गुरुवार, 10 जुलाई 2014

ज्ञान विज्ञान
बैक्टीरिया की एक और करामात
    यह तो काफी समय से पता है कि कई परजीवी अपने मेजबान के शरीर पर कुछ इस तरह नियंत्रण करते हैं कि वह इन परजीवियों के प्रसार में मदद करने लगता है । जैसे एक कृमिहोता है हॉर्सहेयर कृमि । यह एक झिंगुर मेंपरजीवी की तरह रहता है । यह अपने मेजबान यानी झिंगुर को मजबूर कर देता है कि वह पानी में डूब जाए । इस तरह से परजीवी पानी में पहुंच जाता है जहां से वह नए मेजबान को संक्रमित कर सकता है । इसी प्रकार से लिवर फ्लूक नाम का नाम का कृमि जिस चींटी को संक्रमित करता है उसे घास की पत्तियोंपर चढ़ने को विवश कर देता है । यहां से गायें उसे खा लेती हैं और लिवर फ्लूक गाय के शरीर में पहुंच जाता है । 
     मगर एक बैक्टीरिया ने तो हद कर दी है । फायटोप्लाज्मा मानक यह बैक्टीरिया सुदंर फुलोंवाले पौधे सदाबहार  को संक्रमित करता है । इस संक्रमण का नतीजा यह होता है कि पौधे के फू ल तो पत्तीदार टहनियों में बदल जाते हैं, इन  फूलों की पंखुड़ियां हरी हो जाती हैं और एक ही जगह पर खूब सारी टहनियां बन जाती हैं जिसकी वजह से एक झाडूनुमा रचना ( विचेस ब्रूम) दिखने लगती है । इस परिवर्तन के चलते पौधा प्रजनन के काबिल नहीं रहता और पत्तियों का रस चूसने वाले कीट इसकी ओर खूब आकर्षित होने लगते हैं । इन कीटों की मदद से बैक्टीरिया नए-नए मेजबान तक पहुंच  जाता है । है ना, नायाब रणनीति ? दरअसल यह बैक्टीरिया एक ओर तो पौधे के शरीर को बदलकर उसे प्रजनन के अयोग्य बना रहा है, वहीं दूसरी ओर कीटों के लिए आकर्षक भी ।
    इस शोध के मुखिया सास्किया होजेनहाउट ने प्लॉसबायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित अपने पर्चे में बैक्टीरिया की इस कारमात की क्रियाविधि का भी खुलासा किया है । ये बैक्टीरिया एक प्रोटीन एसएपी-५४ की मदद से पौधे को प्रभावित करते हैं । एसएपी-५४पौधे में उपस्थित प्रोटीन आरएडी-२३ के माध्यम से अपना काम करता है । आरएडी-२३ वह प्रोटीन है जो पौधों की कोशिकाआें में पदार्थोंा को नष्ट करता है, उन्हें प्रोटीयोसोम तक पहुंचाता है । प्रोटियोसोम पौधों की कोशिकाआें का कचरा-निपटान केंद्र होता है । एसएपी-५४ जाकर आरएडी-२३ को मजबूर करता है कि वह फू ल बनाने वाले अणुआें को प्रोटियोसोम में भेज दे ।
    यही एसएपी-५४ पौधों के अन्य प्रोटीन्स के साथ क्रिया करके पौधे को कीटों के प्रति ज्यादा आकर्षक बनाता है । देखा गया कि कीट ऐसे पत्तीनुमा फूल वाले पौधों पर ज्यादा अंडे देते हैं । पाया गया कि यदि बैक्टीरिया संक्रमण न हो मगर एसएपी-५४ दिया जाए, तो भी यही असर होता है । शोधकर्ताआें का विचार है कि यह खोज फसलों की उपज बढ़ाने और उन्हें कीट प्रतिरोधी बनाने में मदगार होगी ।

एक सूक्ष्मजीव ने ९० फीसदी प्रजातियों की जान ली थी
    आज से करीब २५ करोड़ वर्ष पूर्व धरती पर ऐसी तबाही मची थी कि उस समय मौजूद करीब ९० प्रतिशत जीव प्रजातियों का विलोप हो गया था । इसे महामृत्यु या ग्रेटडाइंर्ग की संज्ञा दी गई है । यह पर्मियन युग लगभग ३० करोड़ से २५.२ करोड़ पर्ष पूर्व माना जाता है । इतनी भयानक तबाही के कारणों के बारे कई अटकलें लगाई गई हैं । अब इनमें एक और उम्मीदवार जुड़ गया है ।
    ताजा शोध के मुताबिक इस दौर में कुछ सूक्ष्मजीवोंने ऐसे भोजन का उपयोग करने की क्षमता हासिल कर ली थी जो उस समय तक अनुपयोगी पड़ा हुआ था । इस क्षमता के आने के बाद ये सूक्ष्मजीव अति-सक्रिय हो गए थे और इनकी सक्रियता के चलते निर्मित रसायनोंने पूरी धरती को तबाही की ओर धकेल दिया था । 
     ऐसे प्रमाण मिले हैं कि पर्मियन युग के अंत में महामृत्यु के साथ-साथ धरती बहुत गर्म हुई थी और समुद्र अत्यंत अम्लीय हो गए थे । इसके कारणों में प्रमुख यह माना जाता है कि साइबेरिया क्षेत्र में ज्वालामुखियों की सक्रियता के चलते जलवायु परिवर्तन हुआ था । मगर एमआईटी के डेनियल रॉथमैन और उनके साथियोंने इस घटना की एक नई तस्वीर पेश की है । रॉथमैन का कहना है कि महामृत्यु से पूर्व समुद्रों में भारी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ जमा हो गया था । मगर इसका उपयोग करने की स्थिति में कोई जीव नहीं था ।
    मगर जल्दी ही एक सूक्ष्मजीव मेथेनोसार्सिना ने यह क्षमता हासिल कर ली । समुद्र में जमा उक्त कार्बनिक पदार्थ में मुख्य रूप से एसिटेट यौगिक थे । मेथोनोसार्सिना ने एक बैक्टीरिया से एसिटेट पचाने के लिए जरूरी जीन्स प्राप्त्  किए ।
    आजकल के विभिन्न सजीवों के जीनोम के विश्लेषण के आधार पर रॉथमैन ने गणना की है कि यह घटना करीब २५ करोड़ वर्ष पहले की है ।  इसके बाद मेथोनोसार्सिना ने एसिटेट भक्षण शुरू किया और इस प्रक्रिया मेंखूब मीथेन पैदा हूई । मीथेन एक जानी-मानी ग्रीनहाउस गैस है । वातावरण में मीथेन बढ़ी तो धरती का तापमान बढ़ने लगा । रॉथमैन ने उस समय की तलछटी चट्टानों के विश्लेषण, खास तौर से समस्थानिक तत्वों के विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि उस समय मीथेन तथा कुछ अन्य गैसों की सांद्रता अत्यंत तेजी से बढ़ रही थी । धरती इतनी गर्म हुई कि ज्यादातर प्रजातियों का जीना मुहाल हो गया ।
    अलबत्ता, ज्वालामुखी सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि अभी निश्चित रूप से रॉथमैन की बात को सही कहना मुश्किल है ।

