गुरुवार, 10 जुलाई 2014

सामयिक
प्रकृति के साथ छेड़छाड घातक है
सुन्दरलाल बहुगुणा
    यदि भारत को अपना वर्चस्व कायम रखना है तो उसे अतीत की ओर देखना चाहिए अर्थात उसे पुन: वही जीवन पद्धति अपनानी चाहिए जो उसे अरण्य संस्कृति से प्राप्त् हुई थी । जिसमें चिन्तन करने और नए विचारों को प्राप्त् करने के लिए, खुले आसमान के नीचे, पेड़ों के नीचे और नदी के किनारे बैठकर अध्ययन किया जाता था ।
    कोई भी ऋषि नदी के किनारे या पहाड़ की उस चोटी पर बैठकर ध्यान लगाता है जहां से प्राकृतिक सुंदरता अर्थात  जीवंत प्रकृति के दर्शन होते है । इस प्रकार प्रकृति से हमेंस्थाई मूल्यों की प्रािप्त् होती है । आज हमें दो-तीन चीजों की आवश्यकता है पहली तो अपने आज को अपने अतीत से जोड़ने की, जिस प्रकार कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों के साथ जुड़ा होता है और अगर उसे जड़ से अलग कर दिया जाय तो वह सूख जाता है उसी तरह किसी भी समाज की जड़ उसका अतीत होता है और अगर उसको उसके अतीत से काट दिया जाए तो वह भी तरक्की नहीं कर पाता है । 
   दूसरी, बात मनुष्य को जिंदा रहने के सभी साधन प्रकृति से मिलते हैं । प्रकृति को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और ऑक्सीजन कमरे के अंदर पैदा नहीं हो सकती है । उसे जल की भी आवश्यकता होती है । हर जगह का पानी जिंदा नहीं रहता है जैसे नल के अंदर गया हुआ पानी स्वछन्द रूप से खासकर पहाड़ी नदी में बहने वाले जल की अपेक्षा कम स्वच्छ होता है, क्योंकि वह पानी पहाड़ों से टकरा-टकराकर अपने को स्वच्छ रखता है और उसी पानी को जीवन्त कहा जाता है ।
    शायद दसीलिए हमारे यहां हरिद्वार में गंगा में श्राद्ध तर्पण करने के पीछे भी यही सोच काम करती हो, क्योंकि गंगा, अपना हरिद्वार तक का सफर पहाड़ी क्षेत्र में बहकर तय करती हे उसके बाद उसका पानी, उसकी गति कम हो जाती है और गति कम होते ही वह प्रदूषण का घर बन जाती है । इस प्रकार दूसरा तत्व स्वच्छ पानी है ।
    जीने के लिए तीसरा साधन अन्न है और वृक्ष हमेंफलों के द्वारा पोषण देते हैं । हम वृक्षों को इसलिए उगाते हैं ताकि हमें उनसे अन्न की प्रािप्त् हो । शुरू में अन्न, मनुष्य की खुराक नहीं थी । शुरू-शुरू में हम पशुपालक थे और पशुआें के साथ अपना जीवन यापन करते हुए फलों का सेवन करते थे, लेकिन उस दौरान स्त्रियों को काफी कष्ट होता था क्योंकि उनके साथ रहने वाले पशु सब घास तथा अन्य पौधों को चर लिया करते थे जिससे फिर उस स्थान पर हरियाली की कमी हो जाती थी और उन्हें उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाना होता था इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे घास के बीजों को पकाकर खाना शुरू किया और इस तरह मनुष्य ने अन्न पैदा करना, उसे संग्रह करना और उसे पका कर खाना शुरू कर दिया ।
    जब से मनुष्य ने अन्न की खेती करना और उसे संग्रह करना शुरू किया तभी से दुनिया में अधिकांश लड़ाइयां शुरू होने लगी । अब समय आ गया है जब पूरी मनुष्य जाति को अपने भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचना होगा । सबसे पहले तो हमें आधुनिक युग के नए अवतार प्रदूषण का हल निकालना होगा । आज पूरे विश्व में प्रदूषण ने अपना जाल इस तरह से बिछाया हुआ है जबकि आज से कुछ साल पहले तक लोगों ने प्रदूषण शब्द के बारे में सुना तक भी नहीं      था ।
    आज समाज की प्रगति के आगे कई समस्याएं मुंह बाएं खड़ी है उनमें पहली है, युद्ध का भय क्योंकि आज गरीब से गरीब देश भी अपनी अधिकांश कमाई अनुत्पादक कार्योंा जैसे हथियारों को जमा करने और सेनाआें पर खर्च करने में लगा रहा है, इस कारण से वहां की सामान्य जनता को नुकसान हो रहा है । समाज का दूसरा बड़ा खतरा प्रदूषण है । आज आबादी बढ़ने के साथ-साथ नागरिक सुविधाएं भी बढ़ रही हैं जिससे धूल, धुआं और शोर जैसे तीन दैत्य हमारे देश को प्रदूषित करते जा रहे हैं । हवा में बढ़ते धूल और धुएं के कारण पत्तों के ऊपरभी धूल जमती जा रही है, जिससे हमें सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी है और हम लोग कई सांस संबंधी समस्याआें से ग्रस्त होते जा रहे हैं ।
    आज भी मुझे सन् ७२ में संयुक्त राष्ट्र विज्ञान परिषद् की पत्रिका में छपे एक कार्टून की याद आती है जिसमें, एक बौना आदमी एक बड़े पेड़ को अपनी बांह के बीच में पकड़कर दौड़े जा रहा है, दौडे जा रहा है किसी ने उससे पूछा - कहां जा रहे हो  ? जरा ठहरो .... उसने कहा, देखता नहीं है कि सीमेंट की सड़क मेरा पीछा करती आ रही    है । इस प्रकार काफी सालों से मनुष्य को सभी तरह की सुख-सुविधाएं प्रदान करने की लालसा के कारण आज ऐसे कई निर्माण कार्यो पर जोर दिया जा रहा है जिससे हमारी प्रकृति और हमारे स्वास्थ्य को घातक नुकसान हो रहा  है ।
    एक परिभाषा है, कि जंगल एक समुदाय है जैसे समाज में अनेक प्रकार के लोग एक साथ रहते हैं उसी तरह से जंगल में भी कई प्रकार के वृक्ष, लताएं, झाड़ियां और जीव-जन्तु मिलकर एक समुदाय बनाते हैं और वे सभी एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं । वनों के संरक्षण में कई ऐसे औषधीय पेड-पौधे और जड़ी-बूटियों का रोपण हो रहा है लेकिन शायद वो अधिक उत्तम न हो ।
    अगर वे उत्तम किस्म के न हो तो उनके गुण धर्मो में भी अंतर होगा । प्रकृतिके साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए । अब समय आ गया है जब हमें अपनी प्रकृतिके साथ छेड़छाड़ करनी बंद कर देनी चाहिए और विकास के साथ-साथ प्रकृति के पुर्नजीवन के बारे में भी सोचना चाहिए । इसके अलावा मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर रहने की आदत बनाने का भी प्रयास करना चाहिए ।
    पहाड़ हमारे जल की मीनारें है और हमारे जीवन के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण है जलसंकट का तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता है । इसी प्रकार खेती भी सभी के लिए अनिवार्य है, अगर हमने भविष्य की जाति को जिंदा रखना है तो हमें अपनी कृषि व्यवस्था को जिंदा रखना होगा । हालात जैसे भी हों, इतने कम समय में अन्न की बढ़िया खेती नहीं हो सकती । अब पहले वाली विशुद्धता भी खत्म हो गई है, उसमें कीटनाशक भी शामिल हो गए हैं और उसका जैविक स्तर भी बिगड़ गया है ।
    हमारे यहां दो तरह की खाद्य पदार्थ होते हैं । एक तो, विशुद्ध, साधारण खाद्यो वाली और दूसरी जैविक खाद्यो वाली होती है जिसे अमीर लोग ही खरीदते और खाते हैं । अब तो ऐसी स्थिति हो गई है कि हम टमाटर जैसी चीज में भी जिनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा मांस डालकर उसमें मांस पैदा कर दिया । ऐसे में, अब हमारा टमाटर भी शाकाहारी की जगह मांसाहारी ही हो गया है । प्रकृति के साथ इस तरह की छेड़छाड़ ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह की छेड़छाड़ से हमारे पर्यावरण के साथ-साथ हमें भी भारी नुकसान को झेलना होगा ।

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