे, लेकिन अफसोसकि हम अब भी चेत नहीं रहे है ।

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