हिमालय की ऊंचाइयां मधुमक्खियों के लिए कुछ नहीं
    एल्पलाइन बम्बलबी माउंट एवरेस्ट (९००० मीटर से भी अधिक ऊंचाई) पर पाए जाने वाले हवा के दबाव में मजे में उड़ सकती हैं । प्रयोगशाला अध्ययन में पाया गया है कि वे यह करतब अपने पंखों को ज्यादा चौड़ाई में फड़फड़ाकर करती हैं । हालांकि हिमालय की चौटी पर तो भोजन के अभाव में वे जी नहीं सकतीं लेकिन इस प्रकार की उड़ान उन्हें अनय स्थानों पर शिकारियों से बचने में मददगार हो सकती हैं । 
     कनाडा के वैन्कूवर स्थित ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय मेंपक्षियों की उड़ानों के विशेषज्ञ डगलस आल्टश्यूलर का कहना है कि यह अध्ययन दर्शाता है मधुमक्खियां अनुमान से जयादा ऊंचाई पर उड़ सकती हैं ।
    कई बार बम्बलबी को ४००० मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुए देखा गया है और भोजन की तलाश में तो वे ५६०० मीटर से भी अधिक की ऊंचाई तक चली जाती हैं । अधिक ऊंचाई पर वायु का घनत्व कम हो जाता है जिसके  चलमें पंखों को फड़फड़ाकर पर्याप्त् उछाल नहीं मिलती । और वैसे भी इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा कम होने के कारण मधुमक्खियों का जीवित रहना मुश्किल है । इस बात को अच्छी तरह समझा नहीं गया है कि कीटों की शरीर क्रिया के कौन-से गुण उन्हें इतनी ऊंचाई तक उड़ने में सहायक होते हैं ।
    दो जीव-वैज्ञानिकों माइकल डिलन और रॉबर्ट डूडली ने यह देखने का प्रयास किया की बम्बलबी की उड़ान की ऊंचाई की सीमा वायुगतिकी और शरीर-क्रिया की सीमाआेंकी वजह से निर्धारित होती है । चीन के सीचुआन पर्वत पर काम करते हुए इन्होंने पांच नर बम्बलबी (बॉम्बस इम्पेचुओसस) को भोजन की तलाश में ३२५० मीटर ऊंचाई पर पकड़ा और उन्हें प्लेक्सीग्लास चेम्बर में रखा । जब बम्बलबी ऊपर की ओर उड़ना शुरू करती तो उस चेम्बर के अंदर का दबाव कम किया जाता था । दबाव को हर बार ५०० मीटर की चढ़ाई के बराबर कम किया जाता । पांचों मधुमक्खियां  दबाव के लिहाज से ७४०० मीटर की ऊंचाई तक उड़ती रहीं । तीन ८००० मीटर से भी अधिक ऊंचाई तक उड़ती रहीं, और दो ९००० मीटर से भी अधिक की ऊंचाई तक उड़ पाई ।
    मधुमक्खी ऐसा कैसे कर पाती  है ? यह देखने के लिए डिलन और डूडली ने फ्लाइट चेम्बर के ऊपर से लिए गए वीडियों फुटेज का विश्लेषण किया । उन्होंने पाया कि वे अपने पंखों को ज्यादा बार नहीं फड़फड़ाती थीं बल्कि उन्हें ज्यादा बड़े कोण पर नीचे की ओर लाती थी । इससे हवा के ज्यादा अणुआें को नीचे की ओर धकेला जा सकता है । डिलन का कहना है कि पंख फड़फड़ाने की आवृत्ति को बढ़ाना एक तरीका हो सकता है लेकिन शायद इंजीनियरिंग की दृष्टि से मधुमक्खियों ने ज्यादा आसान तरीका अपनाया है ।
    हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि मधुमक्खियां सचमुच एवरेस्ट की ऊंचाई पर उड़ सकती हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं: